लोक संस्कृति के चितेरे : बी.एल. गौड़

15-04-2020

लोक संस्कृति के चितेरे : बी.एल. गौड़

डॉ. सुधांशु कुमार शुक्ला (अंक: 154, अप्रैल द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

प्रवास के समय पोलैंड में मुझे पढ़ने का बहुत समय रहा, यह कहूँ कि सुअवसर प्राप्त हुआ। समय का सदुपयोग करते हुए और एक सच्चा साहित्य सेवी होने के नाते मैंने कई प्रवासी साहित्यकारों को पढ़ा-समझा और उन पर लिखा भी। कहानी संग्रह, हाइकु, और कविताओं की ख़ूब समीक्षाएँ लिखीं तथा वे पुरवाई, साहित्य कुंज जैसी प्रसिद्ध पत्रिकाओं में छपी भीं। इसी दौरान मेरा परिचय नॉटिंघम की प्रसिद्ध कवयित्री, लेखिका जय वर्मा ने डॉ. बी.एल. गौड़ जी से करवाया। उनसे मिलने और उनके साहित्य को पढ़ने के उपरान्त मैंने उन पर लिखना आरंभ किया। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को समझने की एक शर्त सहृदयता है। सहृदय रस की भी मुख्य वृत्ति है। यही कारण है कि मैं बी.एल. गौड़ को महाप्राण विशषेण से संबोधित करते हुए यह लेख उन पर लिख रहा हूँ।

विश्व साहित्य में नारी-पुरुष की चर्चा है, उसके विभिन्न रूपों को दर्शाया गया है। नारी की अद्वितीय छवि माँ पर बहुत कुछ लिखा गया है, पिता पर कम लिखा गया है। राजा दशरथ के प्राण भी निकल जाते हैं, राम के वनवास जाने पर। तुलसीदास ने रामचरित मानस में राजा दशरथ के बारे में लिखा है कि उनका चौदह लोक में प्रभाव था पर पुत्र मोह में वह भी सुर धाम पहुँच जाते हैं-

राम राम कहि राम कहि राम राम कहि राम
तनु परिहरि रघुवर विरह राउ गयउ सुर धाम॥

इस विषय पर साहित्यकारों ने ख़ूब लिखा है। निराला ने 19 वर्षीया पुत्री सरोज पर सरोज-स्मृति का सृजन किया। अपने को निरर्थक, साधनहीन पिता कहा-

धन्ये, मैं पिता निरर्थक था
कुछ भी तेरे हित कर न सका
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छोड़ कर पिता को पृथ्वी पर
तू गई स्वर्ग, क्या यह विचार
जब पिता करेंगे मार्ग पर
यह अक्षम अति, तब मैं सक्षम
तारूँगी कर गह दुस्तर तम?

निराला मेरे प्रिय कवियों में से एक हैं। सरोज-स्मृति को पढ़ने और निश्चित रूप से मूर्धन्य महाप्राण निराला को समझने के कई वर्षों बाद गौड़ जी की अपने बड़े बेटे पर लिखी पहली कविता ने मुझे कई दिनों तक रुलाया। उनका ज्येष्ठ पुत्र डॉ. श्री राकेश गौड़ उस लोक चला गया, जहाँ से कोई वापस नहीं आता। एक पिता के 34 वर्षीय पुत्र का असमय जाना, उसकी वेदना, पीड़ा, टीस को केवल गूँगे का दर्द कहकर विश्व के सभी दुखों से भारी दुख को अभिव्यक्त किया। गौड़ जी का गूँगेपन का दर्द देखिए- इस शहर के रास्ते

इस शहर के रास्ते
हैं तेरे ही वास्ते

ज़र्द झूमरों के बीच
गुलमोहर की सुर्खियाँ
बौर से लदी हुई
झुकी झुकी ये टहनियाँ

बाट जोहतीं तेरी
कौन देश तू गया
रह गईं निशानियाँ
लिख गया कहानियाँ
उम्र को धकेलते, हम
नित्य उनको बाँचते

इस शहर के रास्ते
हैं तेरे ही वास्ते।

तू एक बार आके देख
एक बार मुड़के देख
लौटकर तू एक बार
दर्द गूँगेपन का देख
उस रोज़ जब सुबह हुई
सब जगे न तू जगा
लगा कि जैसे अब उठा 
कि अब उठा कि अब उठा

साँझ रात में ढली
दीप द्वार पर जला
जिसकी मंद रोशनी में हम 
शून्य में निहारते
इस शहर के रास्ते
हैं तेरे ही वास्ते

