घटिया जुमलों की फ़सल यहाँ,
बोता कोई लाल
जनता बेबस हुई काटती,
दुर्दिन पाँचों साल
जाते जाते समय दे गया,
मुझको छप्पर फाड़।
वरना तुम्हारी अवहेलना,
लगती मुझे पहाड़
है हर कोई यहाँ जानता,
मेरे मन की बात।
केवल तुझे मगर पता नहीं,
कैसे बीती रात।
नफ़रत के सभी माहौल में,
ढूँढ़ो प्रेम सुगंध।
तुमको ज़्यादा हर देह मिले,
चन्दन उड़ती गंध।
हर कोई लिखा लाया यहाँ,
अपना अपना लेख।
तेरी क़िस्मत ना खुली अगर,
दिल्ली जाकर देख।
उधर मज़े मज़े तुम खा रहे,
सत्ता सुख की खीर।
हासिल हमको निवाला नहीं,
हर मौसम गंभीर।
जहाँ-जहाँ कभी जाता रहा,
वहीं हुआ हूँ ढेर।
मेरी उतरन को पहन बने
जंगल के तुम शेर।