तुम्हें जब याद करता हूँ मैं अक्सर गुनगुनाता हूँ
हमारे बीच की इन दूरियों को यूँ मिटाता हूँ
इबादत के लिए तुम ढूँढते फिरते कहाँ रब को
गुलों कों देख डाली पर मैं अपना सर झुकाता हूँ
नहीं औकात अपनी कुछ मगर ये बात क्या कम है
मैं सूरज कों दिखाने दिन में भी दीपक जलाता हूँ
मुझे मालूम है तुम तक नहीं आवाज़ पहुँचेगी
मगर तन्हाईयों में मैं तुम्हे अक्सर बुलाता हूँ
मैं तन्हा हूँ ये दरिया में मगर डरता नहीं यारों
जो कश्ती डगमगाती है तुझे मैं साथ पाता हूँ
अँधेरी सर्द रातों में ठिठुरते उन परिंदों कों
अकेले देख कर कीमत मैं घर की जान जाता हूँ
घटायें, धूप, बारिश, फूल, तितली, चांदनी "नीरज"
इन्ही में दिल करे जब भी तुझे मैं देख आता हूँ