मेहरुन्निसा परवेज़ की कहानियों में आंचलिकता

15-03-2021

मेहरुन्निसा परवेज़ की कहानियों में आंचलिकता

डॉ. एम. नारायण रेड्डी (अंक: 177, मार्च द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

पहाड़ियों तथा जंगलों के निर्दोष संसार के निवासी आदिवासी, आदिम जाति, जनजाति, अनुसूचित जनजाति, वनवासी, काननवासी, अरण्यक आदि अनेक नामों से हमारे समाज में पहचाने जाते हैं। जंगलों के बीच इनका सरलतम् और तनावहीन समाज वर्षों से पल्लवित है। विश्व के अनेक भागों में वे पाए जाते हैं। कहा जाता है कि भारत में कुल जनसंख्या में से सात प्रतिशत लोग इस समूह के हैं। तथाकथित ‘सभ्य’ समाज के लोग उन्हें पिछड़े वर्ग के मानते हैं क्योंकि वे प्रगतिशील संसार से अपरिचित और जंगलों के एकान्त जीवन से बाहर नहीं आना चाहते हैं। लेकिन इस सत्य को अनदेखा नहीं किया जा सकता कि अन्य ‘सभ्य’ लोगों की तुलना में वे लोग अधिक स्वाभाविक और तनावहीन ज़िन्दगी जी रहे हैं।

मेहरुन्निसा परवेज़ के कहानी साहित्य में आदिवासी जीवन का विश्लेषण करने से पूर्व ‘आदिवासी’ शब्द का अर्थ समझ लेना अनिवार्य है। यह माना जाता है कि ‘जनजाति’ के लिए महात्मा गाँधी ने ‘आदिवासी’ शब्द का प्रयोग किया था। ‘आदिवासी’ शब्द का अर्थ आँग्रेज़ी भाषा के ‘अबोरजिनल’ या ‘ट्राइबल’ के हिन्दी रूपान्तर के रूप में प्रयोग किया जा रहा है। आदिवासी एक समूह है जिसका प्राय: एक निश्चित क्षेत्र, बोली और सांस्कृतिक एकरूपता होती है। वे एक ही मुखिया के प्रभुत्व को स्वीकार करते हैं और अपने आपको एक ही पूर्वज की सन्तान मानते हैं।

आदिवासी एक ऐसा समाज है जिसकी स्पष्ट भाषाई सीमा और प्राय: भलि-भाँति निर्धारित राजनीतिक सीमा है। इस परवर्ती सीमा के अन्तर्गत सदस्यों के नियमित व्यवहार के निश्चित तरीक़ों को लागू किया गया है। आदिवासी के लिए एक सांस्कृतिक सीमा भी है, जो कम या ज़्यादा निर्धारित होती है, और यह सामान्य ढाँचा सदस्यों के औपचारिक या अनौपचारिक क्रियाओं को व्यक्त करती है। इस परिभाषा को समझने के पश्चात् आदिवासियों का एक चित्र हमारे समक्ष उपस्थित होता है। आदिवासी जीवन के सबसे बड़ा गुण यह है कि वहाँ का प्रत्येक व्यक्ति समाज का एक सक्रिय अंग है। अनेक परेशानियों के मध्य भी वे अपने आपको नृत्य और संगीत में भुला देते हैं। उनमें अभिज्ञान, निर्लिप्तता और विनोद-भावना का समावेश है। इन आदिम-जाति के लोगों की ज़िन्दगी के पहलुओं से बाहरी लोग नृविज्ञान (एंथ्रपोलजी), समाजशास्त्र तथा साहित्य के द्वारा परिचित हुए हैं। लेखकों ने सूरज की प्रखर किरणें पहुँच पाने में असमर्थ इन जंगलों की गाथा, उनकी संस्कृति, समस्या आदि को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है।

मेहरुन्निसा परवेज़ ने अपने साहित्य में मध्यप्रदेश में स्थित बस्तर ज़िले के आदिवासियों के जीवन का उल्लेख किया है। कहानी साहित्य में आदिवासी जीवन को समझने के लिए उस प्रदेश के परिवेश को संक्षिप्त रूप से जानना अनिवार्य है।

