मनरंजना! मन रंजना!
डॉ. भारतेन्दु श्रीवास्तवमनरंजना! मन रंजना!
कैसे प्रकट तुम हो रहीं बनकर मधुमय जाग्रत सपना?
किस भाव की यह शब्दों में हो रही है अभिव्यंजना?
बिन तूलिका के वर्णमय यह चित्रित कैसे है सृजना?
एक झलक क्या या आओगी फिर प्रिये तुम मनरंजना?
वास्तविकता कैसे बन गई ’भारतेन्दु’ मधुर कल्पना?