मेरी किताब यमलोक पहुँची

15-03-2021

मेरी किताब यमलोक पहुँची

डॉ. अशोक गौतम (अंक: 177, मार्च द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

वे विचारीय नहीं,  प्रचारीय लेखक हैं। लिखने का स्वाँग करते बाद में हैं, मौलिक लिखने का प्रचार पहले शुरू कर देते हैं। उनकी किताब छपती बाद में है, पूरे देश में घूम जाती पहले है। 

किताब का कवर पेज बनवा, वे पहले दिन फ़ेसबुक में डालते हैं, मेरी किताब दिल्ली पहुँची। तो दूसरे दिन फ़ेसबुक से सचित्र पता चलता है कि उनकी किताब गोआ जा पहुँची है। तीसरे दिन जैसे ही फ़ेसबुक पर बुक होता हूँ, तो देख हाथ-पाँव फूल जाते हैं कि बंधु की किताब कर्नाटक में पहुँच गई। कोई गप्प नहीं! किसीको गप्प गप्प न लगे, इसलिए वे कर्नाटक स्थित अपने पाठक के साथ उसकी फोटो भी चिपका देते हैं। चौथे दिन जब जलता-भुनता  फिर फ़ेसबुक पर जाता हूँ कि उतने को तो उनकी किताब बंगाल, बिहार उत्तर प्रदेश मतलब, पूरे देश में विद प्रूफ़ छा चुकी होती है। हद है यार! मैं तो इन दिनों में एक कमरे से दूसरे कमरे नहीं जा सका, और एक उनकी किताब है कि छपते ही पाठकों से बातें करने लग गई। मित्रो! इसे कहते हैं उच्चकोटि का प्रचार! मैं क्या ख़ाक लिखता हूँ? प्रकाशक को सैंकड़ों फोन करने के बाद, और प्रकाशक द्वारा न उठाए जाने के बाद जब किताब छप कर आती है तो उसे देखकर बीवी भी मुँह पर घूँघट डाल लेती है। ज्यों घर मेरी में किताब नहीं, सौतन आ गई हो। 

मित्रो! इन दिनों ग़ज़ब के समय से गुज़र रहा हूँ। इन दिनों अजब के समय से गुज़र रहा हूँ। जब कहीं शिष्टाचार नहीं बचा मैं सबसे शिष्टाचार भेंटें करने में मग्न हूँ। जब कहीं जड़ चेतन में तिल भर आत्मा नहीं बची तो मैं आत्मीय भेंटें करता रहता हूँ, इनसे उनसे। करने के बाद शिष्टाचारीय, आत्मीय मुलाक़ातें और तो कहीं डाली ही नहीं जा सकतीं, सो अपने मित्रों अमित्रों से आत्मीय  शिष्टाचारीय भेंटें कर उन्हें फ़ेसबुक पर डालता रहता हूँ। कुछ भी कूड़ा-कबाड़ जितनी सहजता से फ़ेसबुक पर सेट किया जा सकता है उतना कूड़ेदान में भी नहीं। कूड़ादान में जो शिष्टाचार, आत्मीय जैसी बेकार की चीज़ें डाल दी जाएँ तो उनसे पाँच मिनट बाद सड़ांध आने लग जाए। पर फ़ेसबुक पर ऐसी चीज़ें लंबे समय तक ताज़ी रहती हैं। 

उनसे इसी ईर्ष्या के चलते मैंने भी सोचा कि उनके पुस्तक प्रसार के सारे रिकॉर्ड ध्वस्त करके ही अबके चैन की साँस लूँगा। सो, मैंने बकवास करने की सोची। आदमी जो सोचे तो क्या नहीं हो जाता? सो मैंने फ़ेसबुक पर डाला, मेरी किताब, यमलोक के यमराज के हाथ! ताकि किसी को कनफ्यूजन न हो कि यमराज कहाँ वाले हैं। साथ में प्रूफ़ के लिए यमराज के हाथ में अपनी किताब वाली मुस्कुराती फोटो। जैसे ही मैंने वह असली को मात देने वाली नक़ली फोटो फ़ेसबुक पर डाली तो मेरा हर क़िस्म का दोस्त, अदोस्त प्रचारित, प्रसारित लेखक बेहोश हो गया। यार! इसे कहते हैं आत्मप्रचार की बेहद! बंदे की किताब यमलोक में यमराज के हाथ?  मित्र अमित्र थे कि लाइक करने के बदले अपने दाँतों तले अपनी उँगलियाँ काटे जा रहे थे, अपने अँगूठे चूसे जा रहे थे। 

इसी सिलसिले में कल एक भयभीत मित्र का तो फोन भी आ गया! उसने उतावलेपन में पूछा, “और क्या कर रहे हो? अब आगे किताब किसके हाथ दिखाने की योजना है?” 