बस्तर छत्तीसगढ़ प्रदेश के सुदूर दक्षिण में स्थित है और एशिया का सबसे बड़ा ज़िला है। क्षेत्रफल में यह केरल राज्य से भी बड़ा है। पुराण-प्रसिद्ध दंडकारण्य क्षेत्र के मध्य यह स्थित है। यह उड़ीसा, आंध्र-प्रदेश तथा महाराष्ट्र से घिरा हुआ है, इसलिए इन राज्यों का प्रभाव भी यहाँ के निवासियों के जीवन पर पड़ना स्वाभाविक है।

इस प्रदेश का नाम बस्तर क्यों रखा गया, इस विषय पर यहाँ प्रचलित मतों को मेहरुन्निसा परवेज़ ने अपनी कहानियों में स्थानीय धारणा के रूप में बताया है कि बस्तर का नामकरण ‘बसंतरी’ से किया गया है जिसका अर्थ है ‘बाँसों की छाया।’ काकतीय राजवंश के प्रथम विजेता अपना अधिकतर समय बाँस-वृक्षों के नीचे व्यतीत करते थे जिससे इस प्रदेश का नाम बाद में बस्तर रख दिया गया। दूसरा मत यह प्रचलित है कि दंतेश्वरी देवी बारंगल में महाराजा अंतमदेव को एक वस्त्र प्रदान किया और कहा कि इसे पहनने से वह हमेशा विजयी होगा। अंतमदेव वस्त्र लेकर यहाँ आया और इस प्रदेश का नाम बस्तर रखा गया।

कुछ पुराने लोगों का मानना है कि बस्तर में पहले राक्षस राज्य करते थे। बालि और सुग्रीव का राज्य यहीं था। यहाँ के धुरवा और परजा जाति के लोग इन्हीं के वंशज हैं। यहाँ पर नल, गंगा, नाग और चालुक्य वंशों के नरेश शासन कर चुके हैं। प्रवीरचंद्र भंजदेव बस्तर रियासत के अन्तिम महाराजा एवं आदिवासियों के श्रद्धा के पात्र थे। सन् 1966 में हुए बहुचर्चित जगदलपुर-गोलीकांड में वे शहीद हो गए। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् बस्तर-रियासत का भारत के साथ विलयन कर दिया गया।

इस प्रदेश के वनों में गोंड (मुरिया, मरिया, हिल मरिया, गडबा, परजा, भतरा, हलबा), कमार, दोरला, धुरवा आदि अनेक प्रजातियों के लोग पाए जाते हैं।

बस्तर में आर्य, द्रविड़ और मुंडा परिवारों की तमाम बोलियाँ प्रचलित हैं। मुख्यत: यहाँ पर हल्बी भाषा का प्रयोग होता है। यह कहा जाता है कि हल्बी बस्तर राज्य के प्रथम चालुक्य, अन्नदेव के अंगरक्षक हल्बों की बोली थी, जिसे आदिम प्रजातियों ने अपनी संपर्क भाषा के रूप में अपना लिया है। हल्बों के घुमक्कड़पन की वज़ह से अनेक प्रदेशों की बोलियों का असर इनकी भाषा पर पड़ा है।

वस्तुत: हल्बी एक ऐसी अद्भुत बोली है, जिसमें संस्कृत, अरबी, फारसी, हिन्दी, उड़िया, मराठी, छत्तीसगढ़ी, अवधी, बघेली आदि न जाने कितनी भाषाओं और बोलियों की शब्दावलियों का समावेश हुआ है।

दस-पन्द्रह कोस की दूरी पर भाषा में थोड़ा-बहुत अन्तर तो पाया ही जाता है। हल्बी की प्रधान उप-बोली भरती है। इस बोली की अनेक शाखाएँ हैं, जैसे: तिकड़ी, गोरली, कंबुचिया, पनारी, घसिया, दोरली आदि।

बस्तर ज़िले का सरकारी मुख्यालय जगदलपुर में है जिसे पहले लोग जगतगुडा कहते थे। यह जंगलों से घिरा हुआ छोटा-सा शहर है जहाँ पर आज ‘आधुनिक सभ्यता’ का जाल बिछाने में सरकार कामयाब हो चुकी है।

‘छोटी-छोटी चाहों को सजाए हुए बड़े-बड़े सपनों में डूबे लोग। अब यहाँ का आदमी बीहड़ नहीं लगता हाँ, इतना ज़रूर लगता है कि बनावटी सुखों का हिमायती, बनावटी सुख के पीछे पागल, अब युग पलट रहा है। चेंज, हाँ सिर्फ़ चेंज।’

