मेला

डॉ. सुनीता जाजोदिया (अंक: 180, मई प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

"प्लेट ले लो बच्चे," पल्लवी उसे दूसरी बार पुकार रही थी।

"प्लेट ले लो बच्चे,‌‌" तीसरी बार पल्लवी ने ज़रा से हल्के तेज़ स्वर में कहा।

"ऐ स्साला, हरामी, कामचोर। काम कर। प्लेट लेता क्यों नहीं? किस दुनिया में खोया है? चल, फटाफट प्लेटें साफ़ कर।"

थोड़ी दूर पर खड़े मैनेजर ने ऊँचे स्वर में कर्कश दहाड़ लगाई तो दस-ग्यारह बरस के उस बच्चे ने झट से पल्ल्वी के हाथ से प्लेट ले ली। प्लेट में से खाने के बचे-खुचे तेल और मसालों के अवशेष को उसने टिशू पेपर से पोंछकर पास रखे कूड़ेदान में डाला और प्लेट को प्लास्टिक के बड़े से गोल टब में डाल दिया, चम्मच को अलग छोटे टब में। अब वह तेज़ी से हाथ चला रहा था। तेज़ स्वर में उसे पल्लवी भी पुकार सकती थी किंतु जब पल्लवी ने देखा कि वह खचाखच भरे डाइनिंग हॉल के एक कोने में टकटकी लगाए खोया है तो पल्लवी ने उसकी ख़्यालों की दुनिया में विघ्न डालना उचित नहीं समझा।

लंच के समय पल्लवी जब अपनी प्लेट रखने पहुँची तो उसे फिर से अपनी ही दुनिया में खोया पाया। भारी भीड़ में अकेला, कटा-कटा, खोया सा, सहमा सा वह। आँखों में चमक, बेतरतीब से बाल, बेहद दुबला और साँवला, एकदम साधारण से नाक नक़्श। मैली-कुचैली, कई जगहों से उधड़ी व टूटे बटनों वाली ढीली सी कमीज़ व निकर पहने था वह। कौन होंगे इसके घर में? क्या यह अनाथ है अथवा घर से भागा हुआ है? आदि सवालों से घिरी जैसे ही वह प्लेट रखने झुकी उस बच्चे की तंद्रा टूटी। उसने आगे बढ़कर मुस्तैदी के साथ उसके हाथ से प्लेट ले ली और कटोरी-चम्मचों को छाँट कर अलग टब में डालने लगा। अब उसके चेहरे पर हल्की मुस्कुराहट थी।

पल्लवी ने उससे बड़े प्यार से पूछा, "बच्चे नाम क्या है तुम्हारा?"

"बंसी।"

बड़े धीमे स्वर में उसने कहा।

"अरे वाह, बड़ा ही प्यारा और मीठा नाम है," उसने चहक कर कहा।

"घर कहाँ है तुम्हारा?"

इस प्रश्न ने उसकी ज़ुबान पर ताला जड़ दिया था।

तभी ऊँची क़द-काठी का वह मैनेजर भी वहाँ आ गया।

"क्या हुआ मैडम जी, फिर से यह कामचोरी तो नहीं कर रहा?"

"अरे नहीं, यह तो बड़ा सीधा और मेहनती बच्चा है। अच्छा, एक बात बताइए मैनेजर जी, क्या आप नहीं जानते कि बाल मज़दूरी अपराध है?"

"जानते हैं, हम अच्छी तरह जानते हैं। मगर आप नहीं जानती मैडम‌ कि अगर हम इसे काम पर ना लगाते तो यह भूख से मर जाता। पिछले हफ़्ते सामने फुटपाथ पर पड़ा यह भूख से तड़प रहा था। जब हमने इसे रोटी दी तो इसने पैर पकड़ लिए कि उसे काम पर रख लें। हमें भी तो अपने बाल-बच्चों का पेट पालना है तो इसे मुफ़्त में तो रोटी नहीं खिला सकते हैं न मैडम। इसका कोई पता ठिकाना भी नहीं है और वैसे भी हम आधार कार्ड के बिना किसी को काम पर नहीं रखते। सो अगले हफ़्ते हमारा आदमी छुट्टी से वापस लौट आएगा तब हम इसकी छुट्टी कर देंगे।"

"अरे नहीं, नहीं। मैंने तो बस यूँ ही पूछ लिया था। आप इसे काम से हरगिज़ मत निकालना। मैं आपके आगे हाथ जोड़ती हूँ।"