“वैकुंठ में ब्रह्मा के हाथ,” मैंने टेनर मारा तो उनके पसीने छूटे। लिखना तो उनका बहुत पहले छूट चुका था। इन दिनों तो वे बस, इधर का ही मौलिक लिखते हैं। 

“तो क्या यमराज से तुम मिले थे?” उन्होंने सवाल उठाया।

“हाँ तो!” मैंने सीना तानकर कहा, “लेखक हूँ, अपने से मिलने के अतिरिक्त किसी से भी मिल सकता हूँ। कोई शक?”

“तुम पर शक के सिवाय और कुछ होता ही नहीं यार! पर यमराज से कब मुलाक़ात हुई?”

“कल ही!” 

“कहाँ?” 

“तुम्हारे घर के पिछवाड़े में।”

“मेरे घर के पिछवाड़े में?”

“हाँ! तुम्हारी क़सम! कीड़े पड़ी ज़ुबान में और कीड़े पड़ें जो सच बोलूँ।”

“वे वहाँ क्या करने आए थे?”

“बोल रहे थे लेखन के नाम पर चोरी करने वाले को उठाने आया हूँ।”

“तो??”

“तो क्या! मुझे देख वे तुम्हें भूल गए और मुझसे बोले, ’और धाँसू राइटर कैसे हो? तुम्हारी किताब की प्रति मिल जाती तो मेरा यहाँ आना सफल हो जाता।’”

“तो?”

“मैंने झट से झोले से किताब की प्रति निकाली और उन्हें भेंट कर किताब के साथ उनकी फोटो ली तो उन्होंने आश्चर्यचकित होते पूछा, ‘ये किसलिए?’”

“‘फ़ेसबुक पर डालने के लिए।”

“तो ज़रा खुलकर मुस्कुराने दो! ऐसी किताब के साथ मुस्कुराने के अपने  ही मज़े होते हैं।”

“तो वे तुम्हारी किताब ले मुस्कुराए?”

“असली के। पर किताब हाथ लेकर ही। अब मेरी किताब से जलन हो रही है न? यार, किताब में दम होना चाहिए दम! किताब में दम हो तो सहृदयी पाठक तो पाठक, गधा तक उसे हाथ में लेते ही उसी वक़्त परमानंद फ़ील करने लग जाए,” मैंने काँटे की फेंकी तो वे काँटे में और फँसे।  

“तो मेरे घर के पिछवाड़े में उनसे वह औपचारिक मुलाक़ात थी या अनौपचारिक?” साँसें मिल जाने के बाद भी उन्होंने साँसें रोके पूछा। पता नहीं क्यों?

“प्योर शिष्टाचार मुलाक़ात!”

“वाह यार! घर का पिछवाड़ा मेरा और शिष्टाचार मुलाक़ात तुम्हारी? अपने पास ज़ीरो बैलेंस शिष्टाचार होने के बाद भी आजकल तो तुम बड़ों-बड़ों से शिष्टाचार मुलाक़ातें कर रहे हो, कभी सीएम से तो कभी पीएम से। आख़िर इतना दिखावे का शिष्टाचार तुम लाते कहाँ से हो मेरे दोस्त?”

"दिखावे से तुम्हारा मतलब? आज हमारे पास आत्मीयता, शिष्टाचार के अतिरिक्त और है ही क्या?” मैं उन पर बिगड़ा तो वे सहमे। ये तो कोई बात नहीं होती भाईजी कि जब हमारे पास किसी को बजाने के लिए पीठ है तो फिर हम किसी को उसके मुँह पर ही क्यों बजाने लग जाएँ?

“तो अगली किताब का फोटो किसके हाथ सहित फ़ेसबुक पर चिपकाने का इरादा है?” उन्होंने सूखे गले पूछा।

“मित्र! भले ही मेरी हरकतों को देख मुझे नरक में भी जगह न मिले, पर मेरी दिली इच्छा है कि इस किताब का अगला फोटो ब्रह्मा के हाथ वाला फ़ेसबुक पर चिपकाऊँ। मेरी किताब को फ़ेसबुक पर देख ब्रह्माजी मुझसे शिष्टाचार भेंट को बेताब हैं,” जब आप फेंकने में सिद्ध हस्त हों तो मैक्सिमम जितनी फेंक सको, उतनी फेंक लेनी चाहिए।  

“तो उनसे आत्मीय भेंट करने का इरादा कब है?” 

“इधर उनका चार्टर विमान मुझे लेने आया, उधर मैं अपनी किताब बगल में दबाए ले उनसे शिष्टाचार भेंट करने रवाना हुआ।” पर अपना पिलान मैं अपने परम मित्रों को क्यों बताऊँ? “भैया? तो सुन, फ़ाइनली परसों जा रहा हूँ। फ़ेसबुक पर देख लेना,” कह मैंने उनका जला दिमाग़ ज्यों ही और जलाया, सुनते ही उनका एक कान पक गया।
 

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