यहाँ के निवासियों की स्थिति कष्टप्रद है क्योंकि वे न तो अपनी मूल संस्कृति से अपने आपको जोड़कर रखने में समर्थ हो पा रहे हैं और न ही शहरी सभ्यता को पूर्ण रूप से स्वीकार कर पा रहे हैं। इन लोगों पर इस बीच की स्थिति के द्वारा उत्पन्न मानसिक-द्वन्द्व और व्यथा, इन्हें आसानी से शोषण का पात्र बना रही है।

मेहरुन्निसा परवेज़ ने बस्तर के बीहड़ वनों की आंचलिकता अर्थात् संस्कृति एवं सभ्यता को पाठकों के समक्ष अपने कहानी साहित्य के द्वारा उद्घाटित किया है

आंचलिक कहानी स्वातंत्र्योत्तर साहित्य की एक महत्वपूर्ण देन है और इसके प्रमुख साहित्यकार के रूप में फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ सामने आते हैं। अंचल, आंचलिकता आदि शब्दों के लिए साहित्य कोश में जो अर्थ प्रयुक्त हैं, वही प्रचलित नहीं हैं, बल्कि उनके लक्षणा मूलक अर्थ को ग्रहण करना पड़ता है। भारतीय और पाश्चात्य विद्वानों ने आंचलिकता के स्वरूप को स्पष्ट करने की चेष्टा की है। सामान्य कहानी से आंचलिक कहानी के लक्षण अलग होने के कारण उनकी विस्तार के साथ चर्चा की है। आंचलिक कहानी के लक्षण, तत्त्व, उद्देश्य आदि को लेकर विद्वानों में काफ़ी मत-मतांतर हैं। आंचलिकता और प्रादेशिकता, आंचलिकता और स्थानीय रंग, आंचलिकता और आंचलिक संस्पर्श, आंचलिक कहानी और ग्रामकथा, आंचलिकता और आधुनिकता, आंचलिकता ग्रामीण या शहरी? आदि विषयों पर चर्चा की है।

मेहरुन्निसा परवेज़ के आंचलिक कहानी साहित्य के अध्ययन के पश्चात् हमारे सामने बस्तर के आदिवासी जीवन का एक चित्र उभरकर आता है। हमारा परिचय यहाँ के निष्कलंक आदिवासियों से एवं उनकी सभ्यता, संस्कृति, रहन-सहन, तीज-त्यौहार, रीति-रिवाज़ आदि से हुआ है। शहरीकरण और बाज़ारीकरण के कारण शोषकों के हाथों मानसिक और शारीरिक शोषण से ग्रस्त इन आदिम-जातियों की आज की स्थिति का भी संकेत हमें मिलता है।

बाँसों की झुरमुट से घिरा हुआ बस्तर, मध्यप्रदेश के दक्षिण में स्थित ज़िला है जहाँ के पचहत्तर प्रतिशत निवासी आदिवासी हैं। यहाँ की प्रकृति सौन्दर्य में निखार लाती हुई इंद्रावती, खोलाब और कोतरी नदियाँ यहाँ की भूमि को सिंचित करती हैं। बस्तर के जंगलों में बहती नदी और झरने की गड़गड़ाहट, वन्य-कुसुमों की ख़ुशबू और चिड़ियों की चहचहाहट मन को मोह लेनेवाली हैं। इनके मध्य में बसा हुआ गाँव और क़स्बों में एक सरलतम और तनावहीन समाज कायम है। इन भोले-भाले प्रकृति की संतान को जंगल से ही खान-पान और औषधी की सामग्रियाँ उपलब्ध हो जाती हैं।

