मैं! मैं ना रही
राजू पाण्डेयबातों में ऐसा उलझाया उसने
जाने कब सुबह से शाम हो गयी
पहली मुलाक़ात मेरी उससे
सरपट ज़ुबानें आम हो गयी।
प्यार से निहारती नज़रें उसकी
दोपहरी शीतल चाँद हो गयीं
प्रेम में खोयी में बावली
लज्जा से सुर्ख़ लाल हो गयी।
हाँ! निकली थी आज़ाद होने
मैं ये कैसे मदहोश हो गयी
भूल डाल डाल में उड़ना मैं तो
उन नज़रों में क़ैद हो गयी।
उँगलियों बीच उँगलियाँ मिलीं
दिल में वीणा सी ध्वनि हो गयी
सचेत रहने का प्रयत्न बहुत था
मैं ख़ुद ही उसमें खो गयी।
नाम उसका ही लेती बार बार
मेरी ज़ुबां बेक़ाबू हो गयी
है सोच में भी कब्ज़ा उसका
मैं! मैं ना रही, "राजू" हो गयी।