इस बार मैनेजर की आँखों में चमक थी। जूठी प्लेटों से भरे टब को अकेले घसीटते हुए रसोई में अंदर ले जाते बंसी को देखा तो उसके भूखे मरने की कल्पना से ही वह सिहर उठी थी। और वह सोचने लगी कि ठीक ही तो कह रहा है मैनेजर। क़ानून अलग है और ज़िंदगी की सच्चाई सर्वथा अलग‌। अब उसने जान बचाई है तो यह नेकी है, अपराध नहीं।

दूसरे दिन सुबह वह नाश्ते की प्लेट रखने पहुँची तो बंसी को अपनी जगह ना पाकर उसका दिल बैठ गया। आज जूठी प्लेटें लेने के लिए कोई नहीं था वहाँ। वह पूरे हॉल में चक्कर लगाकर उसे ढूँढ़ने लगी। रसोई तक में भी वह झाँक आई थी। वह मैनेजर भी नहीं दिख रहा था। बंसी की उम्र का और कोई सफ़ाई मज़दूर वहाँ था नहीं। उसकी निगाहें बेचैनी से उस मासूम बालक को तलाशने लगी। कल रात भोजन के बाद डाइनिंग हाल की सफ़ाई करते वक़्त हुई बातचीत में बंसी ने अपने बारे में थोड़ा बहुत बताया था। तो कहीं उसका बाप घर से भागे हुए अपने बेटे को खोजकर अपने संग ले तो नहीं गया? अगर ऐसा हुआ तो वहाँ तो उसकी और भी दुर्दशा होगी। कोल्हू के बैल की तरह भूखा-प्यासा जुता रहेगा वह सौतेली माँ और बाप की चाकरी में। कभी मैनेजर ने उसकी छुट्टी तो नहीं कर दी? अगर सच में ऐसा हुआ तो क्या वह भूखा मर जाएगा जैसे कि मैनेजर ने कहा था? ‘समसामयिक सामाजिक विमर्श’ पर चर्चा करने यहाँ एकत्र हुए सुधीजनों में क्या कोई उसकी सुध ले पाएगा? आर्थिक तंगी के चक्कर में वह स्वयं भी तो चाहकर भी उसके लिए कुछ कर सकने में असमर्थ है। अनहोनी से आशंकित अपने ही इन विचारों से उसका दिल डूबने लगा था।

 तभी बंसी जूठी प्लेटों वाला वह खाली टब लेकर आता हुआ दिखाई दिया। वह तेज़ी से उसकी ओर बढ़ी। 

“कहाँ चले गए थे तुम?” उसके प्रश्न पर वह कहने लगा कि अनाज और सब्ज़ियों का ट्रक आया था जिसे उतारकर स्टोर में पहुँचाने में वह लगा हुआ था। बंसी को अपने सामने देखकर अब उसने चैन की साँस ली। आज उसने बालों में तेल लगाकर कंघी भी कर रखी थी।

तभी अंजना उसे ढूँढ़ते हुए वहाँ आ पहुँची।

"अरे पल्लवी, तुम अभी तक यहीं हो और वहाँ कुछ देर में सत्र शुरू होने वाला है। इस सत्र में हमें पेपर भी पढ़ना है। चलो, अंदर एयरकंडीशन हॉल में जाकर बैठते हैं।"

"हाँ, चलो," कहती हुई वह उसके साथ विशाल सभागार की ओर बढ़ गई।

अंजना का साथ ना मिलता तो वह कोलकाता में गंगा किनारे विशाल मैदान में लगे इस साहित्यिक कुंभ में हरगिज़ शामिल ना हो पाती।

एम.ए. हिंदी की पढ़ाई में इस क़दर वे पक्की सहेली बनीं कि आगे पीएच.डी. की पढ़ाई उन दोनों ने साथ-साथ ही की। अलबत्ता नौकरी उन्हें अलग कॉलेजों में मिली पर इससे उनकी दोस्ती पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा। इस अंतर्राष्ट्रीय साहित्यिक सम्मेलन के बारे में अंजना ने ही उसे बताया था। उसी ने उसके पति से आग्रह कर उसके लिए इजाज़त ले ली थी कि प्रमोशन एवं वार्षिक वृद्धि के लिए प्रपत्र प्रस्तुतीकरण ज़रूरी है वरना आय वृद्धि नहीं होगी। बिटिया की दसवीं की पढ़ाई और बेटे की प्रतियोगी परीक्षा की कोचिंग फ़ीस के जुगाड़ में यह अनिवार्य ख़र्च उनकी जेब पर भारी पड़ रहा था। अंजना सरकारी कॉलेज में थी और वह प्राइवेट कॉलेज में। उसे अक़्सर कोफ़्त होती कि इन दोनों क्षेत्रों में नौकरी की पात्रता व योग्यता, कौशल माँग, गुणवत्ता व श्रम एक सा ही हैं किंतु वेतन में इतना भारी अंतर क्यों है? हालाँकि अंजना जी जान से प्रयास कर रही है कि उसकी ख़ास सहेली की नौकरी भी किसी सरकारी कॉलेज में लग जाए क्योंकि उसके पिता की सरकारी विभाग में अच्छी पहुँच है।

