मेरे बादल
संजय वर्मा 'दृष्टि’आकाश में जाते बादल
ज़मीन पर गर्म हवाओं
धूल भरी आँधियों के संग
उड़ रहे
सूखे कंठ लिए
हर कोई निहार रहा
पेड़ मानों कह रहे हों
थोड़ा विश्राम कर लो
हमारे गाँव में भी
सूखे कुओं, सूखी नदियों से भी
अब तो गीत नहीं गाया जा रहा
धूप तेज़ होने से
बेचारे पत्थरों को
चढ़ रहा बुखार
मेहँदी बिन त्योहारों के
अचानक आ धमकी
पगथली और हाथों में।
कच्ची केरिया दे रही आहुति
तपन के इस लू के खेल में
सड़कें हुईं वीरान
वृक्ष बुला रहे राहगीरों को
और उस पर रहने वाले रहवासियों को
वृक्ष के पत्ते
बादलों से मानों कह रहे हों
ज़रा जल्दी आना
बस, तुम ज़रा जल्दी आना
ताकि मैं तुम्हें ही
गंगाजल मान कर
तुम्हारे शुद्ध जल से तृप्त हो
जीवित रह सकूँ
जल्दी आओगे ना
मेरे सखा बादल।
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