डॉक्टर पुत्र का जाना, जो झाँसी में जन सेवा का कार्य कर रहा था। वह डॉक्टर के धर्म का मूलतः पुजारी था, जिसकी सेवा, निष्ठा अपने कर्म के प्रति पूर्णतः समर्पित थी, जिसे आज भी झाँसी शहर याद करता है। कवि अपने बेटे के आने के उस रास्ते को देख रहा है, जिस रास्ते पर दोनों ओर अमलतास और गुलमोहर के फूलों से लदे पेड़ लगे हैं। कवि यह कहना चाहता है कि इस शहर के सुंदर रास्ते तेरे ही वास्ते हैं। गुलमोहर के फूल को संस्कृत में राज आभरण कहते हैं। यह फूल बाँके बिहारी जी के मुकुट में लगाया जाता है। इस फूल को स्वर्ग का फूल भी कहा जाता है। लाल, नारंगी रंग के फूल में पीले रंग के निशान भी होते हैं। देखने में अद्भुत इस वृक्ष की शाखाएँ फूलों से लदी आज भी उस मानवता के पुजारी को देख रही हैं। देव लोक जैसा कर्मों की सुगंध और मकरंद को फैलाने, सुशोभित करने वाला पुत्र उस लोक में चला गया, जहाँ से कोई वापस आता नहीं है। एकांत शून्य में यह सोचते-निहारते कि पुत्र अब उठा कि अब उठा, पत्थर का बुत बना, गूँगे के दर्द सा बेचैन, अकुलाहट भरा पिता किसे क्या कहे। धरती फटे बस उस में समा जाए। ऐसे पिता का दर्द बयाँ नहीं हो सकता शब्दों में। द्वार पर रखे-जले मंद दीपक की लौ में ज्येष्ठ पुत्र का जाना और दीपक की मंद रोशनी का केवल शून्य में निहारते हुए किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति में छटपटाहट, कसमसाहट में बुत बन जाना। उसी की बातों, कर्मों को नित्य बाँचते-बाँचते कवि ने अपनी उम्र को धकेलना प्रारम्भ किया। 

कवि नैसर्गिक प्रतिभा के धनी हैं जिन्होंने बाँचना शब्द का अद्वितीय प्रयोग कर अपने सुपुत्र के सत्कर्मों को, जीवन को बाँचते हुए असहनीय पीड़ा में भी जीवन को आगे बढ़ाया अपना ही जीवन आगे नहीं बढ़ाया अपने साहित्यिक, भवन-निर्माता और मानवता के क्षेत्र को मूर्धन्य बनाया। लाखों लोगों को रोज़गार देकर विश्वकर्मा पुरस्कार से सम्मानित हुए। ऐसा कार्य गौड़ साहब जैसा व्यक्ति ही कर सकता है, पुत्र को याद करना सत्यनारायण की कथा की तरह बाँचते हुए, आपस में पति-पत्नी और स्वयं उस पुत्र को एकान्त में बाँचते हुए मानवता के रूप में कार्य करना संत का ही काम हो सकता है। यह गौड़ जी की पहली कविता है। इसके बाद इन्होंने 13 पुस्तकें लिखीं। कविताओं के साथ-साथ इन्होंने कहानी संग्रह भी लिखे हैं। मीठी ईद और जाने कितनी ही कहानियाँ देखते ही देखते लोकप्रचलित हो गई हैं और साहित्य प्रेमियों का कंठाहार हैं।

इतना कुछ खो जाने पर कोई महामानव ही ऐसा अद्भुत कार्य कर सकता है, इतनी गहरी चोट खाने पर जीवन ही नहीं मृत्यु से भी दो-दो हाथ करने की चाहत रखता है। स्वर्गीय गीतकार गोपाल दास नीरज की तरह कहते हैं-

ऐ मौत, तुझे आना है तो आ
अब आ, तब आ, जब चाहे तब आ
बस, बात तू इतनी सी समझ ले
तू जब भी आ, सलीक़े से आ।
आने का हुनर, ज़िंदगी से ले
चलने से पहले, थोड़ा सँवर ले
माथे पर बिंदी, आँखों में कजरा
हाथों में मेंहदी, बालों में गजरा
चूड़ी की खनक, चंदन की महक
आँखों में हया, चेहरे पे चमक
क़दमों में हो गुनगुनाती ग़ज़ल
फिर भले, तू दबे चली आ
तू जब भी आ सलीक़े से आ।
हम एहसान फ़रामोश नहीं
कि तू आये, और हम रोयें
हमें जन्नत की तमन्ना नहीं है
हमें तो ज़िंदगी से गिला है
बिन मौहब्बत ये ज़िंदगी क्या है
फिर ये मौक़ा, हम किसलिए खोयें
तू काली पीली आँधी सी न आ
तू सुबह की ताज़ा हवा सी आ
तू जब भी आ सलीक़े से आ।
तू शर्माती, इठलाती बलखाती आ
तू गौमुख से निकली गंगा सी आ
तू कंगन की खनक बन के आ
तू पायल की रुनझुन सी आ
तू राग मल्हार सुनाती सी आ
तू पहले पहले प्यार सी आ
तू बाँहें फैलाकर बाँहों में आ।
तू जब भी आ सलीक़े से आ।