आदिम-जाति के ये स्वतंत्रता प्रिय लोग वन में ही रहना पसन्द करते हैं। पेज और शराब इनका मुख्य भोजन है। अन्य अरण्यकों की तरह ये लोग भी वस्त्रों का उपयोग कम करते हैं। इन्हें साज-शृंगार का बहुत शौक़ है। स्त्री-पुरुष सभी विभिन्न प्रकार की मालाएँ, कड़े, अँगूठियाँ आदि से अपना शृंगार करते हैं। यहाँ की लड़कियों का सबसे मुख्य शृंगार शरीर पर गोदना-गुदवाना है। विवाह पूर्व शरीर पर विभिन्न प्रकार की आकृतियों को गुदवाना आवश्यक है। इनका विश्वास है कि इससे भूत-प्रेत और बुरी आत्मा दूर रहती है। बस्तर प्रदेश में नशे के लिए महुआ, सल्फी और ताड़ी का उपयोग करते हैं जिसका ज़िक्र मेहरुन्निसा परवेज़ ने ‘कानीबाट’, ‘टोना’, ‘सूकी बयड़ी’ आदि कहानियों में किया है।

बस्तर-निवासियों का विश्वास है कि यहाँ के कण-कण में देवी-देवताओं का वास है। मुख्यत: यहाँ पर माँ दंतेश्वरी का ही साम्राज्य है। इनके जीवन में जादू-टोने का महत्त्वपूर्ण स्थान है। ज़िन्दा रहने के लिए प्रकृति से संघर्ष करते आदिवासियों के लिए तीज-त्यौहार चेतना और स्फूर्ति पैदा कर देती है। हर त्यौहार के अंत में मेला लगता है जो सिर्फ़ ख़रीदारी और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजन का ही स्थल न होकर बिछड़े दिलों का मिलन स्थल भी है। लेकिन अब इन मेलों में यहाँ की सुन्दर युवतियों के सौन्दर्य का सौदा शहरी-बाबू अपने पैसे और चतुराई के बल पर करते हैं, जिससे यहाँ के पवित्र वातावरण कलंकित हो रहा है।

जंगल के इन निवासियों की ज़िन्दगी से अनेक लोक-कथाएँ जुड़ी हुई हैं। इन लोक-कथाओं से हमें यह ज्ञात होता है कि इन्हें मृत्यु के पश्चात् अगले जन्म में विश्वास है। भूत-प्रेत, आत्मा, अच्छी-बुरी रूह आदि भी ये लोग मानते हैं।

बस्तर की सभ्यता और संस्कृति बनाए रखने का एवं युवा-पीढ़ी में अनुशासन युक्त ज़िन्दगी के प्रशिक्षण देने के उत्तरदायित्व को सँभालने वाली संस्था को घोटुल कहते हैं, जो उन्हें जीने की कला सिखाती है। बाहरी लोगों के हस्तक्षेप के कारण अब लड़कियाँ रात को वापस घर लौट जाती हैं। मेहरुन्निसा परवेज़ ने अपनी कहानी ‘कानीबाट’ में घोटुल की विशेषताओं का वर्णन विस्तारपूर्वक किया है।

यहाँ पर वैवाहिक-पद्धति कई प्रकार की है। जब माता-पिता लड़की को पसन्द करते हैं तो सामाजिक नियमों के अनुसार मंगनी, शगुन, बारात, फेरे, विदाई आदि सारी रस्मों का अनुसरण करना पड़ता है। प्रेमी-प्रेमिका किसी हाट या मंडई से भाग जाते हैं, फिर गाँव-वाले उनका विधिपूर्वक विवाह कराकर उन्हें सामाजिक स्वीकृति देते हैं। विधवा को चूड़ी पहनाकर पत्नी बनाया जा सकता है। यहाँ पर बाल विवाह-प्रथा का प्रचलन न के बराबर है।

बच्चों के छठी के दिन की सारी रस्में औरतें ही अदा करती हैं। नाच, गाना और शराब का दौर ख़ूब चलता है। यहाँ लड़कियों का पैदा होना रईसी का सूचक माना जाता है।

आदिवासी शोषण: आदिवासियों का भोलापन और अज्ञानता का नाजायज़ फ़ायदा बाहरी दुनिया उठा रही है। प्रगति, विकास और राष्ट्रीय हित के नाम पर राजनीतिज्ञ और सरकार उनका शोषण कर रहे हैं। बाहरी दुनिया उन्हें दमन के द्वारा अपना ग़ुलाम बनाए रखना चाहती है। इनकी निष्कलंकता, ग़रीबी, अंधविश्वास और बाहरी दुनिया की ओर इनके आकर्षण के कारण ये शोषित होते जा रहे हैं। नगर-निवासियों की नक़ल करने की होड़ में वे अपने प्राकृतिक-सौन्दर्य से हाथ धो बैठे हैं। लेकिन जन्म, मरण, शादी-ब्याह, बीमारी, प्राकृतिक प्रकोप आदि के बारे में उनकी अपनी व्यवस्था है जिन्हें वे छोड़ नहीं पा रहे हैं। बस्तर के वनवासी इस सांस्कृतिक विलंबन के काल से गुज़र रहे हैं।

