मैं
सागर कमलबीज हूँ मैं या कि फूल
मैं हवा हूँ या कि धूल
मैं उगूँ खिलने के हेतु
या खिलूँ कि जाऊँ बिखर।
सब कणों को जोड़कर
रुख़ हवा का मोड़कर
मैं बहूँ गगन तले
संग मेरे भव चले।
प्रश्न पूछता हूँ मैं
मैं ही ख़ुद जवाब हूँ
ज़िंदगी ने जो लिखी
मैं वो खुली किताब हूँ।
कलाकार की साधना मैं
या मैं साधन की कला
साधनों की सिद्धियों में
मैंने स्वयं को छला ।
बाहर मुझको घेर रहा
सपनों का एक ऊँचा अंबर
अंतस्तल में लहराता पर
गहन समाधि का 'सागर'॥