मनुष्यता के निर्वासन की मार्मिक दास्तान वाया 'कुलभूषण का नाम दर्ज कीजिए'  

01-05-2021

मनुष्यता के निर्वासन की मार्मिक दास्तान वाया 'कुलभूषण का नाम दर्ज कीजिए'  

डॉ. कमल कुमार (अंक: 180, मई प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

कुलभूषण का नाम दर्ज कीजिए
लेखक : अलका सरावगी
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
पृष्ठ : 222
मूल्य: रु.199/–

"सारी बातें जो हम बोलते हैं, जिन्हें हम सुनते हैं, समय के प्रवाह में जाने कहाँ खो जाती हैं। जितनी याद रहती हैं वह समूची यादें नहीं होती। यही नहीं, हमारे बाद के जीवन का अनुभव भी उनमें जुड़ता जाता है।"

अलका सरावगी अपने सभी उपन्यासों में एक अलग शिल्प चुनती हैं लेकिन उन सभी में एक बात समान होती है– वर्तमान से अतीत के बीच कि वह आवाजाही जिसमें मनुष्य और समाज के उतार–चढ़ाव, दोनों को बड़े ही संपूर्णता से रचा गया है। 'कुलभूषण का नाम दर्ज कीजिए' उपन्यास से गुज़रना तत्कालीन दौर के एक बड़े राजनैतिक एवं ऐतिहासिक द्वन्द्व से गुज़रना है और हमें याद रखना रखना भी है कि यह हमारे अंदर की मनुष्यता ही है जिससे मैं जिससे हमारे जीवन का मूल्य बचा रहता है। इस उपन्यास में इतिहास और यथार्थ के बीच निरंतर आवाजाही है इसे पढ़ते हुए पूर्वी बंगाल का मुक्ति संग्राम की भयावह धार्मिक नस्लीय द्वेष भावना, भाषा के प्रति श्रेष्ठता का दंभ, पागलपन, ख़ून-ख़राबा, बलात्कार जैसी सब यातना दर्ज हो जाती हैं। पूर्वी बंगाल के लोगों का निर्वासन और उनको भारत में शरणार्थियों की तरह अपने घर बंगाल से बाहर दंडकारण्य (छत्तीसगढ़ से लेकर आँध्र प्रदेश की सीमा तक) जैसे पराए जगह में स्थापित करने की कोशिश शस्य-श्यामला धरा को छोड़कर लाल पत्थर लाल मिट्टी पथरीली ज़मीन और बियाबान जंगल की प्राणलेवा यात्रा सब कुछ इतनी मार्मिकता के साथ दर्ज किया गया है कि एक बार आप इसे पढ़ना शुरू करने तो कुछ देर बाद जब अपनी आँखें बंद करेंगे तो यह पूरा उपन्यास एक सिनेमा की तरह आपके आँखों के सामने चलने लगता है। इतिहास और देश को मिलाकर एक ऐसी भूमि का निर्माण होता है जो अपने चरित्र द्वारा हमें पूरी क्षमता के साथ एक त्रासद सच्चाई को हमारे ज़ेहन में उतार कर आत्म–पड़ताल करती दिखाई देती है।

'कुलभूषण का नाम दर्ज कीजिए' उपन्यास का प्रकाशन ऐसे समय में हुआ है जब हमारे समाज में हमारे देश में धर्माँधता झूठ, छद्म परिवेश, भ्रष्टाचार, पतित राजनीति, बिका हुआ मीडिया सब अपने पहचान के चरम पर जा पहुँचा है। हमारे देश में भी नागरिकता क़ानून को सांप्रदायिक आधार पर तय किया जा रहा है। समूचा विश्व शरणार्थी समस्या और विस्थापन का दंश झेल रहा है। संयुक्त राष्ट्र संघ और यूनिसेफ के आंकड़े देखकर आपके रोंगटे खड़े हो जाएँगे। मौजूदा समय में स्थापित रोहिंग्या बांग्लादेश भारत जैसे देशों में अवैध रूप से जा रहे हैं, सभी देशों ने अपनी सीमाओं की सुरक्षा को चाक-चौबंद कर दिया है। बांग्लादेश ने तो मानवाधिकार संगठनों के भारी विरोध के बावजूद इन रोहिंग्या शरणार्थियों को समुद्री जहाज़ों में भरकर एक सुनसान द्वीप पर भेजना भी शुरू कर दिया है।

