मन्नु भंडारी की कहानियों में संवेदना

01-02-2015

मन्नु भंडारी की कहानियों में संवेदना

डॉ. राजकुमारी शर्मा

संवेदना शब्द से हमारा अभिप्राय-सहानुभूति, हमदर्दी से है। संवेदना दो प्रकार की होती है। मानसिक और शारीरिक। कथा-साहित्य में संवेदना का अर्थ भावों के द्वारा व्यक्त की गई अनुभूतियों से है जैसे करुणा, भय, प्रेम, निराशा, कुंठा, क्रोध आदि।

'क्षय’ कहानी में मन्नु भंडारी ने पात्र कुंती को मानसिक संवेदना से पीड़ित दिखाया है। कुंती अपने परिवार में सबसे बड़ी हैं। एक छोटा भाई है, जो डे-बोर्डिंग में पढ़ता है। स्कूल घर से काफी दूरी पर है। कुंती के घर की आर्थिक हालत अच्छी नहीं थी। पापा भी लंबे समय से बीमारी से ग्रस्त थे। कुंती स्कूल में टीचर थी, जहाँ उसे अधिक आय नहीं मिलती थी। कुंती ने एकाएक ट्यूशन पढ़ाने का मन ही मन निर्णय कर लिया था। कुंती का सारा समय स्कूल, पिता की बीमारी और ट्यूशन पढ़ाने में ही बीत जाता था। कुंती इतनी व्यस्त हो गई थी। उसे अपने लिए भी समय नहीं मिलता था केवल परिवार की ही चिंता रात-दिन सताती रहती थी। कुंती के पिता क्षय रोग से पीड़ित थे। पिता की बीमारी से वह बहुत परेशान रहती थी, जब अधिक दुःखी होती तो वायलिन बजा कर अपना दुःख थोड़ा हल्का कर लेती है। उस रात भी वह उन्हीं समस्याओं से घिरी हुई थी। कुंती का मन हुआ कि वह आँखें मूँदकर बेसुध-सी वॉयलीन बजाने लगी ओर उसकी त्रस्त आत्मा खिन्न मन और शिथिल शरीर धीरे-धीरे सब थिरकने लगे। वह किसी और ही लोक में पहुँच गई।1 कुंती का मन कहीं नहीं लग रहा था, तभी उसे अपने बीमार पिता की आहट महसूस हुई। कुंती छत पर थी तुरंत नीचे उतरी और देखा "खों, खों, खों .................. पापा की लगातार खाँसी से उसकी तन्मयता टूटी। एकाएक ही अँगुलियाँ शिथिल हो गई और वॉयलिन ठोड़ी के नीचे सरककर छाती पर आ टिका। वह नीचे आई। पापा को आज तीसरी बार दौरा उठा था। उन्हें दवाई दी और पास बैठकर ठीक सहलाती रही, जब तक वह शांत नहीं लेट गए।2 कुंती पिता के पास काफी देर तक बैठी रही। जैसे ही वह सो गए वैसे ही वह उठकर अपने कमरे में चली गई। कुंती अपने कमरे में लेटे-लेटे सोच रही थी। कल ट्यूशन पढ़ाने का उसका पहला दिन है। स्कूल में उसे मात्र 200 रुपये ही मिलते हैं। कुंती अपने छोटे भाई को अपने मामा के यहाँ भेजना चाहती थी, पढ़ाने के लिए। घर के सभी सदस्य खासकर पिता जी मेरी इस बात से बिलकुल सहमत नहीं थे। वह टुन्नी को अपने पास ही रखना चाहते थे। पिता जी कुंती से कहते हैं कि "एक बार कोशिश करके इसे चढ़वा तो दे, तेरी हैडमास्टर साहब से अच्छी जान-पहचान है-वहाँ भी जाए तो एक साल तो बच जाए"।3 कुंती को पिता की बात सुनकर काफी क्रोध आया। उसने एक शब्द नहीं बोला। शांत रहकर अपने आपको दिलासा देते हुए बोली पापा, कम-से-कम स्कूलों को तो इन सारी बातों से भ्रष्ट न करवाओ। टुन्नी मेरा अपना विद्यार्थी होता तब भी मैं उसे कभी नहीं चढ़ाती।4 कुंती की इस बात से काफी आहत हुई। उसके खुद के पिताजी यह कह रहे हैं। टुन्नी पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा। जैसे-तैसे करके टुन्नी को मामा जी के यहाँ भेजने का प्रबंध किया।