चाय-नाश्ते व भोजन के समय देश-विदेशों से इस अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में पधारे प्रतिभागियों से भोजन की गोलमेज़ पर बातें होतीं, परिचय का आदान-प्रदान होता। कई लोग अपनी प्रकाशित पुस्तकों की प्रति सप्रेम अपने ऑटोग्राफ के साथ भेंट करते और कई बड़े गर्व के साथ कहते कि कल के समापन समारोह में उनकी पुस्तकों का विमोचन होगा। कोई यह संख्या दो, तीन अथवा पाँच बताता और कोई तो ग्यारह भी बता रहा था। उन पुस्तकों के पन्नों को पलटते हुए पल्लवी सोचती की क्या इन लेखकों में वाक़ई दम है या फिर अपनी जेब के दम पर ये लेखक बने बैठे हैं? एक पुस्तक छपवाने में कितने रुपए ख़र्च होते होंगे? बीस-पच्चीस, तीस या फिर पचास हज़ार? दक्षिण में हिंदी प्रकाशकों की वैसे भी बड़ी समस्या है। फ़िलहाल तो सरकारी नौकरी में लगे बिना वह पुस्तक प्रकाशन के बारे में सोच भी नहीं सकती और यहाँ लोग हैं कि अपनी दर्जनों पुस्तकें भेंट व विमोचन हेतु लिए घूम रहे हैं। ये सारे लेखक या तो सरकारी नौकरियों में होंगे अथवा प्रकाशकों तक इनकी पहुँच होगी। घर के तमाम ख़र्चों में खींचतान कर वह बड़ी मुश्किल से इस यात्रा के लिए पैसे निकाल पाई थी।‌ कॉलेज से ऑन ड्यूटी तो मिल जाती है पर यात्रा भत्ता नहीं। अंजना का चचेरा भाई दिल्ली में है अतः उसने कम से कम शोध प्रबंध तो पुस्तक रूप में प्रकाशित करवा लिया है किंतु पल्लवी के पास ऐसा कोई ज़रिया नहीं है इसलिए एक भी प्रकाशित पुस्तक नहीं है। और सिर्फ विज़िटिंग कार्ड पकड़ाते हुए बार-बार वह ऐसे छोटा महसूस करती थी जैसे कि हर बार जूठी प्लेट पकड़ते हुए बंसी महसूस करता होगा।

देशी-विदेशी पत्रों और मीडिया में बहुचर्चित इस अनूठे आयोजन में सैकड़ों की संख्या में एक से एक धुरंधर– चिंतक, बुद्धिजीवी, लेखक, समीक्षक शिक्षक, शोधार्थी, हिंदी प्रेमी व सेवी वर्ग बड़ी तादाद में मौजूद थे। इस साहित्यिक कुंभ का समापन आज भोजनावकाश के बाद गवर्नर के हाथों होने वाले पुस्तक विमोचन समारोह के साथ होना था। पिछले तीन दिनों से लोगों से मिलते-जुलते बातचीत करते वक़्त भी न जाने क्यूँ पल्लवी की नज़रें अनायास अक़्सर रह-रहकर बंसी पर टिक जाती थीं। कभी खोया-खोया तो कभी भीड़ को टकटकी लगाए देखता बंसी। प्लेटों में भाँति-भाँति के व्यंजन भर-भर कर छोड़ी गई जूठन को कूड़ेदान में मन मसोस कर डालते वक़्त उदास व दुखी बंसी, भोजन के पूरे अंतराल में बतियाते-गपियाते लोगों की प्लेटों में सजे भोजन को ललचायी भूखी नज़रों से देखता बंसी। पेट की भूख के साथ-साथ अनेक तरह की भूख से परिचित होता बंसी। 

हमेशा खचाखच भरे रहने वाले डाइनिंग हॉल में आज इस आयोजन के अंतिम दिन जाने क्यूँ पल्लवी को लग रहा था कि बंसी और उसमें बहुत समानता है। पैसे, प्रतिष्ठा और प्रसिद्धि की इस भीड़ में वह भी तो बेहद निम्न है, असंगत सी, कटी हुई सी और खोई-खोई सी ही तो है आख़िर वह भी। इस सम्मेलन का आख़िरी जलपान करने के बाद पल्लवी ने इस बार जूठी प्लेट बंसी को न थमा कर कटोरी-चम्मचों को उसने स्वयं अलग कर उनके टब में डाल दिया था। 

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