वर्षों से सबल निर्बल पर अत्याचार करते आए हैं। जो लोग अधिक चतुर हैं वह अपनी बुद्धि-शक्ति, धन और अधिकार के द्वारा दूसरों का शोषण करते हैं। शोषण के अधिकारों को बनाए रखने के लिए धर्म की दुहाई देते हैं और इस अदृश्य, अलौकिक शक्ति की इच्छा का उल्लेख करते हैं। विज्ञान, शिक्षा और प्रगतिशील विचारधाराओं से कुछ हद तक लोग जागरूक हो रहे हैं लेकिन वन-जातियों के भोले-भाले लोगों की स्थिति कष्टप्रद होती जा रही है। इनके शोषण में पूँजीपतियों के साथ-साथ सरकार का भी पूरा हाथ है। हाड़तोड़ परिश्रम करने के बावजूद भी दो वक़्त की रोटी जुटाना इनके लिए मुश्किल है। ज़िन्दगी-भर प्रकृति से इन्हें संघर्ष करना पड़ता है। परिवर्तन की दौड़ में उनकी अपनी संस्कृति और रहन-सहन को वे न पूर्ण रूप से कायम रख पा रहे हैं और न त्याग पा रहे हैं। पैसे का मोह बढ़ गया है, लेकिन अंधविश्वास और ग़रीबी का कोई अभाव नहीं है। यह एक अजीब-सी स्थिति है जिसका फ़ायदा, बाहरी दुनिया उठा रही है। उनकी संपत्ति और परिश्रम पर तो शहरी लोगों ने अपना हक़ जमाया ही है साथ ही स्त्रियों पर भी अत्याचार कर रहे हैं। अनपढ़ आदिवासी यह सब अपना नसीब समझकर भोग रहे हैं।

कला का शोषण : बस्तर की संस्कृति और आराध्य-देवों का परिचय अन्य लोगों तक पहुँचाने का श्रेय यहाँ के घड़वा-जाति को जाता है। ‘घड़वा’ का शाब्दिक अर्थ है- घड़ने वाला। घड़वा समाज के लोग अपने काल्पनिक शक्ति से देवी-देवताओं की पीतल की मूर्तियाँ बनाते हैं। इस शिल्प का उत्तरोत्तर विकास हुआ है और बाहरी दुनिया ने भी इसे स्वीकार किया है। सर्वश्री मानिकराम और सुखचंद को राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। इसके द्वारा घड़वा कला दूर-दूर तक पहुँचती है। लेकिन अब घड़वा लोग इस कला को जीवित रखने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। वे इस पुरस्कार और अपने बनाए गए काँसे की मूर्तियों का मोल नहीं जानते। वे आज भी ग़रीबी और अभाव की ज़िन्दगी जीने के लिए मजबूर हैं । बाहरी लोग इसका मोल जानते हैं और वह इसकी नक़ल करके हज़ारों-लाखों का व्यापार कर रहे हैं।

‘इस कला में जान फूँकनेवाला कुंठित है, अभावग्रस्त है क्योंकि वह पढ़ा-लिखा नहीं है, वह नहीं जानता कि उसकी बनाई मूर्तियों का बाहर क्या मूल्य है।’

जो मूर्तियाँ जगदलपुर के बाज़ारों में पाँच रुपये में मिल जाती हैं, उसका मूल्य बाहर पचास-साठ से भी ज़्यादा है। बाहर इन चीज़ों की इतनी माँग होने के बावजूद भी यहाँ लोगों को पेट-भर अनाज नहीं मिलता है। इसलिए वे आत्मविश्वास और बेफ़िक्री के साथ मूर्तियों को नहीं घड़ सकते। वे अब कुंठित होकर जीवन व्यतीत कर रहे हैं। ‘टोना’ कहानी के द्वारा मेहरुन्निसा परवेज़ ने बस्तर के घड़वा-जाति की यथार्थ-स्थिति को हमारे समक्ष प्रस्तुत किया है।

