"बाबा मन की आँखें खोल। मन की आँखें खोल बाबा मन की आँखें खोल।" ये भजन मैंने बचपन में अनेक बार सुना था। लेकिन तब इसका अर्थ नहीं समझती थी। मन क्या है? "मन" की आँखें कैसी होती हैं, जिन्हें खोलने को कहा जा रहा है। यह एक विचित्र सा प्रश्न मेरे सामने था। गत वर्षों में "मन तड़पत हरिदर्शन को आज!" भजन भी अत्यधिक लोकप्रिय हुआ तब मुझे ज्ञात हुआ कि मन तड़पता है, कभी प्रसन्न होता, तो झूमने लगता है। कभी उदास होता है, तो हम भी विक्षुब्ध हो जाते हैं। कभी हम कहते हैं कि "मन बड़ा सुखी हुआ!" तो कभी मन दुःखी हो जाता है। कभी निराश होता है कभी उत्साहित। कभी व्याकुल होता है तो कभी उतावला हो जाता है।

बच्चों से मन लगाकर पढ़ने को कहा जाता है। कोई भी काम करो- पूरे मन से, मनोयोग से करो- यही बड़े कहते हैं। बहुधा बच्चे कहते हैं- "अभी पढ़ने का मन है या खाने का मन नहीं है।" कभी ये भी कहते सुनाई देते हैं कि "मेरा तो मन खेलने या कोई मनोरंजक कार्यक्रम देखने का है।" इससे आभास होता है कि इच्छा अनिच्छा का जन्म मन में ही होता है। कृष्ण के मथुरा चले जाने पर गोपिकाएँ उनके वियोग में अत्यन्त दुखी थीं। कृष्ण के दूत उद्धव जब वृन्दावन आकर गोपियों को निराकार ब्रह्म का ध्यान करने को कहते हैं तो गोपियाँ कहती हैं-

"ऊधो मन नाहीं दस बीस।
एक हुतो सो गयो स्याम संग, को आरधै ईस॥"

सचमुच हर व्यक्ति के पास एक ही मन होता है। इसीलिए एक ही समय में किसी के भी मन में एक साथ दो विरोधी भाव उत्पन्न नहीं हो सकते। कृष्ण मन को मोहित करने वाले हैं- इसी से उन्हें मनमोहन कहते हैं। कभी मौसम सुहावना हो तो लोग कहते हैं – बड़ा मनभावन मौसम है! किसी के "मन की वीणा" प्रसन्नता के क्षणों में संगीत सुनाती है, मधुर-झंकार करती है। तो कोई एकाकिनी गुनगुनाने लगती है-

"अब तुम्हारे बिन नहीं लगता कहीं भी मन
बताओ क्या करें?"

ज्ञानी कहते हैं कि "हमारे मन मंदिर में प्रभु का निवास है।"

एक भजन हमने याद किया था –

"बैठ अकेला दो घड़ी कभी तो ईश्वर ध्याया कर।
"मन मंदिर" में ऐ ग़ाफ़िल झाड़ू रोज़ लगाया कर॥"

झाड़ू लगाने की बात तब समझ नहीं आती थी, लेकिन अब लगता है कि इसका तात्पर्य सफ़ाई करने से है। बुरे विचारों को मन से निकल कर स्वच्छ रखना चाहिए क्योंकि स्वच्छ मन में ही प्रभु बसते हैं। शबरी के मन में निश्छल प्रेम था तो श्रीराम ने उसके जूठे बेर भी सहर्ष ग्रहण किये थे। दुर्योधन के मन में कलुषता के कारण ही कृष्ण ने उसके मेवे त्याग दिए थे और विदुर के मन का पवित्र भाव देखकर उनके घर "साग" खाना स्वीकार किया था। कृष्ण की भक्ति में "मगन मन" मीरा ने राजकुल के वैभव का भी त्याग किया था।

"मन" के विषय में इतना सब सुनने पर भी ये नहीं जान पाई कि मन क्या है? उसका स्वरूप आकार-प्रकार कैसा है? मन कहाँ स्थित है? साकार है या निराकार? यह तो निश्चित है कि मन न तो मस्तिष्क है, न हृदय है और न ही इन्द्रियों या शरीर के किसी अवयव के रूप में है। किन्तु जब तक प्राण भी शरीर में हैं- हमारी साँस चल रही है- तब तक मन भी शरीर में ही विद्यमान रहता है और हमारे सभी कार्यों के होने या न होने में मन सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। कार्यों का परिणाम भी मन की अनुभूति, सुख-दुःख या संतोष रूप में होता है। मन में यदि संतोष हो तो संसार का सारा वैभव धूल के समान है। इसीलिए असन्तुष्ट मन वाला राजा भी भिखारी के समान होता है – सब कुछ होते हुए भी उसका मन कुछ न कुछ पाने के लिए सदा लालायित रहता है किन्तु सन्तुष्ट मनवाला धनहीन भी स्वयं को राजा समझता है। तभी तो कबीर ने कहा था –

"गोधन गजधन वाजिधन और रत्नधन खान।
जब आवे सन्तोष धन, सब धन धूरि समान॥"

मन को नियन्त्रित करके ही आजीवन ब्रह्मचारी रहने की भीष्म-प्रतिज्ञा ने देवव्रत को भीष्म पितामह बनाया। इसी प्रकार भगीरथ गंगा को पृथ्वी पर ला सके- उनका मन चंचल होता तो वे कभी भी अपनी तपस्या में सफल नहीं होते और गंगा "भागीरथी" न बनती। मन के दृढ़ संकल्प ने ही सिद्धार्थ को "बुद्ध" बनाया। गाँधी जी को "महामानव" और महात्मा बनाया। आज तक जितने भी महापुरुष हुए हैं- जितने भी बड़े-बड़े आविष्कार हुए हैं, उनके पीछे उनके मन की एकाग्रता, लगन और सुदृढ़ संकल्प ही तो रहा है।

