मानव सभ्यताएँ 

01-06-2021

मानव सभ्यताएँ 

मंजुल सिंह (अंक: 182, जून प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

उसकी आँखें खुली थीं या बंद
ये कह पाना मुश्किल सा ही था
क्योंकि उसकी आँखों के बाहर
बड़ी बड़ी तख्तियाँ लटक रहीं थीं
जिस पर लिखा था मानव सभ्यताएँ
उसकी नाक के नथुने इतने बड़े थे
की पूरी पृथ्वी समा जाये
उसका मुँह ऐसा था
जैसे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की सभ्यताओं
को यही से निगला गया हो
आप उसकी गर्दन को लम्बा कहेंगे
तो आपको नर्क भेजा जायेगा
और छोटा कहेंगे तो भी
आप उसके कंधे देख चढ़
कर कुलाँचे भरना चाहेंगे
पर वो जगह
मानव सभ्यता के अनुकूल नहीं
आप उसकी छाती देखकर
खेत बनाना चाहेंगे
पर वहाँ पर्वतों के अलावा कुछ नहीं,
 
आप उसके पेट पर बनी
नाभि को देखकर नाभि को
ब्रह्माण्ड का केंद्र मान लेंगे
आप उसकी कमर देखकर
उसके चारों ओर
पक्की सड़क बनाना चाहेंगे
उसकी जाँघें आपको
सभी नदियों का
उद्गम स्थल लगेंगी
उसकी पिंडलियाँ आपको
हवा से बातें करती झरनों सी लगेंगी
उसके पैर आपको गाँधी की
अहिंसा से भी ज़्यादा
मुलायम महसूस होंगे
जिसके नीचे दफ़न है
न जाने कितनी सारी
मरी और सड़ी मानव सभ्यताएँ!

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