इस उपन्यास में एक जगह श्यामा के पिता गोविंद धोबी ने देश विभाजन की स्थिति को देखकर उसका विश्वास गाँधीजी से डगमगाने लगता है और वह सवाल खड़ा करता है – "यह गाँधी बाबा कोई काम का नहीं है। इसने देश के तीन टुकड़े कर डाले।...... किसी को नहीं जानते कलकत्ता में। किसके कपड़े धोयेगें वहाँ? हमारा घर-द्वार, हमारी नदी, हमारा धोबी घाट छोड़कर कहाँ जाएँगे? गाँधी बाबा ने सोचा हमारे लिए? सोचा कि हमारा पेट कैसे भरेगा?" यह गोविंदो भावुकता और क्रोध में आकर ज़रूर कहता है लेकिन जब श्यामा को वह घटना याद आती है जब वह पहली बार गाँधी जी को देखने रेलवे स्टेशन जाता है और वहाँ गाँधीजी के इन बातों को सुनकर वह पूरी तरह प्रभावित होता है– "तुम मुसलमान हो तो मुस्लिम लीग की तरफ़ मत देखो। तुम हिंदू हो तो हिंदू नेताओं की ओर मत देखो कि वे लोग तुम्हारी तकलीफ़ मिटा सकते हैं। वे लोग तुम्हारी रोज़ की ज़रूरतों के बारे में क्या जानते हैं? सिर्फ़ तुम जानते हो तुम्हारे पड़ोसी को किस चीज़ से तकलीफ़ है तुम ही उसकी छोटी–छोटी बातों को समझ सकते हो।

कुलभूषण केवल एक व्यक्ति नहीं अपितु अपनी मातृभूमि से विस्थापित और अपने परिवार वालों से उपेक्षित उस व्यवसायी समुदाय का प्रतीक है जो राजनीतिक, सामाजिक दंगों के दौरान इस मुठभेड़ में पिस गया और विस्थापितों की तरह घर बार छोड़कर सर छुपाने के लिए दर–दर की ठोकर खाने से लेकर भिखारी बनने तक विवश हो गया। विस्थापित लोगों ने अपनी बनी बनाई ज़िंदगी को बिना किसी को दोष दिए चुपचाप हिंसक जानवर के रूप में आए दंगाइयों से लूट पीटकर बंगाल से दूर रायपुर में दंडकारण्य जंगलों में टीन की छतों के नीचे जानवरों की तरह और बंजर–पथरीले ज़मीन को उपजाऊ बनाकर खेती के लिए मजबूर किया गया।

यह उपन्यास 1947 भारत विभाजन के पश्चात बने पूर्वी पाकिस्तान से बांग्लादेश बनने एवं उस बांग्लादेश में कुष्टियाँ शहर के बसने और उजड़ने वाले हिंदू मारवाड़ी, हिंदू बंगालियों एवं बिहारियों की कथा है जिन्होंने अपनी पूरी ज़िंदगी लगा दी थी उस कुष्टियाँ शहर को सँवारने में जो अब उनके सपने, उम्मीद, जीवन, भरोसा सब से जुड़ा हुआ था। यह कुष्टियाँ शहर अर्थात जूटों का शहर पहले महायुद्ध के समय तक पूरी दुनिया में सबसे बड़ा जूट के उत्पादन का शहर था और कुलभूषण के परिवार वाले इस इसके सबसे बड़े व्यवसायी थे।

अलका सरावगी जी का यह उपन्यास 1964 के दंगे नोआखाली और 1967 के बारिसाल के दंगे के पश्चात बंगाल के मुक्ति वाहिनी सेना द्वारा बांग्लादेश की आज़ादी (1971) के लड़ने वाले लोगों एवं पश्चिमी पाकिस्तान के सेनाओं के अत्याचारों एवं शक्ति बल द्वारा बंगाली हिंदुओं और बंगाली मुसलमानों को कुचलने तथा अन्य हिंदुओं की संपत्ति को हड़प कर तिल–तिल कर मरने के लिए विवश करने वाली पश्चिमी पाकिस्तान के बलूचिस्तान सेनाओं के मृत्यु तांडव की कथा को व्यक्त करती है।