थोड़ी सी रोशनी, काव्यकृति, आखिर कब तक, कब पानी में डूबा सूरज, एक दिन यूँ ही और जाती हुई धूप कविता संग्रह में ऐसे गीतों की लड़ी, जो मोतियों के हार सी लगती हैं। प्रेम, जीवन, दर्शन, पर्यावरण, गाँवों की स्थिति, मज़दूर की दशा, बुज़ुर्ग विमर्श इत्यादि विषयों में बेहतरीन गीत लिखे हैं।

इनका कहानी संग्रह भी इनके मानवीय रूप की गरिमा को दर्शाता है। अपने सहयोगियों, कर्मियों, साधनहीनों, भागे-अभागे बच्चों और बुज़ुर्गो की सहायता के लिए सदैव तत्पर बी.एल. गौड़ जी का चरित्र उभर कर आता है। महामानव, महाप्राण विशेषण से संबोधित ये मेरे जीवन के प्रथम साहित्यकार हैं जिनका साहित्य उनके कर्मो की विशद व्याख्या करता है। वह ऐसे साहित्यकार भवन निर्माता और सामाजिक कार्यकर्ता हैं, जो अपने जैसा लोगों को बनाकर समाज का विकास, विश्व में मैत्री-भाव फैलाना चाहते हैं। अफ़सोस केवल इस बात का है कि मैंने इन्हें बहुत देर में पढ़ना शुरू किया। हम केवल उसे पढ़ना चाहते हैं, जिन्हें विशिष्ट कहे जाने वाले लोग स्थापित कर जाते हैं या फिर वे हमारे किसी काम के हों। यह भाव छोड़कर अगर आप बी.एल. गौड़ को पढ़ेंगे तो निश्चित रूप से एक उचित दिशा अवश्य मिलेगी। मेरी नज़र में कोई ऐसा प्रतिष्ठित नामी व्यक्ति जो माँ लक्ष्मी की अपार कृपा होने पर भी सहजता, संवेदना और मानवता को आत्मसात् किए किसान परिवार में उत्पन्न किसान के घर एक रात जैसी मार्मिक कविता का भाव सँजोए 80 के पार की आयु में भी समष्टि हेतु कार्यरत हैं। उनके एक-एक भाव वेदों की ऋचाओं और रामचरितमानस की चौपाई की तरह मन को भा जाते हैं।

श्री विद्या निवास मिश्र जी का निबंध मेरे राम का मुकुट भीग रहा है में राम के शरीर को भीगने की वेदना का नहीं, राम के रामत्व, उसकी प्रतिष्ठा और सम्मान को भीगने, नष्ट होने के भाव को ध्वनित करता है। राम का रामत्व के बिना कोई प्रयोजन नहीं रह जाता है। यही रामत्व लोक का आधार है। समरसता समाज के लिए अनिवार्य तत्व है। डॉ. बी.एल. गौड़ के लिए भी लोक अतीत का, घटनाओं का लेखा-जोखा नहीं है, वह वर्तमान है, उपस्थित है। यही कारण है कि लोक में रहते हुए ज्येष्ठ पुत्र की असमय मृत्यु उन्हें कुछ समय के लिए शून्य जड़ अवश्य बनाती है। लेकिन पुत्र का पुत्रत्व उन्हें पितृत्व की ज़िम्मेदारी से और दृढ़ बनाता है, वे पिता, संरक्षक के रूप में आगे बढ़ते हैं। यही कारण है कि उनका साहित्य खौलती हुई कढ़ाई है, जिसमें लोक के गन्ने का रस पिरोया गया है। गौड़ जी के साहित्य में लोक संस्कृति की धूप-छाँव उसके विविध रंग, संस्कार, परम्परा देखने को मिलेगी। लोक संस्कृति के दो महानायक राम और कृष्ण को विविध आयामों में देखकर लोक को उस पर चलने का भाव दर्शाया गया है।

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