मैं चलता रहा

15-04-2021

मैं चलता रहा

विजय कुमार (अंक: 179, अप्रैल द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

मैं चलता रहा गिरता रहा,
सिर्फ़ उसे पाने को,
मचलता रहा डूबता रहा,
सिर्फ़ उसी में जीने को,
उस सुकून का रस ही क्या,
जो दे ना सके बेचैनियाँ,
वह हौसलों की उड़ान ही क्या,
जो कह ना सके गर्व से,
ज़रा देखो मेरी कुर्बानियाँ, 
              यह गुज़रती घड़ियाँ,
              कह गईं हमसे,                 
              वक़्त है बहुत कम,    
              थोड़ा जाग ख़ुद से,
              टूटने वाली हस्ती ,
              टूट ही जाती है,
              बुलबुले अक़्सर फूट ही जाते हैं,
              ना रख दिल में,
              यह हवाओं का झोंका,           
              क्योंकि नहीं बदलते अल्फ़ाज़,
              शिखर के भ्रम  से।

1 टिप्पणियाँ

  • 31 Oct, 2021 09:11 AM

    बहुत अच्छी रचना है, वाह

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