उपन्यास के शुरुआत रास्ते में लगे एक आत्मकथा नाटक के पोस्टर से होती है जिसका नाम 'बीसवीं सदी के अंतिम साल का महाकाव्य' इसका अर्थ कुलभूषण जैन जानना चाहता है लेकिन किसी से कुछ पूछ ना सका, शायद वह अपने आप में इन शब्दों का अर्थ समझता हो। संयोग की बात है कि उस पोस्टर के नायक का नाम भी कुलभूषण है  परंतु वह यह समझ रहा था कि पोस्टर वाला कुलभूषण उसकी सच्चाई नहीं व्यक्त कर रहा है, वह नहीं चाहता था कि कोई उसे जाने। आत्मकथा तो हर किसी की है और हर किसी के अंदर है। कोई कहता है और वही कोई नहीं नहीं कहता। पर आत्मकथा की शुरुआत उसे कहाँ से करनी होगी अपने बेघर होने की कथा से या बिना देश का होने की कथा से आज के बांग्लादेश या उन दिनों के ईस्ट पाकिस्तान के कुष्टिया शहर के टूटने छूटने की कथा से या और पीछे जाकर राजस्थान के बिसाऊ नाम के गाँव से कुलभूषण के दादा भजनलाल के पूर्वी पाकिस्तान में कुष्टिया बसने से? इस उपन्यास को बेहद सचेत होकर पढ़ना होगा नहीं तो सूत्र छूट जाएँगे तो उपन्यास का मर्म समझ में नहीं आऐगा कथा चक्र इतनी तेज़ी से बदलता है कि किताब के पन्नों को पीछे पलटना पड़ेगा जैसे कथा का प्रवाह पूरी गति से चल रहा हो और और अचानक से थम जाएँ।  लेखिका की क़िस्सागोई की शैली और भाषा इतनी सहज एवं सरल है कि कहीं-कहीं गद्य में कविता का भान होता है। इस उपन्यास में कहानी के भीतर कहानी है, इस उपन्यास को पढ़ते हुए वे कहानियाँ कुलभूषण के बहाने दर्ज हो जाती हैं और हमारे ज़ेहन में दर्ज हो जाते हैं श्यामा, गोविंदो, अमला, अनिल मुखर्जी, कार्तिक बाबू, मोहम्मद इस्लाम, बड़ी ठाकुर माँ, ललिता, रमाकांत और मल्ली।

कुलभूषण को हमेशा अपने प्रिय को छोड़ना पड़ता है चाहे देश हो, घर, प्रेम, मित्रता और नौकरी। वह अपने जीवन के हिस्से को अर्पण करता रहा यहाँ तक कि उसकी स्मृति का सबसे ख़ुशनुमा समय कुष्टिया, श्यामा के साथ गोराई नदी के तट पर बिताए गए पल, मल्ली यानि मालविका का अचानक इस दुनिया से जाना, अनिल दा का विक्षिप्त हो जाना, माँ-बाप से दूरी। इतनी यातनाएँ किसी भी मनुष्य को पागल करने के लिए पर्याप्त है लेकिन उसके मित्र श्यामा उसे 'भूलने वाले बटन' के बारे में बताया था– " अरे कुलभूषण अपने शरीर में ऊपर वाले ने ऐसा बटन लगाया है कि बस अपनी उँगली उस पर रखी और तुम सब भूल जाओगे...... बटन दबाया कि तुम्हारी पूरी आत्मा में ख़ुशी की लहर उठने लगेगी।"  क्या इतना आसान होता है किसी भी समस्या को भूलना लेकिन यह भूलने वाली बटन पूरे उपन्यास में अपनी उपस्थिति बेहद प्रभावी तरीक़े से बनाए रखती है।

