मानवता है बिखर गई
अविनाश ब्यौहारदोहा ग़ज़ल
मानवता है बिखर गई, संबल बनें ज़रूर।
तब पथरीली राह के, कंटक होंगे दूर॥
दीपक तो जलता रहा, घुप्प अंधेरी रात,
तम से लड़ते थक गया, है बाती का नूर।
मैंने देखा आजकल, फूहड़ता का दौर,
लोगों में दिखता नहीं, थोड़ा-बहुत शऊर।
शोषण करना हो गया, बड़ों-बड़ों का शौक़,
दिखते ख़ाली हाथ हैं, दौलत है भरपूर।
सुघड़-सलोनी औरतें, घर को रखें सँभाल,
जिस्म नुमाइश ही दिखी, यद्यपि थी वह हूर।
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