मैं और मेरा घर
महेश पुष्पदसदियों से तनहा है, वीरान सा रहता है,
मेरा घर मुझसे अक़्सर ये कहता है।
दोनों ही महरूम हैं परवाह करने वालों से,
दोनों ही परेशां हैं ज़िन्दगी के सवालों से।
मेरी और मेरे घर की कहानी एक सी है,
उसका बुढ़ापा और मेरी जवानी एक सी है।
टूटे हैं दोनों ही, कोई मरम्मत नहीं करता,
शायद कोई अपना भी हमसे, मुहब्बत नहीं करता।
कबेलू टूट चुके, लकड़ियाँ भी सड़ गई,
मेरे दर्द की कहानी भी, इस हद तक बढ़ गई।
रहता है ख़ामोश किसी से, गुफ़्तगू नहीं करता,
दास्तान-ए-दर्द को रूबरू नहीं करता।
हो चुका जर्जर बहुत, हर कोना कच्चा है,
मानों बिछड़कर रो रहा, अपनों से कोई बच्चा है।
मुद्दत से त्यौहार कोई मनाया नहीं हमने,
ज़िन्दगी का गीत अब तक गाया नहीं हमने।
एक अरसे से रहे, एक दूसरे से हम जुदा,
तू भी तनहा मैं भी तनहा, हम दोनों ही ग़मज़दा।
सूना है तेरा आँगन, किसी ने सजाया नहीं है,
मैं रूठा हूँ कई दिनों से, किसी ने मनाया नहीं है।
मेरी ज़िन्दगी, और तेरी, दीवारें बेरंग हैं,
बाक़ी रहा न उल्लास कोई, न कोई उमंग है।
पतझड़ के सूखे पेड़ से हालात हमारे हैं,
गुज़रे न किसी और पर, जो दिन हमने गुज़ारे हैं।
4 टिप्पणियाँ
-
Thanks to all of you, kabhi kabhi likh deta hun Controll nhi hota.
-
Dil se nikli kavita
-
अति सुंदर महेश जी
-
It's awesome sir,bhaut mast hai.