श्यामा और कुलभूषण एक दूसरे के पूरक पात्र हैं। जो काम कुलभूषण ने कुष्टिया में रहकर नहीं कर पाया वह काम श्यामा ने किया और कुलभूषण ने श्यामा के काम को कोलकाता में आगे बढ़ाया। दोनों ने अपने-अपने स्थान दुःख, पीड़ा और अपमान को भूलने वाले बटन को दबाकर अपने जीवन कर्तव्यों को सर्वोपरि रखकर पूरे जीवन के लिए कुर्बान कर दिया। श्यामा तो अमला के साथ मर जाता है लेकिन कुलभूषण इन सबकी कथा को इतिहास में दर्ज करने के लिए ज़िंदा रहता है। पूर्वी बंगाल के बांग्लादेश बनने के पचास साल हो गए और यह लंबा समय अपने गर्भ में न जाने कितने ज़िंदगियों को बिछड़ते, टूटते-मरते देखा होगा। जब कुलभूषण दंडकारण्य में एक बुढ़िया से बातें कर रहा होता है तब उसने जो कहा वह उस त्रासदी का मार्मिक इतिहास बनकर सामने आता है– "अरे बेटा, अब तो मेरे जीवन की इतनी कहानियाँ हो गई हैं कि एक रामायण बन जाएँ। चौदह साल तो मेरे बनवास के हो गए। जाने इसका अंत कब होगा। पाकिस्तान बनने के बीच तीन साल बाद बारिसाल का दंगा हुआ था ना? तभी हम रात भर पानी भरे हुए धान और पाट के खेतों में छुपते-छुपाते चलकर बॉर्डर पार कर इधर के बंगाल आए। बॉर्डर से हमें ऐसे ही एक ट्रक में भरकर बहुत दूर एक कैंप में ले गए। तब मेरी बहू के पेट में  आठ महीनें का बच्चा था। ट्रकवाले ड्राइवर ने ऐसा ट्रक चलाया कि बहू को जचगी का दर्द उठ गया। ड्राइवर से बड़ी मिन्नत करके सब लोगों ने ट्रक रुकवाई और पीछे जाकर झाड़ियों में बच्चा पैदा करवाया। देख उधर कोने में मेरा चौदह साल का पोता दिख रहा है ना? वही जन्मा था ट्रक में। बंगाल के कैंप से जबरदस्ती माना कैंप भेज दिया। अब फिर नया बनवास हो रहा है।" 

यह गाथा कुलभूषण की ही नहीं एक देश और मनुष्य की भी बेदख़ली के इतिहास और यथार्थ को बयान करता है। अनगिनत शरणार्थियों की संख्या असहनीय यातनाओं से लड़ते–मरते कोलकाता पहुँचना। शरणार्थी कैंपों में अमानवीय नारकीय स्थिति का सामना और आगे की नियति क्या होगी यह किसी को नहीं पता था। इसी अमानवीय परिवेश में कुलभूषण जैन कोलकाता के तेलीपाड़ा का गोपालचंद्र दास बन जाता है, लेकिन उसे मालविका की मृत्यु के पश्चात अपने वास्तविक नाम के प्रति मोह जागता है उसे लगा कहीं कुलभूषण नाम इतिहास के अँधेरों में दब न जाए उसे अपनी वास्तविक पहचान के साथ जीने की जिजीविषा प्रबल हो जाती है। वह पत्रकार को बार-बार ज़ोर देता है कि अपनी किताब में मेरा नाम कुलभूषण ही दर्ज कीजिएगा।

कुलभूषण का व्यक्तिगत जीवन भी काफ़ी रहस्यमयी दिखता है। वह उन व्यक्तियों में था जो मालिक होकर मज़दूरों से बीड़ी माँग कर पीने वाला, उनके सुख–दुख से जुड़ने वाला, कलकत्ता में भी वहाँ के मोची, धोबी, नाई, सब्ज़ी वालों से लेकर भिखारी तक सबसे आत्मीय संबंध था वह सब के साथ जुड़ा होता है। यह जुड़ाव उसे अपने मोहल्ले और पार्टी के लोगों से भी था, किसी के पारिवारिक झगड़े को सुलझाना, पार्टी और क्लब के कामों से जुड़ना। जुड़ने के अलावा वह सबके सुख और दुख में बहुत गहरे रूप से जुड़ा हुआ होता है। उसके रंग रूप के कारण उसके परिवार वाले उसको उतना महत्व नहीं देते उसकी माँ भी उसको कोसती रहती है इन सब उपेक्षाओं पर के बावजूद उसने एक बंगाली लड़की से प्रेम विवाह किया यह भी बड़ा दिलचस्प हिस्सा है इस उपन्यास का। कुलभूषण की प्रेमकथा जिसे लव कहना समीचीन होगा क्योंकि उसे लगता है कि प्रेम विवाह के बाद होता है। रीमा सरकार से प्रेम के बाद ही उसने अपने मूल नाम को छोड़कर अपना नाम गोपालचंद्र दास रख लिया था। कुलभूषण कुलीन मारवाड़ी समाज का विद्रोही रूप दिखाई पड़ता है।

