मेरी हस्ती
महेश पुष्पदसीने में छुपाता हूँ
दर्द हज़ारों,
होंठों पर झूठी,
मुसकान लिए फिरता हूँ।
हर रोज़ दम तोड़ती हैं,
ख़्वाहिशें इस दिल में,
मैं नाक़ाम हसरतों का
मसान लिए फिरता हूँ।
न जाने किस-किस ने
कब-कब सँभाला मुझे,
मैं न जाने कितनों का ,
ऐहसान लिए फिरता हूँ।
कोई चाहे अपना हो,
या फिर ग़ैर हो कोई,
मैं सबके लिए प्यार का
जहान लिए फिरता हूँ।
ज़िन्दगी में न जाने क्यूँ,
इक ख़लिश सी रहती है,
मैं सदियों से एक दर्द
अनजान लिए फिरता हूँ।
वो कहते हैं कि बातें हैं ये,
किस्सों और कहानियों की,
जो ज़िन्दगी का मैं थोड़ा सा,
ज्ञान लिए फिरता हूँ।
ख़ुद से हार जाता हूँ कभी,
कितना नाक़ाबिल हूँ मैं,
मैं झूठी अपनी हस्ती,
महान लिए फिरता हूँ।