कुंती अब टुन्नी की तरफ से चिंतामुक्त थी। घर में केवल पिता की देखभाल और अपने अध्यापन में ही उसका ध्यान लगा रहता। कुंती अपनी शिष्या सावित्री को पढ़ाने का हर जतन करती। लेकिन उसकी समझ कुछ नहीं आता। कुंती समझ नहीं पा रही थी। सावित्री को कैसे पढ़ाये। सावित्री को पढ़ाने के बाद वह अपना कोई कार्य नहीं कर पा रही थी। सारा समय ट्यूशन पढ़ाने और आने-जाने में ही खर्च हो जाता घर जाकर इतनी थक जाती। कुंती जहाँ ट्यूशन पढ़ाने जाती है, वहाँ बस के रास्ते में इतनी भीड़ होती थी। दोबारा जाने का मन नहीं होता था। एक बार कुंती ने हिम्मत करके सावित्री की माँ से बोल दिया था कि "देखिए, मैंने अपनी ओर से भरसक प्रयत्न किया, पर लगता सावित्री को पढ़ाने मेरे लिए संभव न होगा"।5 सावित्री की माँ घबरा गई। वह कुंती से सावित्री को पढ़ाने के लिए ओर ज़ोर देने लगी, कुंती राजी नहीं हुई। सावित्री की माँ कुंती से कहने लगी कि "यह क्या बहन जी? आपके भरोसे तो हमने नया स्कूल शुरू करवाया। आपके पास पढ़कर इसका मन कुछ-कुछ लगने लगा था....ऐसा तो मत करिए। एक बार किसी तरह दसवीं में पहुँचा दीजिए"।6 कुंती को समझ में नहीं आ रहा था। वह सावित्री की माँ को कैसे समझाये। वैसे ही मानसिक रूप से अपने पिता और घर की समस्याओं में घुली-मिली जा रही है। उसने एकदम सपाट उत्तर देते हुए कहा- "मैं बेहद थक जाती हूँ दूर भी तो बहुत आना पड़ता है। फिर पापा बीमार हैं, उनकी देखभाल, दवा-दारू करने के लिए भी तो मैं ही हूँ।"7 कुंती अपना पक्ष लेकर समझाने का प्रयास करती है। सावित्री की माँ कुंती को भौतिक-सुविधाओं का लालच देती है। कुंती को समझाते हुए बोलती है कि "बात यह है बहनजी, कि सावित्री की बात एक बहुत बड़े घर में चल रही है। उन लोगों की जिद है कि लड़की दसवीं हो जाएगी तो शादी करेंगे। आप किसी न किसी तरह दसवीं पहुँचवा दीजिए, फिर तो सँभाल लेंगे। अब आजकल के लड़कों को भी क्या कहें, और यह सावित्री भी है कि आपके सिवाय किसी से पढ़ने को राजी ही नहीं होती। आप आइए, गाड़ी का प्रबंध में कर दूँगी"।8 सावित्री कुंती बहला-फुसला कर अपने यहाँ काम करने के लिए राजी कर लेती है। कुंती भी सावित्री की माँ का सुझाव अपना लेती है। और काम करने के लिए अपनी सहमति दे देती है।

बुआ कुछ दिन के लिए अपने भाई के यहाँ आती है। कुंती अकेले घर और बाहर का काम कैसे सँभाले। यही सोच के यह भाई की देखभाल के लिए आती है। बुआ कुंती को 24 घण्टे परेशान देख खुद परेशान हो जाती है। वह दिन रात यही सोचती है - "उसके बराबर और लड़कियाँ कितनी मौज करती हैं। घूमना-फिरना, सैर-सपाटे, हँसी-मजाक........उसके जीवन में तो यह सब दूर-दूर तक भी नहीं है। ....... क्या कभी भी नहीं होगा? क्या उसका सारा जीवन यों ही निकल जाएगा? जितना रुपया वह कमाती है, उसमें कितने ठाठ से वह रह सकती है। पर वह तो जानती ही नहीं कि ठाठ क्या होता है, मोज क्या होती है"।9 बुआ कुंती को इस तरह रात-दिन खामोश नहीं देख सकती है। कुंती को सबकी फिक्र है केवल अपनी नहीं। कुंती अब पिता कि बीमारी से तंग आ गई है। वह घर कि समस्याओं में इतनी उलझी है कि अपना मानसिक संतुलन खोकर गुस्से में बोल देती है - "पापा क्या अब कभी अच्छे नहीं होंगे? ....................... कितने दिन तक वे इस तरह पड़े रहेंगे? ..........................."।10 कुंती अपने जीवन को काट रही है। उसका मन किसी भी काम में नहीं लगता। केवल मन यही करता कि यहाँ से कहीं भाग जाए। इस दुनिया से दूर कही दूर। कुंती का शरीर संघर्ष करते-करते थक गया। वह मन ही मन सोचती है कि, "कभी-कभी तो उसका मन करता है कि स्कूल, घर, सब छोड़कर अपना वायलिन लेकर कहीं चली जाए और इतना बजाए, इतना कि उसका अस्तित्व ही मिट जाए। वह कुंती न रहे, बस संगीत की एक स्वर लहरी बन जाए, उसी में मिल जाए।11 कुंती घर-परिवार की ज़िम्मेदारियों से भागना चाहती है। उससे ये अब करते नहीं बनता। पापा की हालत और खराब हो गई। इसी के चलते उसने सावित्री के माँ से पाँच सौ रुपये और उधार माँगे। जल्द ही कार्य पूरा करने का आश्वासन दिया। किसी को भी पापा की इतनी फिक्र नहीं है जितनी मुझे। घर व बाहर के सभी लोग अपने-अपने काम में व्यस्त रहते थे। कोई भी पिता जी की खोज खबर नहीं लेता यहाँ तक कि मामा जी एक बार भी उन्हें देखने नहीं आए। कुंती अपने आपको अकेले असहाय समझने लगी। भीतर ही भीतर वह टूट गई। कुंती ने इन सभी समस्याओं से घिरी होने के कारण सहसा बोले उठी "हे भगवान। अब तो तू पापा को उठा ले। मुझसे बर्दाश्त नहीं होता। मैं टूट चुकी हूँ।"12 लेखिका मन्नु भंडारी ने नायिका कुंती की पीड़ा को चित्रित किया है। वह अपने आपको दिन-रात कोसती और सोचती रहती, लेकिन कोई भी परिणाम नहीं निकलता। कुंती जब मानसिक पीड़ा से बाहर निकलती है तो कहती हाय, ये मैंने यह क्या कह दिया। अपने पिता के बारे में इस तरह नहीं सोचना चाहती थी। गुस्से में यह क्या बक दिया। भगवान मुझे क्षमा करे। मेरे पिताजी को जल्दी ठीक कर दे। लेखिका मन्नु भंडारी ने नायिका कुंती बबस स्थिति को दिखाने का प्रयास किया है। उसने छोटी उम्र में ही जो नहीं देखना था वह भी देख लिया। कुंती अपनी आयु में केवल पीड़ा कुंठा ही सहा है।