एक मौलवी ने पंडित जी से कहा कि "आप लोग गंगा स्नान करने क्यों जाते हैं? मन चंगा तो कठौती में गंगा।" इस पर पंडित ने कहा, "मौलवी साहब आप लोग मक्का क्यों जाते हैं? मन पक्का तो हर जगह मक्का।" इस पर मौलवी बिगड़ गये। पंडित बोले कि "हमारी इतनी विशाल, पवित्र, स्वर्ग से आई गंगा को तो आपने छोटी सी कठौती में कर दिया और मक्का की बात से आप बिगड़ गये।" सच तो ये है कि सारी बात मन की है। "मानिए तो शंकर हैं कंकर हैं अन्यथा।" तभी तुलसी ने कहा है- "जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत तिन देखी तैसी" मन की भावना ही सब कुछ है।

मन, बुद्धि और संस्कार तो आत्मा में संनिहित होते हैं। आत्मा के समान ही मन भी निराकार है- जिसका साक्षात्कार नहीं होता किन्तु अत्यन्त शक्तिशाली होता है।

महाभारत में यक्ष के प्रश्न के उत्तर में युधिष्ठर ने कहा था कि "संसार में सबसे तीव्रगामी मन है।" सच भी है मन कभी भारत में, दूसरे ही क्षण अमेरिका या यूरोप में पहुँच जाता है। वर्तमान में होते हुए भी कभी भूत और कभी भविष्य में तेज़ दौड़ लगाता है। मन का वेग अर्थात् मनोवेग तीव्र गति वाला है। वायुपुत्र हनुमान की स्तुति में "मनोजवं मारुततुल्यवेगं" कहा गया है। अर्थात् जिसकी गति मन के समान है। और जो वायु के समान वेग वाले हैं। दोनों ही विशेषण हनुमान जी की तीव्रगति की अतिशयता के द्योतक हैं। मन की तीव्र गति उपमान रूप है।

सज्जन और असज्जन के लक्षण अथवा स्वभाव का उल्लेख करते हुए कहा गया है-

"मनसि एकं, वचसि एकं, कर्मणि एकं महातमनाम्।
मनसि अन्यत् वचसि अन्यत् कर्मणि अन्यत् दुरात्मनाम्॥"

अर्थात मन, वचन और कर्म में जिनके एकात्मता है – वे महात्मा मन में जो (सद्विचार) रखते हैं- वही वाणी में कहते और उसे ही अपने कर्मों अर्थात् आचरण में करते हैं। इसके विपरीत दुष्ट जन मन में सोचते कुछ हैं- कहते कुछ अन्य हैं… करते उससे भी भिन्न हैं, जिसे कहते हैं, "मुख में राम बगल में छुरी।" सद्कर्मों का आधार मन की सद्भावना है। जिनके मन में दुष्टता है किन्तु वाणी में मिथ्या मधुरता का प्रयोग कर जो सज्जनता का मुखौटा पहिनने का प्रयास करते हैं- वे मनुष्य वस्तुतः "विषकुम्भं पयोमुखं" की भाँति हैं। अर्थात् वे विष से भरे उस घड़े के समान हैं जिसके मुख पर दूध दिखाई देता है।

राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरण गुप्त ने सच ही कहा है –

"नर हो न निराश करो मन को।"

शारीरिक बल होने पर भी मनोबल का अभाव व्यक्ति की पराजय का कारण बनता है।

अमेरिका के प्रसिद्ध हृदय-रोग विशेषज्ञ डॉ. डीन ऑर्निश ने अपने अनुभवों के आधार पर लिखा है कि "जिन्हें अपनों से प्यार और प्रेरणा मिलती है- वे जीवन जीने की प्रबल इच्छा से आशान्वित रहते हैं और अपना "मनोबल" बनाए रहते हैं- वे कठिन से कठिन रोगों पर भी विजय प्राप्त करने में समर्थ होते हैं।" इसके विपरीत अपेक्षित निराश और अकेला व्यक्ति अपना "मनोबल" खो देने के कारण अपनी प्रगति में स्वयं ही बाधक हो जाता है और प्रायः अपने जीवन से हाथ धो बैठता है।"

"मनः एवं मनुष्याणां बन्धनमोक्ष कारणम्।" मनु

इसीलिए कहा गया है "मन के हारे हार है मन के जीते जीत।"

क्या कोई पाठक अथवा श्रोता मुझे अंग्रेज़ी का वह शब्द बताएँगे जो पूरी तरह से "मन" का पर्यायवाची हो? संसार की भौतिक वस्तुएँ "मन" को अपनी ओर आकृष्ट करके माया मोह के जाल में फँसा लेती हैं जो अन्त में हमारे लिए दुःख का कारण बनती हैं। सत्य ही है –

"मन मूर्ख क्यों दीवाना है?
आज रहे कल जाना ही!"

"मन" की गाथा लम्बी हो गई है। अब कहिए, क्या आप हमें मन का अता-पता बताएँगे?

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

किशोर साहित्य कविता
बाल साहित्य कविता
कविता
स्मृति लेख
सामाजिक आलेख
ललित निबन्ध
लोक गीत
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में