धर्म के नाम पर शोषण : आदिवासियों का सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक जीवन धर्म द्वारा परिचालित होता है। उनके सपूर्ण जीवन का केन्द्र-बिन्दु धर्म है। लेकिन अन्य धर्मों के लोगों के हस्तक्षेप के कारण उनके सरल और निष्कलुष जीवन नष्ट हो गया है। धर्म के नाम पर बस्तर के आदिवासियों के शोषण को मेहरुन्निसा परवेज़ ने अपनी आंचलिक कहानियों में उजागर किया है।

यहाँ के आदिवासियों के अनुशासनबद्ध संगठित ज़िन्दगी में बाबा बिहारीदास ने हलचल पैदा कर दी है। बिहारीदास ने इनके भोलेपन और अंधविश्वास का खूब फ़ायदा उठाया है। उसने अपने आपको मरे हुए राजा प्रवीरचंद भंजदेव का अवतार बताया है। इसलिए राजा को प्यार करने वाले ये अंधविश्वासी, बिहारीदास के पीछे पागल हैं। पूरे बस्तर में इनके अनुयायी फैले पड़े हैं। दंतेश्वरी के भक्त अब राम-सीता की पूजा करते हैं। यज्ञ, कंठी, गंगाजल, जनेऊ, झंडा, त्रिशूल, पीले-परिधान आदि को यहाँ स्वीकृति मिल गई है। कंठी बाँधकर इन लोगों ने शराब और मांस छोड़ दिया था लेकिन अपनी प्यारी चीज़ से वे ज़्यादा दिन दूर नहीं रह पाए। कंठी तोड़कर, वे फिर से इसका सेवन करने लगे। दक्षिण में उन्होंने पूरी संपत्ति ‘कंठिवाले बाबा’ के चरणों में अर्पित कर दी। इनके दिए हुए रुपये से ही वहाँ मंदिर, सराय, मठ आदि बने। इनके भोलेपन का फ़ायदा बाबा बिहारीदास ने ख़ूब उठाया है।

‘ये लोग शराब, मांस छोड़कर अपने घरों के जानवर सस्ते दामों में बेच आए। जब होश आया तो ये और ग़रीब हो चुके थे। इनकी अज्ञानता का दूसरों ने हमेशा फ़ायदा उठाया।’

सारी संपत्ति लुट जाने के बावजूद वे अपने आपको धन्य समझ रहे हैं। अपने राजा के लिए सब कुछ अर्पित कर देने की आत्मतृप्ति से वे फूले नहीं समा रहे हैं। लेकिन इन बेचारों को क्या पता कि उन्हें धोखा दिया गया है। उनके इस भ्रम और अज्ञान ने उन्हें और भी ग़रीब एवं दयनीय बना दिया है।

नारी शोषण : शहरी बाबू जब बस्तर की लड़कियों के सुन्दर, सरल और मासूम सौन्दर्य को देखते हैं तो उनकी नज़रें फिसल जाती हैं। इस वन्य-सौन्दर्य को अपनी मुट्ठी में करने के लिए ये चतुर-निवासी मचल उठते हैं। परिणाम स्वरूप ये उन्मुक्त-रागिनियाँ झूठे प्रेम के मायाजाल में फँस जाती हैं और ज़िन्दगी भर के लिए मायूसी और अभावग्रस्त जीवन जीने के लिए मजबूर हो जाती हैं।

‘जंगली हिरनी’ कहानी में मेगन को शहरी-बाबू बहला-फुसला कर अपनी हवस का शिकार बनाता है, फिर उसे हमेशा के लिए छोड़ देता है। उसकी बेटी, लच्छो बिल्कुल साहब की तरह गोरी थी। इससे मेगन के पति, बुधु को शक हो जाता है और दोनों में हर दिन झगड़ा होने लगता है। लच्छो भी मेगन जैसा नसीब लेकर पैदा होती है। वह एक परदेशी अध्यापक के प्रेम-जाल में फँस जाती है और उसके हाथों अपना सर्वस्व लुटा देती है। कुछ महीनों बाद परदेशी वापस शहर चला जाता है और लच्छो को सिर्फ़ टूटे सपने और बिखरे आँसू दे जाता है।