कहानी ‘तीसरा आदमी’ में मन्नु भंडारी ने पति की मानसिकता को दृष्टिगत किया है। पति मानसिक व शारीरिक रूप से कमज़ोर है। इस हीनता से ग्रस्त पति-पत्नी के संबंधों में लगातार दूरियाँ आती जा रही हैं। घर में बच्चा न होने के कारण शुकन पति को ही दोषी मानती थी। शुकन अपने आपको स्वस्थ व पति को बीमार मानती है। सतीश-शुकन एक दूसरे के प्रति समर्पित भाव होते हुए भी न के बराबर थे। शुकन सतीश को अपने मित्र के आने की सूचना देती है। शुकन सतीश को आलोक के बारे में ज़्यादा कुछ नहीं बताती है। केवल संक्षिप्त परिचय देते हुए कहती है। वह एक बड़े लेखक हैं। जयुपर से मुझसे मिलने के लिए आ रहे हैं। शकुन अपने पति सतीश से डॉक्टर के पास जाने को कहती है। सतीश उसकी बेकार की बातों व जिद से तंग आकर चिल्ला उठता है। मन ही मन सोचता है। वह बीमार नहीं है। उसे किसी डॉक्टर के पास जाने की आवश्यकता नहीं। सतीश के मन में कहीं न कहीं यह शंका भी है कि क्या वह बिल्कुल स्वस्थ है। सतीश मानता है कि "वह बिल्कुल नॉर्मल आदमी है। ऐसा कुछ भी होता, तो क्या उसे पता नहीं लगता ................... क्या तीन साल तक शुकन को पता नहीं लगता? उसने कभी कुछ महसूस नहीं किया तो फिर शंका उसके मन में आई ही क्यों?"13 सतीश इन सब बातों को सुनकर सोचने के लिए आमदा हो जाता है। सतीश बहुत व्याकुल है। शुकन की बातें कहीं सही तो नहीं यह चिंता भी खाये जा रही है। सतीश अपने ख्यालों में ना जाने क्या से क्या सोच रहा है। मैं तो बिलकुल ठीक हूँ। कहीं शकुन पर शंका कर रहा है। शुकन का संबंध किसी ओर से तो नहीं, कहीं आलोक जी से इसका कोई संबंध तो नहीं है। सतीश ने शकुन से सीधे ही कहा कि "अब भी तुम्हें कभी अपने प्रेमी की याद आती है"।14 शकुन सतीश की तरफ बड़े अनमने भाव से देखती और बोलती है कि "देखों, औरत यदि किसी से प्रेम करती है, तो उसकी बात जबान पर भी आ गई, तो समझ लो प्यार मर गया। वे सब तो निरे बचपन की बातें थीं।"15 सतीश शकुन की बात सुनकर चुपचाप हो गया। शकुन का जवाब उसे रास नहीं आया। लगातार शकुन की बातें उसे कुछ और सोचने, समझने के लिए निकल रही थी। जो कभी शकुन ने ही सतीश को बताई थी। वह अपने आप से ही द्ंवद्व करता दिखाई पड़ रहा है। आलोक जी जब शुकन के यहाँ पहुँचते हैं तो सतीश अजीब-अजीब हरकतें करते हुए दिखाई देता है - "मैं तो इस बात से खुश हूँ कि तुमने किसी को निमंत्रण दिया तो आलोक जी, आपको शायद विश्वास नहीं होगा; आप पहले आदमी है जिसके आने पर शकुन यों खुश हो रही है, वरना शकुन को इस घर में तीसरे आदमी की उपस्थिति तक बर्दाश्त नहीं होती।"16 सतीश की इन बातों को सुन शकुन हैरान है। शकुन पति के इस तीखे प्रश्न को सुन झपाक से उत्तर देते हुए बोलती है कि "देखिए, आलोक जी, घर के नाम पर कुल यह एक कमरा है हम लोगों के पास। यह पार्टीशन भी डेढ़ साल से लगा है, पहले तो यह भी नहीं था। कोई भी आ जाता तो समझ में नहीं आता कि कहाँ हम सोएँ, बैठें, कहाँ उसे सुलाए-बिठाएँ। फिर मुझे एकांत और प्राइवेसी पसंद है, अब चाहे कोई कुछ भी कह ले"17 शकुन ने भी अपनी बात ऐसे रखी कि आलोक आग बबुला हो गया और आलोक पर अधिक ध्यान देने लगी। सतीश का शक और पुख्ता हो गया। दोनों के बीच कुछ न कुछ ज़रूर चल रहा है। शकुन बताना नहीं चाहती। शकुन सतीश को और जलाना चाहती है। इसलिए वह बार-बार दिखाती है। सतीश का द्वंद्व उसे परेशान कर रहा है। वह मन ही मन सोचता है और कहता है कि शकुन के अपनत्व पर भी शंका- "वह अपनत्व-भरा अधिकार कहाँ से आ गया? ओर फिर उसे लगने लगा, कहीं कुछ है जो उसे मालूम नहीं है। जो कुछ जिस रूप में सामने है, मात्र वही नहीं है, इसके परे वहीं कुछ और भी है..........है।"18 शकुन को आलोक का इस कदर ध्यान रखते देख सतीश पूरी तरह जल भुन जाता है। सतीश की मानसिकता और प्रगाढ़ हो जाती है। सतीश का मन पूरी तरह से मान चुका है कि ज़रूर इन दोनों के बीच कुछ ऐसा संबंध है। जो ये बताना नहीं चाहते। यही सोच-सोचकर सतीश परेशान हो रहा है। अपने मन की पीड़ा किसे कहे। सतीश कहता है कि "सचमुच यह उसका अपना कॉम्पप्लेक्स ही है, जिसे उसने शंकालु, ओछा, और कुछ हद तक कमीना भी बना दिया। अपनी ऐसी हरकतों से तो कभी-कभी उसे स्वयं भी विश्वास होने लगता है कि उसका भय कहीं सच ही है; वरना यह सब क्यों हो?"19 सतीश धीरे-धीरे अपनी मानसिकता में और ज़्यादा घिरता जा रहा है। उसे अपनी पत्नी के पत्नीत्व पर भरोसा नहीं रहा है। पत्नी शकुन के बारे में सोचता है - "दबे-पाँव वह सीढ़ियाँ चढ़ा। उसका दिल घबराने लगा था, मानो वह किसी दूसरे के घर में चोरी से घुस रहा हो। कुछ क्षण बरामदे में वह खड़े रहकर वह आहट लेता रहा - शायद कुछ बातचीत की आवाज आ रही हो। पर कुछ नहीं था। दरवाजा बंद था, फिर भी उसने हल्के से धक्का दिया, शायद खुल ही जाए। नहीं, दरवाजा भीतर से बंद था। अब? फिर उसने दरवाजे से कान लगाया। बाहर के कमरे में बैठकर बात कर रहे होते, तब तो बाहर साफ-साफ आवाज आती। इसका मतलब है, सोने वाले हिस्से में बैठे हैं। पर इधर तो शकुन किसी को आने नहीं देती।"20 सतीश का संदेह अब ज़ोर पकड़ रहा है। सतीश के मन में शंका की झड़ी लगी हुई है - "एकाएक मन हुआ कि लात मारकर वह दरवाजा तोड़ दे और भीतर दोनों को रंगे हाथों पकड़ ले। शकुन को बातें करनी थीं, इसीलिए तो छुट्टी ली थी। पर बातों का तो कोई सिलसिला ही नज़र नहीं आता, भीतर क्या हो रहा है आखिर? कैसे जाने, कहाँ से जाने?"21 सतीश के मन में सवालों के प्रश्न व जवाब दोनों ही उमड़ रहे थे। सही क्या है। बस इतना ही नहीं पता था। सतीश के मन यह मानने को तैयार ही नहीं था कि - "उसे इस तरह अधीर नहीं होना चाहिए। मान लो, कुछ नहीं हुआ तो वह उनकी नज़रों से तो गिरेगा-सो गिरेगा अपनी नज़रों में कितना गिर जायेगा।"22 ये सोचकर सतीश अपने आपको हीन दृष्टि से देखने लगा। जैसे सारी समस्याओं का ज़िम्मेवार वही है। सतीश का मन अपने को दोषी नहीं मानते हुए कहता है- "पर वह क्यों इस तरह अपराधी महसूस कर रहा है? यह उसका अपना घर है। इसमें वह जब भी चाहे, आ-जा सकता है। आखिर वह अपने घर में ही तो आया है। अपने घर में आना न चोरी है, न गुनाह। उसे क्या होता जा रहा है कि वह अकारण ही डरने लगता है? जैसे ही शकुन दरवाजा खोलगी, कह देगा कि वह आधे दिन कि छुट्टी लेकर आया है।"23 सतीश के दिलों दिमाग इस वातावरण से निकल नहीं पा रहा है। उसे आलोक से डर लगा रहा है कहीं वह शकुन को उससे दूर तो नहीं लेकर जा रहा है। सतीश अपने आपको सुरक्षित महसूस नहीं कर पा रहा है- "कोई मर्द-बच्चा होता, तो दो लात मारता दरवाजे के और झट पकड़कर बाहर कर देता शकुन को और दो झापड़ मारता उसे लफंगे के। उसके सारे अस्तित्व को बुरी तरह मथता हुआ आज यह विश्वास पूरी तरह उसके मन में जम गया कि वह पुरुष नहीं है.................और उसे लगा, यह बात तो वह बहुत पहले से ही जान गया था, तभी तो कभी उसकी हिम्मत नहीं हुई कि जाकर डॉक्टर को दिखा आए। आज के व्यवहार ने तो पूरी तरह सिद्ध कर दिया। लानत है उस पर। थूः ! उसे सामने पानी में थूक दिया। कोई असली मर्द बच्चा होता तो ....... उसे अपने आपसे नफरत होने लगी। ठीक ही तो किया शकुन ने। कौन औरत ऐसे नामर्द की पत्नी होकर रहना पसंद करेगी।"24 सतीश की मनोदशा काफी बिगड़ती जा रही है। वह अपनी इन शंकाओं को किसी के आगे भी व्यक्त नहीं कर पा रहा है। उसे सोच के डर लग रहा है। किसी को बताऊँगा कोई क्या सोचेगा मेरे बारे में। मुझे हीन दृष्टि से देखेगा। शकुन आलोक को इतना महत्त्व क्यों दे रही है। समझ नहीं पा रहा हूँ। शकुन को अहसास भी है मुझे कितना बुरा लग रहा है। शकुन आलोक के सामने सतीश के बारे में कुछ कह रही थी - "बहुत थक जाते हैं ऑफिस के नाम से"।25 शकुन की बातें सुनकर सतीश को मन-ही मन बहुत गुस्सा आ रहा था। उसे शायद मेरे बारे में आलोक से सब कुछ नहीं कहना चाहिए था। सतीश - "हाँ, वह थक जाता है। वह बहुत कमज़ोर है, दुर्बल, बिल्कुल दुर्बल, नामर्द। कह दे, सारी दुनिया में ढिंढोरा पीट दे।"26 सतीश शकुन की सारी बातों को गलत अर्थ में ले जाने लगा है। शकुन सही रूप में आलोक से कह रही थी। सतीश मेहनत बहुत करते हैं। जिसके कारण उनको इतनी थकान हो जाती है। सतीश समझना ही नहीं चाहता। वह फिर उसी सोच में जा पड़ा। सतीश शकुन और आलोक दोनों से यह कहने जा रहा हो। केवल सोच में - देखिए, मुझे सब-कुछ मालूम है। बंद दरवाजे ऐसी बातों को छिपाकर नहीं रख सकते। आप लोग एक्टिंग करने में बहुत माहिर होंगे; पर मेरी आँखें भी कम तेज नहीं। शकुन चाहे तो आपके साथ जा सकती है। मुझमें इतनी उदारता है कि मैं अपनी पत्नी की राह में बाधा बनकर खड़ा न होऊँ, उसकी इच्छा पूरी करने में सहायक बनूँ"।27 सतीश ने पूरी तरह मान लिया था। आलोक और शकुन ने बीच में ज़रूर कोई न कोई संबंध है। जो वह मुझसे छिपा रहे है। लेखिका मन्नु भंडारी ने सतीश की मानसिक व शारीरिक पीड़ा को दिखाया है। जब उसके मन में भ्रम बना हो तब केवल वह अपनी सोच के अनुकूल ही सारी बातों को समझता, बोलता है।

‘नशा’ कहानी में मन्नु भंडारी ने नारी-पुरुष के संबंधों की मानसिकता को बताया है। भारतीय संस्कृति में संबंधों में जितनी भी दरार आ जाए। पर वह अपने संबंधों में जुड़े ही रहना चाहते हैं। अलग होना नहीं चाहते। ‘नशा’ कहानी में नायिका आंनदी भी अपने पति शंकर से जुड़ी रहना चाहती है। शंकर उसे बहुत कष्ट देता था, फिर भी उसे उसके साथ रहना मजबूरी और लाचारी दोनों थी। आंनदी अपने पति के मार-पीट के सितमों से बेहद परेशान थी। वह उसका विरोध करना चाहती पर अपने हालातों के आगे विवश थी। पहले तो सासु माँ ने शुरू के पहले दिन से ही उसकी नाक में नेकल डाल रखी थी। सासु माँ से बचती तो पति भी कोई कसर नहीं छोड़ता था। आनंदी का पति शंकर रोज़ शराब पीकर आता। आनंदी को पशुओं की तरह पीटता था। आनंदी अपने बेटे का इंतज़ार कर रही थी और मन ही मन सोच भी रही थी कि "हे भगवान मुझे मौत आ जाए! .....कोई मुझे यहाँ से ले जाए।"29 आनंदी अपने जीवन से दुःखी थी। शंकर रोज़ उसे पैसों से लिए पीटता था। वह पैसा दे देती तो ठीक था। वरना उसकी खैर नहीं। एक दिन शंकर आनंदी के पास उसके बेटे किशन की चिट्ठी लेकर आया। ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगा। आनंदी को जैसे यकीन ही नहीं हो पा रहा था। 12 वर्ष की उम्र में वह अपना गाँव और अपनी माँ को छोड़कर चला गया था। तब के बाद उसकी कोई खोज-खबर नहीं। अचानक शंकर ही उसकी पत्री लेकर आया ओर बोला कि "सुनती है, आनंदी, तेरे बेटे की चिट्ठी आई है। अरे, वह जीता-जागता है, बड़ा आदमी हो गया है"30 आनंदी को विश्वास नहीं हो पा रहा था कि उसका बेटा जीवित है। बड़ा आदमी हो गया है। शंकर ने कहा - "देख-देख, किशनू की चिट्ठी आई है। उसने कपड़े की दूकान कर ली है। .......ले, देख, देख।"31 आनंदी शंकर की तरफ एक-टक देखने लगी। यह शंकर की कोई नयी चाल तो नहीं पैसे की। उसने शंकर आनंदी को पत्र हाथ में देते हुए बोला - "बुद्धू-ऐसे क्या देख रही है? देख, अपने बेटे की लिखाई पहचानती है या नहीं?"32 आनंदी पत्र हाथ में देख थोड़ा-2 पहचाने लगी। यह तो उसके बेटे किशनू की ही लिखाई है। आनंदी पत्र को लेकर अब पढ़ रही थी। पत्र में यह भी लिखा था कि "कपड़े की दूकान जम गई तो शादी भी कर ली। .....एक छोटा-सा मकान भी बना लिया। ....... अब तुझे मैं अपने ही साथ रखूँगा। यह सब मैंने तेरे ही लिए किया है, माँ ! ......... मैं तुझे लेने आ रहा हूँ ................ ।"33 आनंदी ने पत्र को पढ़कर चैन की साँस ली। रोज़-रोज़ के ताने व पिटाई से तो बचूँगी। आनंदी का चित अब प्रसन्न था। शंकर आनंदी पर व्यंग्य कसते हुए कहता है कि "अरे कल तेरा बेटा आ रहा है - बारह साल बाद। राम चौदह साल बाद आए थे। तू भी दिवाली मना, तेरा राम आ रहा है न! ............ आज तो दो रुपये माँगूँ तो भी कम है। सच कहता हूँ जो परसों से एक बूँद भी गले के नीचे गई हो तो और अब क्या बात है। तेरे बेटे के मकान है, कपड़े की दूकान है।"34 शंकर खुश होकर भी खुश नहीं था। किशन ने केवल माँ के बारे में ही लिखा है। जिसके कारण उसे अधिक क्रोध आ रहा है। शंकर आनंदी को कहता - "तू अब उपले नहीं थापेगी समझी? कुछ नहीं करेगी। चल, दो रुपये दे, निकाल।"35 शंकर ज़ोर ज़बरदस्ती से आनंदी से पैसे निकलवा कर ले गया। आनंदी पैसे नहीं देती तो मार खाती। इसीलिए उसने दो रुपये देने में ज़रा सी भी देर न लगाई। आनंदी में आत्मविश्वास आ गया। बेटा क्या आ रहा है। उसमें भी नवीन चेतना जाग रही है। आनंदी ने अपने मन में यह धारणा धर ली कि वह अब शंकर के पास नहीं रहेगी। आनंदी भीतर की भीतर सोचते-सोचते कह रही है- "थककर बड़ी रात गए वह सोने जाती तो उसकी सास उसे ताना सुनाया करती थी। आज सचमुच ही वह दीया जलते ही खाट पर आ लेटी थी। आज वह रोटी नहीं बनाएगी। सवेरे उसने रोटी नहीं खाई थी, उससे खाई ही नहीं गई। शंकर आकर वही रोटी खा लेगा। पीकर आता है तो उसे गर्म रोटी चाहिए। न मिलने पर वह गुस्से में मार भी बैठता है। फिर भी आनंदी नहीं उठी। आज मार ले, कल तो फिर उसका बेटा आ जाएगा। फिर देखें, कोई तो उसके हाथ लगा के।"36 आनंदी में यह आत्मविश्वास अब तक देखने को नहीं मिला। अचानक बेटे के आने पर उसे एक रोशनी मिली। आनंदी अपने पुराने दिनों को स्मृतियों में खोये हुई थी। शंकर की पीने की लत ने सब कुछ तबाह कर दिया। उससे उसके होने का भी अस्तित्व छीन लिया। आनंदी कहती है- "उसे पीने की जो लत पड़ी तो घर का धन ही नहीं गया, आनंदी की किस्मत और बच्चों का भविष्य भी चला गया। माँ के मरने के बाद शंकर बिल्ला ही हो गया। दो बच्चे बीमारी में तड़पकर मर गए। बच्चे चले गए, खेत-खलिहान चले गए, गाय-भैंसे चली गई। रह गए शंकर ओर किशनू। किशनू को छाती पर लगाए काम करती। न हाथ रुकते, न आँसू। शंकर या तो सोता या नशे में उत्पात मचाता। वह मार खाती, किशनू मार खाता।"37 आनंदी मानसिक रूप से शारीरिक रूप से पीड़ित है। अपने पुत्र के मोह में वह सब कुछ छोड़ कर जाना चाहती है। किशनू भी माँ के प्रति संवेदना का भाव रखता है। जब किशनू ने घर छोड़ा था तब वह 14 वर्ष का था। माता-पिता की लड़ाई को देख, उन्हें एक-दूसरे से छोड़ने के चक्कर में किशनू ने पिता पर ही हावी हो गया। तब किशनू ने अपने पिता को कहा "कक्का। तुमने माँ के हाथ लगाया तो मैं तुम्हारा खून पी जाऊँगा! ........मैं सच कहता हूँ, तुम्हारा खून पी जाऊँगा।"38 किशनू अपनी माँ आनंदी को इस तरह पीटता नहीं देख सकता था। माँ ने उसके लिए कितना किया था। बाप की मार से बचाया। लेकिन अब वह माँ को पीटता नहीं देख पाएगा। आनंदी किशनू को समझाते हुए बोलती है- "मैं तेरे हाथ जोड़ती हूँ, किशनू, तू हट जा। तुझे मेरे सिर की सौगन्ध है जो तू कक्का पर हाथ उठाए। तू हट जा, किशनू, हट जा।"39 किशनू माँ पर होते हुए अत्याचारों को नहीं देख सकता था। लेखिका मन्नु भण्डारी के बच्चे पर हुए मानसिक आघातों को दिखाता है। किशनू अपने व अपनी माँ पर हुए मानसिक उत्पीड़न को अब सहन नहीं कर सकता। एकाएक वह 14 वर्ष की आयु में घर छोड़कर चला जाता है। माँ बहुत परेशान है। किशनू कहाँ चला गया। बच्चा न जाने कैसे रहेगा, क्या खायेगा, कहाँ सोएगा। यही सोच वह चिंतित है। शंकर को कोई फर्क नहीं पड़ रहा है। वह रहे या जाए। आनंदी दर-दर भटक और कह रही है- "मेरे बेटे को ढुँढवा दो। मैं उसे लेकर कहीं चली जाऊँगी। उसके बिना मुझसे जिन्दा नहीं रहा जाएगा। मैं तुम्हें जिन्दगी भर पीने को दूँगी, अपना हाड़ गला-गलाकर पीने को दूँगी। तुम मेरे किशनू को ढूँढ़ दो।"40 आनंदी को बीते दिनों की याद अब भी रह-रहकर आ रही है। अब तो उसके दुःख के दिन गए। सुख के दिन आए। बेटा जो आ गया है, उसे लिवाने के लिए शंकर का वही रवैया दिन-रात नशे में धुत्त रहना। आनंदी किशनू को बड़े प्रेम से एक-दूसरे से बात कर रहे हैं। शंकर यह सब देखते हुए कहता है "क्या-क्या लाड़ लड़ रहा है माँ से? ............. अरे, अपने बाप को भी तो कुछ दे! ............ जो कुछ देना है इधर दे, इधर। मैं तेरा बाप हूँ, साले"41 किशनू यह सब देखकर और दुःखी हो जाता है। वह अपनी माँ से पूछता है। अब तक नहीं बदली इनकी शराब पीने की आदत। माँ से कहता है कि पैसा कहाँ से आता है। माँ से पूछता है - "तू देती है? तू पीने को देती है? क्यों? क्यों देती है तू उसे पैसा? क्यों तू अपने पैरों में कुल्हाड़ी मार रही है, माँ?"42 आनंदी किशनू को कोई जवाब नहीं दे पाई। चुप रही। किशनू माँ की चुपी को समझ गया। आनंदी किशनू को बोलती है- "मुझे यहाँ से ले चल, किशनू...........यहाँ से ले चल। मैं अब
एक दिन भी इस घर में रहना नहीं चाहती। मैंने बहुत सहा है, अब और नहीं सहा जाता, मुझे यहाँ से ले चल आज ही।"43 किशनू के आगे आनंदी के सब्र का बाँध टूट गया। अब और सहा नहीं जाता ये मार-पिटाई। बेटा बहुत दुःख देख लिए। किशनू माँ को दिलासा देते हुए कहता है कि "आज ही तुझे ले चलूँगा, माँ, आज ही। सोचा तो था कि कक्का को भी ले चलूँगा, पर अब नहीं। यह ले जाने लायक ही नहीं है।"44 किशनू की ये सब बातें शंकर अंदर से सुन रहा है। वह क्रोध में आकर बोलता है- "कौन साला जाता है तेरे साथ? निकल जा तू मेरे घर से। दोनों निकल जाओ। कोई बेटा-बेटी नहीं है मेरा। कोई औरत-वौरत नहीं है मेरी। जाओ, सब जाओ।"45 शंकर नशे में धुत्त न जाने क्या-से क्या बक गया। शंकर मन ही बैचेन हो गया। आनंदी भी अब चली जाएगी। शंकर मन ही मन डर गया। आनंदी की सामान की बंधी पोटली को देख उसे लगा। वह भी अब चली जाएगी। शंकर ने गुस्से में आकर बोला- "मैं एक-एक का खून पी जाऊँगा। ........... देखूँ कौन माई का लाल ले जाता है मेरी जोरू को।"46 शंकर को कतई ये मंजूर नहीं था कि आनंदी किशनू के साथ जाए। अगर वह चली जाएगी तो कौन उसके दारू का इंतज़ाम करेगा, रोटी-सब्जी को देगा उसे। यही सोच वह चिंता में घुला जा रहा था। शंकर ने आनंदी के प्रति अपनी कोठरता दिखाते हुए- "आनन्दी को बड़ी बेरहमी से पीटना शुरू कर दिया। एक भरपूर लात पेट में पड़ी तो आनन्दी को गश-सा आ गया।"47 आनंदी इस बीच ज़ोर से चिल्लाई और किशनू से कहा- "बचा, बेटे, किशनू, बचा।"48 आनंदी की यह हालत देख आस-पास भीड़ इकट्ठी हो गई। आस-पड़ोस के लोग बोल उठे- "अरे किशनू, इस गाय को ले जा शंकर कसाई के घर से। कसाई भी अच्छा जो एक दिन ही मारकर छुट्टी कर देता है। इससे तो......."49 यह सब देख किशनू अपने पिता को धकेलते हुए माँ को उठा अपने साथ शहर लिवा लाया। लेखिका मन्नु भंडारी ने कहानी ‘नशा’ में स्त्री को मानसिक पीड़ा से ग्रस्त दिखाया है। स्त्री का जीवन पशु से भी बदतर दिखाया है। वह रात-दिन पीटती है, पर अपने पति को परमेश्वर भी मानती है। पति को छोड़ना भी नहीं चाहती। लेखिका मन्नु भंडारी ने अपनी कहानियों में पात्रों को मानसिक रूप से पीड़ित दिखाया है। दांपत्य जीवन से बाहर निकलना ही नहीं चाहते। उसी में सुख की अनुभूति को तलाशते हुए दिखाई पड़ते हैं।

निष्कर्ष

लेखिका मन्नु भंडारी ने अपनी कहानियों के माध्यम से स्त्री की मानसिक और शारीरिक पीड़ाओं से अवगत करवाया है। कहानी ‘क्षय’ में नायिका ने घर की ज़िम्मेदारियों में अपने आपको पूरी तरह झोंक दिया है। अपना अस्तित्व ही खो दिया है। वही दूसरी तरफ स्त्री-पुरुष के दांपत्य संबंधों को चित्रित किया है। पति-पत्नी दोनों में विश्वास की कमी को दिखाया गया है। पति-पत्नी एक-दूसरे से खुश नहीं है। बच्चा ना होने की स्थिति में एक-दूसरे पर घात-प्रतिघात लगाते हुए दिखाई पड़ते हैं।

संदर्भ

1. क्षय-मन्नु-भंडारी, पृ. 10
2. वही, पृ. 11
3. क्षय-मन्नु भंडारी पृ. 13
4. वही, पृ. 13
5. क्षय-मन्नु भंडारी, पृ. 17.
6. वही, पृ. 17
7. वही, पृ. 17.
8. वही, पृ. 17
9. क्षय-मन्नु भंडारी, पृ. 20
10. वही, पृ. 20
11. वही, पृ. 20
12. क्षय-मन्नु भंडारी, पृ. 25
13. तीसरा आदमी-मन्नु भंडारी, पृ. 36
14. वही, पृ. 37
15. वही, पृ. 37
16. तीसरा आदमी-मन्नु भंडारी, पृ. 43
17. वही, पृ. 43
18. वही, पृ. 47
19. तीसरा आदमी-मन्नु भंडारी, पृ. 49
20. वही, पृ. 50
21. वही, पृ. 50
22. वही, पृ. 50
23. तीसरा आदमी-मन्नु भंडारी, पृ. 51
24. वही, पृ. 52
25. वही, पृ. 54
26. वही, पृ. 55
27. वही, पृ. 55
28. तीसरा आदमी - मन्नु भंडारी, पृ. 55
29. नया - मन्नु भंडारी, पृ. 98
30. वही, पृ. 99
31. वही, पृ. 99
32. नशा - मन्नु भंडारी, पृ. 99
33. वही, पृ. 99
34. नशा - मन्नु भंडारी, पृ. 99
35. वही, पृ. 100
36. नशा - मन्नु भंडारी, पृ. 101
37. वही, पृ. 103
38. नशा - मन्नु भंडारी, पृ. 103
39. वही, पृ. 103
40. नशा - मन्नु भण्डारी, पृ. 103
41. वही, पृ. 105
42. नशा - मन्नु भण्डारी, पृ. 105
43. वही, पृ. 105
44. वही, पृ. 105
45. नशा - मन्नु भंडारी, पृ. 105
46. वही, पृ 106
47. वही, पृ. 106
48. वही, पृ. 106
49. नशा - मन्नु भंडारी, पृ. 107

डॉ. राजकुमारी शर्मा
पता: आर.जैड 505 ए/92
राजनगर पालम कॉलोनी,
नई दिल्ली - 110045
ई-मेल: sharmanitu465@gmail.com

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