कौन सही है कौन ग़लत
ये मैं नहीं जानता
बस इतना है कि मझधार मे फँसा हूँ
सब लोग सही है अपनी जगह
बस मैं ही ग़लत हूँ
बेकार की जद्दोजहद
उस नाव को खेने का प्रयास है
जिसमें छेद ही छेद हैं
सब की समस्या है
एक दूसरे से गृह युद्ध है
बस सिर्फ़ मैं हूँ
जो उनकी नज़र में नकारा हूँ
सब अपना कर्तव्य निभा रहे
सिर्फ़ मैं आवरण ओढ़े आवारा हूँ
उसकी भी मैंने सुनी, उनकी भी
बस चिंघाड़ती आवाज़ें गूँजती हैं कानों में
क्या नदी और समुन्द्र नहीं मिलते
ये टूटी फूटी नाव कब तक चलेगी
कब तक मैं खेता रहूँगा,
आशा की किरणों की तलाश में।
लोग तुलनात्मक हो जाते हैं,
अपने ही अस्तित्व से खिलवाड़ करते हैं
इस परिपाटी को मैं भेद तो नहीं सकता
बस यही आशा है, समय सब ठीक करे
लोग मुझे और नीयत को समझें
और मेरी टूटी फूटी नाव के छेद भर जायें

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