शोषकों की सफलता जंगल के इन निवासियों की मासूमियत की वज़ह से है। अगर ये तरक़्क़ी और नगरीकरण के मोह-जाल से दूर रहें तो शायद ये ज़्यादा ख़ुश रह सकते हैं। जिस दिन इन्हें शोषक-वर्ग के कुतंत्र और अपने बल का एहसास होगा उस दिन इन जंगलों में क्रान्ति की शुरुआत देखी जा सकती है।

आदिवासियों पर शहरी प्रभाव : शहरी चकाचौंध को देखकर आदिवासी उस ओर आकर्षित हो रहे हैं। बस्तर के छोटे-छोटे गाँव जब अपने में ही सीमित थे, तब यहाँ के लोग ज़्यादा सुखी थे। थोड़े से सुखों से ख़ुश होने वालों को जब अपने अभावों का ज्ञान हुआ तब वे कुंठित हो उठे हैं। वे भी तरक़्क़ी करना चाहते हैं, ज़िन्दगी में आगे बढ़ना चाहते हैं और इस कारण उनकी ज़िन्दगी में भी बेईमानी, बनावटीपन और ख़ुदग़र्ज़ी जैसे दीमक लग गईं हैं। पहले यहाँ पर हर चीज़ कौड़ियों के दाम बिकती थी। लेकिन जब से आदिवासी प्रदेश के उद्धार के लिए सरकार ने नए प्रोजेक्ट शुरू किया है तब से यहाँ फ़ैशन और महँगाई ने अपना पंजा फैला दिया है। यहाँ के लोग अब पैसे का मोल जान चुके हैं। पहले जहाँ बाज़ारों में सामानों का एक्स्चेंज होता था वही अब लोग होशियारी और समझदारी से हर सामान पैसा देकर ख़रीदते हैं। वे जान चुके हैं कि उनकी कला, गीत-संगीत, नृत्यु आदि का बाहरी दुनिया में काफ़ी माँग है। अपनी अहमीयत को समझ जाने के बाद उनके पहले वाला भोलापन कलंकित हो रहा है।

फ़ैशन की ओर ज़्यादा झुकाव यहाँ की युवतियों में देखा जा रहा है। पहले जगदलपुर में मोटे-मोटे हाथ, करघे की बनी आदिवासी सफ़ेद, कत्थई, लाल साड़ियों का अंबार लगा रहता था वही अब सिर्फ़ टेरिलीन और नायलोन की साड़ियाँ उपलब्ध हैं। दो हाथ की, जाँघों तक लंबी धोती और जंगली फूलों से शृंगार करने वाली लड़कियाँ अब नायलोन और टेरिलीन की साड़ियाँ पहनती हैं। अफगान स्नो और रेमी पाउडर से पोते हुए गाल, बालों में ढेर सारी रंग-बिरंगे क्लिपों से अपना शृंगार करके ये लड़कियाँ जब निकलती हैं तब हास्यप्रद लगने लगती हैं।

तरक़्क़ी के सिलसिले को आगे बढ़ाने से पहले अगर इन आदिवासियों को थोड़ा वक़्त नहीं दिया गया तो शायद यह शहरीकरण और बाज़ारीकरण उनकी संस्कृति और सभ्यता को पूर्ण रूप से नष्ट कर देगी।

सभ्य समाज के लोग उन्नति के नाम पर आदिवासियों को विरासत में मिले संस्कार से शायद बेदख़ल कर रहे हैं और उन्होंने इनकी शान्त ज़िन्दगी में हलचल पैदा कर दी है। इस आधुनिक युग में जहाँ विज्ञान और तकनीक ने धूम मचा रखा है और जहाँ हर कहीं स्पर्धा का वातावरण छाया है वहाँ बस्तर जैसे पिछड़े क्षेत्र की तरक़्क़ी के बारे में सोचना ज़रूरी है। लेकिन अगर इन लोगों को कुंठा, अभाव-बोध, अकेलापन जैसे आज के महानगरीय रोगों से दूर रखा जाय तो ज़्यादा बेहतर है। अगर ये लोग आने वाली नई पीढ़ी को साफ़-सुथरे विचार और संस्कृति देने में कामयाब हो रहे हैं तो ये तथाकथित ‘सभ्य-समाज’ से पीछे कैसे हो सकते हैं?
 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें