मैं पहाड़ की बेटी
सुशील कुमारझरना ..ऽ..ऽ..
ओ झर... ना!
कल-कल तेरे जल में .
खूब नहाऊँगी
नदी माँ ....ऽ...ऽ... तू
रेत के घूँघट में
मुँह ढाँप मत रोना
तेरी भी बेटी हूँ
तू बह माँ !
तू बह ना !!...
जल से तेरे
आचमन करूँगी ।
लाल, पीले, बैगनी
अपनी आँचल में फूल
खिला माँ !
खिला ना !!...
खोपा में खोसूँगी,
करधनी बनाऊँगी,
माँग सजाऊँगी,
ओ पतझर के
निदर्य बयार ....!
वन-उपवन के पत्ते
सब मत गिरा,
हरित-वर्ण से
घर-ओसारे में
भित्ति-चित्र बनाऊँगी।
ओ बसंत, लौट आ..ऽ..ऽ..
लौट आ ना...!
माँदल की थाप पर
पहाड़नों के दल बना
खूब नाचूँगी, ठुमकूँगी,
परब मनाऊँगी।
वनवासी ...
ओ वनवासी ...
बेल, बूटे
शीशम, महुआ
केंदु-पत्ते
बुरी नजर से बचा..ऽ..ऽ..,
वही अपनी थाती है !
हे पहाड़ जोगते वनदेवता !
बापू की तरह
बूढ़ा पहाड़
बहुत बीमार है
बड़े-बड़े घाव हैं,
बड़े-बड़े खोह हैं,
उसकी देह में।
उसे ढाढस देना,
मेघ देना, पानी देना,
खेत में अन्न उगाना,
जंगल बचाना
वनदेवता जंगल बचाना
दिक्कुओं के पाप
मत सहना
हे वनदेवी
पुकार मेरी सुनना!
महाजन से मेरी
देह बचाना
नदी-माँ की लाज बचाना !
पहाड़ की बेटी हूँ,
मेरी आर्त्त-विनती
सुन माँ !
ओ ... सुन ना..ऽ..ऽ..