श्यामा के भी जीवन में अमला का आना महज़ एक संयोग ही था लेकिन जिस अलौकिक प्रेम का रूप यहाँ दिखता है वह बड़ा ही अनूठा और हृदयस्पर्शी है। अमला अली से प्रेम करती थी लेकिन परिस्थितिवश सारी चीज़ें बदल जाती हैं और श्यामा अमला को लेकर अपने घर आता है और अपनी माँ से इसे अपनी बहू स्वीकार करने को कहता है। जिस परिस्थिति में श्यामा ने हमला को अपनाया कोई भी स्त्री उस पर क़ुर्बान हो जाती लेकिन श्यामा का अमला के प्रति जो भाव था वह आज के समय में सोचना भी संभव नहीं है। कथा लेखिका ने इस प्रसंग के बहाने मानवीय संवेदना के उन तारों को छुआ है जो बजते ही पूरे मन को झंकृत कर देती है। श्यामा और अमला का संबंध इन पंक्तियों में देखिए – "वह तो उसे देवी की तरह पूजता है और यह क्या कम है कि उसके घर और मन को दोनों को अम्लान एक मंदिर बना दिया है।" अमला ने तो श्यामा को स्वीकार कर लिया था लेकिन श्यामा अभी भी उसके प्रति अपराध बोध से भरा रहता है। एक जगह अमला कहती है– "जब एक दूसरे को स्वीकार कर लिया तो कैसा पश्चाताप", तभी श्यामा के मन में विचार आता है कि उसका हाथ पकड़ ले लेकिन उसे अपने रंग रूप पर ग्लानि हो जाती है। जब अमला श्यामा के बाप के मरने के बाद उससे कहती है कि हम अब पति-पत्नी की तरह रहेंगे। जब यह श्यामा सुना तो वह कुलभूषण द्वारा दिए गए पन्ना जड़े सोने की अंगूठी उसकी अंगुली में पहना दिया और एक दूसरे को पकड़कर रोते रहे। गोविंदा की हत्या के बाद जब श्यामा मुक्तिवाहिनी सेना में सम्मिलित हो जाता है, अमला की अस्मिता को  पाकिस्तानी फ़ौज के जवानों ने तार-तार कर दिया। किसी तरह श्यामा ने उनके चंगुल से अमला को मुक्त कराया, लेकिन उन दोनों का अंत बेहद दुखद होता है।

सुंदर अतीत कभी पीछा नहीं छोड़ता, तभी तो कुलभूषण को हमेशा याद रहता है। लेखिका ने कितनी गहराई में डूब कर ये लिखा होगा। जब कुछ छूटनेवाला होता है, तभी पता चलता है कि उसके बिना जीना क्या होगा। गोराई नदी के पास से गुज़रती रेल लाइन के दोनों तरफ़ दुर्गा-पूजा के ठीक पहले उगनेवाले सफ़ेद कास घास के लहराते झुरमुट उसने फिर कभी नहीं देखे। क्या दुनिया में उससे सुन्दर कोई दृश्य हो सकता है? बचपन से सुबह–शाम दोनों वक़्त गोराई में छलाँग लगाकर दूर तैरते हुए नहाना और लाइन लगाकर चौक के मकान के सामूहिक गुसलखाने में नहाना क्या कभी एक हो सकता है? गोराई नदी ही उसके सारे सुख–दुख की साथी थी। जब कभी ग़ायब होने पर उसकी खोज होती, वह वहीं बैठा मिलता। पिताजी कई बार कहते– 'पिछले जनम में तुम गोराई में हिलसा मछली रहे होगे।' पिताजी जैसे बनियों के लिए नदी उनके व्यापार का माल आने–जाने का रास्ता भर रही होगी। पर कुलभूषण के लिए गोराई उसकी आत्मा में बहती थी। उसकी आँखें नदी के पानी को, उसमें बहती छोटी–बड़ी नावों को और माँझियों को, नदी के किनारे में छोटे-से द्वीप पर उगे पेड़ों और जाड़े में उन पर भर जानेवाली प्रवासी हंसचीलों को देखते-देखते कभी नहीं थकती थीं। बारिश में उफन रही गोराई हो या जाड़े में नीले आकाश को झलकाती शान्त गोराई हो, उसे गोराई हर बार पहले से ज़्यादा अद्भुत लगती।

इस उपन्यास के आख़िरी हिस्से में 'कुलभूषण: कौन कहता है नाम में क्या रखा है' पत्रकार कुलभूषण से कई सवाल करता है और वह उससे विभाजन और उस परिस्थिति के बारे में जानना चाहता है। वह कहता है– " मैंने रिफ्यूजियों को पास से देखा है। वे ख़ाली अपने छूटे हुए घर, नदी और खेतों की बातें करते हैं। वे स्मृतियों के तोते बनकर रह गए हैं। उन्हीं पुरानी बातों को जगहों को नामों को दोहराते रहते हैं जिन्हें छोड़ आए हैं। वे इंसान हैं सिर्फ़ ख़ुद के लिए। सरकार के लिए ज़मीन को नष्ट करने वाले टिड्डियों से ज़्यादा कुछ नहीं है। बस उन्हें टिड्डियों की तरह मारा नहीं जा सकता। उन्हें पृथ्वी पर समय का उल्टा चक्कर लगाते रहने के लिए छोड़ दिया गया है। उनके लिए समय वर्तमान से भविष्य की ओर नहीं जाता। वर्तमान से भूतकाल की तरफ़ जाता है।" 

युद्ध हमेशा स्त्रियों के लिए दोहरी आपदा की तरह आता है, कहीं इज़्ज़त गयी तो कहीं परिवार। उनके दुखों की सूची का कोई अंत नहीं, न जाने कितनी औरतों का बलात्कार हुआ। सारी लड़ाइयाँ उनकी देह पर ही लड़ी जाती हैं।

भाषा के सवाल पर अलग होने वाला यह देश कैसे अपनी संस्कृति से गहरे रूप में जुड़ा हुआ था। "पश्चिम पाकिस्तान के हुक्मरानों को लगता था कि बंगाली मुसलमान बांग्ला भाषा और रवीन्द्रनाथ के गीतों के कारण सच्चे मुसलमान नहीं हो पा रहे। वे हिन्दुआनी हैं, मतलब उनकी संस्कृति में बहुत हिन्दूपन है। बंगाली औरतें नाचती और गाती हैं। यह इस्लाम में कुफ़्र है। रवीन्द्रनाथ की जन्मशती पर उनका जन्मोत्सव मनाने पर भी पाबन्दी लगाने की कोशिश की गयी।"

परिवार ही आदमी को पोसता है और परिवार ही आदमी के मरने का कारण बनता है। यह सूत्र ही पूरे उपन्यास में नेपथ्य में बना रहता है। इन सब घटनाओं, पात्रों एवं उनके संयोग के बाद यह कहा जा सकता है कि यह उपन्यास विस्थापित जनजीवन की समस्या को चित्रित करने के साथ सामाजिक, राजनीतिक और पारिवारिक विस्थापन का मार्मिक चित्र प्रस्तुत करता है। इस उपन्यास में विभाजन की समस्या को एक नए प्लॉट पर रचा गया है विषय तो पुराना है पर स्थान और पात्र नए हैं। भाषा में सहज प्रवाह भी दिखाई पड़ रहा है, लेकिन शिल्प के स्तर पर यह उपन्यास और भी मज़बूती की माँग करता है। कई जगहों पर व्याकरणिक दोष और भाषा का दोहराव दिखाई पड़ता है। लेकिन मुकम्मल रूप में देखा जाए तो उपन्यास एक नई उम्मीद पैदा करता है। यह उपन्यास सिर्फ़ बँटवारे की राजनीति की कहानी नहीं बल्कि परिवारों के भीतर बँटवारे और दरारों की भी दास्तां भी है।
 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें