लो आय गईं तुम्हारी लल्लो

15-06-2019

लो आय गईं तुम्हारी लल्लो

नीरजा द्विवेदी

“लो आय गईं तुम्हारी लल्लो“ - दाई ने नवजात बच्ची की नाल बेदर्दी से खींचते हुए बच्ची को नवप्रसूता माँ की गोद में झटके से देते हुए बड़ी हिकारत से कहा तो बच्ची की माँ रामकली ने गुस्से से डाँटकर प्रत्युत्तर दिया-

“तुम्हें अपना नेग चाहिये वह ले लो पर खबरदार! अगर मेरी बच्ची के लिये उल्टा-सीधा कहा या इस तरह का व्यवहार किया।”

दाई मुँह बिचकाते हुए रुक गई और हैरानी से सकपका कर जच्चा की ओर देखने लगी तो पंडितानी बुआ बोलीं, “बहू उसने ऐसो का कह दओ कि तुम बरस पड़ीं? अरे तीन बिटियन के बाद फिर से लली आय गई सो दाई ने साँची ही तो कह दई। पुरखन के नाम चलन कौ पूत तो जरूरी होत है।”

“बुआ! मेरे लये ललीऔ उत्ती प्यारी है जित्तो लला होतो सो अब ऐसी बात न करिऔ। भगवान को जब देन होगो तब देगो। आगे सै ऐसी बात जा घरे में मती करियो।”

माँ द्वारा बेटी के लिये इस प्रकार आवाज़ उठाने की यह बात आज की होती तो इस पर विश्वास हो जाता परंतु यह बात उन दिनों की है जब इक्के-दुक्के हवाईजहाज़ को उड़ते देखकर लोग दौड़ते थे कि ‘चीलगाड़ी’ आ गई। वाहन के साधनों में कार की कौन कहे साइकिलें भी दुर्लभ थीं। लोगों ने ट्रेन के विषय में सुना भर था कि कोई गाड़ी होती है जो पटरी पर चलती है और कू-कू बोलती है। दातागंज से बदायूँ जाने के लिये लोग पैदल या ऊँटगाड़ी से चलते थे। जो सामर्थ्यवान थे वे अपनी बैलगाड़ी, रब्बे या रथ से यात्रा करते थे। क़स्बों में गोबर लिपे कच्चे मकान होते थे। बिजली के बल्बों की जगह दीवट पर दिये या मिट्टी के तेल की कुप्पी जलती थीं। लालटेन एक-दो घर में ही देखी जाती थी। अपने घर-बार को छोड़कर नौकरी करने जाना हेय दृष्टि से देखा जाता था। शिक्षा का प्रचलन कम था और संसाधन भी यथेष्ट नहीं थे। लड़कों को घर में वरीयता प्राप्त थी और लड़कियों का बचपन से दूसरे घर जाने की सीख दे कर पालन-पोषण किया जाता था। घर में लड़कियों को शिक्षा देने के विषय में सोचना तो दूर उनके खान-पान और वस्त्र आदि में भी कंजूसी की जाती थी। लड़कियों की इच्छा या अनिच्छा का कोई प्रश्न ही नहीं उठता था।

सन्‌ 1927 में आज से तिरानवे-चौरानवे वर्ष पूर्व दातागंज नामक एक छोटे से क़स्बे में यह घटना घटित होना इतने ही विस्मय की बात थी जैसे आज कारें सड़क के बजाय आकाश में चलने लगें। आज मैं अपनी मम्मी श्रीमती सुशीला शर्मा के जन्म सहित जीवन की कुछ अद्भुत घटनाओं का वर्णन कर रही हूँ। मेरे नाना पंडित मुकुट बिहारी लाल मिश्रा निरानगला ग्राम के निवासी थे। उस युग में शिक्षा के नाम पर न तो समुचित संख्या में स्कूल ही होते थे और न बच्चों को शिक्षित करने का प्रचलन था। उस समय के चलन के विपरीत नाना जी ने स्वयं शिक्षा प्राप्त की और वकील बन कर दातागंज में वकालत प्रारम्भ की। उनके दो विवाह हुए थे। पहली पत्नी से एक कन्या और एक पुत्र हुआ था। पुत्र की मृत्यु हो गई थी। पहली पत्नी के परलोकवास के पश्चात नाना का विवाह मेरी नानी श्रीमती रामकली से हुआ था। नानी रामायण पढ़ लेती थीं। उनको उर्दू का ज्ञान था। उन दिनों जब लड़कों को ही शिक्षा नहीं देते थे तो ऐसे में लड़कियों को शिक्षित करने का विचार क्रांतिकारी था। नानी उस युग की स्त्रियों की तुलना में बहुत समझदार और समाज की रूढ़ियों और ग़लत परम्पराओं को न मानने वाली थीं।

 शिक्षा - मेरी मम्मी श्रीमती सुशीला शर्मा के जन्म के पूर्व उनकी सगी दो बहिनों श्रीमती शकुंतला मिश्रा और श्रीमती प्रियम्वदा देवी मिश्रा का जन्म हो चुका था और तीसरी सौतेली बहिन श्रीमती कुटमा पाठक भी जीवित थीं। उस युग में परिवार का नाम रोशन करने और पुरखों का नाम चलाने के लिये लड़कों का होना अनिवार्य माना जाता था। नानी के पास तीन लड़कियाँ थीं और चौथी भी पुत्र के बजाय कन्यारत्न आ गई तो सबकी आशाओं पर तुषारापात होना ही था पर वाह रे मेरी नानी... जिन्होंने चौथी कन्या का खुले दिल से स्वागत करके सबके मुँह बंद कर दिये और कन्या भ्रूण हत्या, बाल विवाह, अशिक्षा के युग में कन्या सशक्तीकरण की नींव रक्खी और कन्याओं की शिक्षा के लिये मार्ग प्रशस्त किया। मुझे स्मरण है कि जब मैंने एम.ए. की डिग्री प्राप्त की तो मेरे पापा श्री राधेश्याम शर्मा द्रवित कंठ से बोले थे -

 “मुझे खुशी है कि आज तुम दातागंज की पहली लड़की हो जिसने एम.ए. की डिग्री प्राप्त की है। मैंने भी एम.ए. प्रीवियस ही किया था।”

मैं गौरवांवित हूँ कि दातागंज में लड़कियों एवं लड़कों को शिक्षित करने का प्रचलन हमारे परिवार का अनुसरण करके हुआ। हाँ तो मैं अपनी मम्मी की शिक्षा के विषय में कुछ उल्लेख कर रही थी। ...सुशीला का प्रारम्भिक शिक्षण एक छोटी सी नाममात्र की पाठशाला में हुआ था जहाँ लड़कियाँ प्रारम्भिक ज्ञान प्राप्त करती थीं। लड़कों के लिये अलग मिडिल स्कूल था। वैसे वहाँ पर डिप्टी इंस्पेक्टर ऑफ़ स्कूल मुआयना करने आते थे। लड़कियों की पाठशाला की मुख्य अध्यापिका कक्षा चार पास थीं। वह अपने हस्ताक्षर के लिये "द च कु" यानि दस्तखत चम्पा कुमारी लिखती थीं। डिप्टी साहब आये तो इमला लिखवाने के लिये कहा गया तो “वृक्ष“ शब्द केवल सुशीला ही लिख पाई थीं। इसके लिये उन्हें पुरस्कार भी मिला था क्योंकि वह अपनी बहिन प्रियंवदा की पिछलग्गू थीं और उनसे उन्होंने लिखना सीखा था।

पंडित मुकुट बिहारी लाल मिश्रा ने अपनी कन्याओं को एक अमीन साहब से अँग्रेज़ी की शिक्षा दिलवाई थी जो आगरा विश्वविद्यालय के स्नातक थे। पंडित नन्दराम शास्त्री ने उनकी कन्याओं को घर पर ही शिक्षा दी थी। सुशीला के पिताजी को शिक्षा से बहुत लगाव था। उन्होंने अपनी कन्याओं को शिक्षा देने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। उनकी तीसरी पुत्री प्रियम्वदा को पढ़ने का बेहद शौक़ था। उन्होंने इंटर करके शास्त्री की परीक्षा पास कर ली थी। वह प्रतिष्ठित कवयित्री भी थीं। विवाह के बाद उनका काव्य सृजन बंद हो गया था परंतु पति की मृत्यु के पश्चात जब वह अपने पुत्र डॉक्टर प्रमोद कुमार मिश्रा के पास बरमिंघम (यू.के.) चली गईं तो स्थापित कवयित्री बन गईं और माताजी के नाम से चर्चित हुईं। उनकी दो पुस्तकें “अनुभूतियाँ“ और “जीवन धारा बहती जाये“ प्रकाशित हुईं। प्रियम्वदा से छोटी सुशीला खिलंदड़ी स्वभाव की थीं पर बड़ी बहिन के पीछे-पीछे लगी रहती थीं अतः उन्होंने भी इंटर पास कर लिया था। उनके पिता जी घर में अच्छी-अच्छी पुस्तकें और समाचारपत्र नियमित रूप से मँगवाते रहते थे। लड़कियों को पुस्तकें पढ़ने की आदत पड़ गई थी। 

सुशीला सुंदर, चपल, बुद्धिमान बालिका थीं। ईश्वर ने उन्हें सौभाग्य का वर देकर अनुग्रहीत किया था। उनके बाद उनके दो भाई पैदा हुए। बड़े का नाम राजेंद्र और छोटे का आर्येंद्र रक्खा गया। अब तो सुशीला को लोग हाथों-हाथ रखने लगे। उन दिनों लड़कियों के विषय में कोई सोचता भी न था। सुशीला की पीठ पर भाई हुए थे अतः उसको विशेष माना गया था और उसकी पीठ पर गुड़ की भेली रखकर फोड़ी गई थी।  

पंडित मुकुट बिहारी लाल मिश्रा के आवास के सामने, उन दिनों एक बड़ा चबूतरा था और उसके सामने श्रीमती मुला कुँवर की बड़े फाटक वाली बड़ी हवेली थी जिसमें वह अपने दत्तक पुत्र ज़मींदार पंडित सुंदर लाल शर्मा एवं दो पौत्रों एवं एक पौत्री के परिवार सहित रहती थीं। रामप्यारी बड़ी थीं और उनके पति पंडित भूपनारायण पाठक जो ऑनरेरी मैजिस्ट्रेट थे व उनके बच्चे भी हवेली में रहते थे। पंडित सुंदर लाल शर्मा के दोनों पुत्रों की आदतें जैसे एक पूरब था तो एक पश्चिम। बड़े पुत्र पंडित त्रिवेणी सहाय शर्मा उस समय के ज़मींदारों के समान सुरा-सुंदरी सहित सर्व गुण सम्पन्न थे। उनके तीन बार विवाह हो चुके थे पर संतान जीवित नहीं रहती थी। उनके छोटे भाई राधेश्याम शर्मा पिता के समान सात्विक गुणों से परिपूर्ण, भगवान शंकर के भक्त और शिक्षा अनुरागी थे और बहुत शरारती भी थे। वह अपनी बड़ी बहिन से बीस वर्ष छोटे और भाई से चौदह-पंद्रह वर्ष छोटे थे। माता की मृत्यु हो जाने के कारण उनकी बड़ी बहिन ने उनका अपने बच्चों के साथ पालन-पोषण किया था।

राधेश्याम शर्मा दातागंज के स्कूल से मिडिल करने के बाद बदायूं से शिक्षा प्राप्त करके घर वालों की इच्छा के विरुद्ध लखनऊ से इंटर और प्रयाग विश्वविद्यालय से बी.ए., एल.एल.बी. की शिक्षा प्राप्त करने के लिये इलाहाबाद चले गये थे। उस समय शिक्षा का कोई महत्त्व नहीं था अतः पढ़ने का विरोध होता था। राधेश्याम शर्मा जब छुट्टियों में घर आते थे तो बहिन के पुत्र मदन और विशेष रूप से सदन उनकी शैतान चक्कड़ी में सम्मिलित रहते थे। पंडित मुकुट बिहारी लाल मिश्रा का घर हवेली के सामने था और सुशीला के दोनों छोटे भाई राजेंद्र और आर्येंद्र सदन-मदन के हम उम्र और मिडिल स्कूल में सहपाठी थे। अतः राधेश्याम शर्मा के घर आने पर उनकी शह पर चारों छोटी-बड़ी शैतानियाँ किया करते थे।

राधेश्याम शर्मा को पढ़ने का बेहद शौक़ था। उन्होंने हवेली में अपने छत पर बने कमरे में एक छोटा पुस्तकालय बनाया था। पंडित मुकुट बिहारी लाल मिश्रा और सुंदर लाल शर्मा के परिवारों में परस्पर आवागमन होता था अतः पुस्तकों का आदान-प्रदान भी चलता था। उन दिनों दातागंज में समाचार पत्र नहीं आते थे। सुशीला के पिता जी अपने यहाँ डाक से समाचार पत्र मँगाया करते थे। सुशीला एवं उनकी बड़ी बहिन प्रियम्वदा के लिये अच्छी-अच्छी पुस्तकें भी मँगाई जाती थीं। उस अशिक्षा के युग में भी उनके पास एक पुस्तकालय था। सदन अपने मामा के विशेष आज्ञापालक थे अतः वह समाचार पत्र और पुस्तकों के आदान-प्रदान में सहायक बनते थे।

प्रयाग विश्वविद्यालय में कृष्ण दत्त शर्मा राधेश्याम शर्मा के सहपाठी और घनिष्ठ मित्र थे। उनका विवाह मुरादाबाद के एक प्रसिद्ध वकील की सुशिक्षित कन्या से हुआ था। राधेश्याम शर्मा जब घर आये तो उनके लिये बरेली के एक धनाढ्य परिवार की इकलौती, अशिक्षित कन्या का रिश्ता आया। उन्होंने रोक में सोने की ईंटें भेजीं और हाथी देने का वादा किया। राधेश्याम शर्मा बहुत दुखी हुए। उन्हें जीवन संगिनी के रूप में शिक्षित कन्या की आकांक्षा थी। उन्होंने रोक के बाद बधाई दिये जाने पर दुखी होकर कुछ लोगों से कहा-

“अम्मा को सोने की ईंटें मिल गईं, ददा (बड़े भाई) को हाथी मिल जायेगा पर मुझे क्या मिलेगा?”

पंडित त्रिवेणी सहाय शर्मा राधेश्याम शर्मा के सौतेले भाई थे परंतु दोनों में बहुत प्रेम था। उनका स्वयं का गृहस्थ जीवन सुखी नहीं था अतः वह योग्य पत्नी का महत्त्व समझते थे और छोटे भाई की भावना को भी समझते थे कि उसे सुशिक्षित पत्नी की इच्छा है अतः उन्होंने बडों को समझा-बुझा कर रिश्ता वापस करा दिया।

सुशीला के विवाह की कहानी बहुत मनोरंजक है। राधेश्याम शर्मा को सुशिक्षित कन्या सहधर्मिणी के रूप में चाहिये थी। अतः उन्होंने अपने विश्वस्त आज्ञापालक सदन को समाचारपत्र के साथ पत्रवाहक बना कर भेजा। पत्र में सुशीला को सम्बोधित करके लिखा था कि-

”मैं तुमसे शादी करना चाहता हूँ यदि तुम स्वीकार करो तो समाचार पत्र पर केवल ‘यस’ या ‘नो’ लिख कर जवाब भेज देना। यदि "हाँ“ होगी तो मैं अपनी जिज्जी को रिश्ता माँगने के लिये भेज दूँगा। “ना“ हो तो कोई बात नहीं।”

संस्कारों से बंधी सुशीला ने बड़ी बहिन के हाथ यह पत्र बाबूजी के पास भिजवा दिया। विकट समस्या थी। पड़ोस का मामला था। कोई भी क़दम उठाने से लड़की की बदनामी होती। मुलाकुँवर धौरेला की थीं और मुकुट बिहारी लाल मिश्रा धौरेला वालों के भानजे थे अतः रिश्ता उल्टा था। दूसरे एक ही मुहल्ले की बात थी अतः इस हिसाब से भी रिश्ता ग़लत था। इस रिश्ते पर हर ओर से उँगलियाँ उठतीं। मुकुट बिहारी लाल मिश्रा वकील थे अतः उन्होंने समझदारी से काम लिया। एक दिन जब राधेश्याम शर्मा प्रातः बाग में घूमने गये थे तब उन्होंने उन्हें एकांत में पकड़ लिया और समझाया-

“तुमने हमारी लड़की को क्या शहर की लड़कियों के समान समझा है? मेरी बेटियाँ संस्कारवान हैं। यदि तुम हमारी बेटी से विवाह करना चाहते थे तो उसे पत्र न लिखकर मेरे पास आते तब मैं विचार करता। अभी तो तुम्हारी पढ़ाई भी पूरी नहीं हुई है। बी.ए. की पढ़ाई तो पूरी कर लो।” 

राधेश्याम शर्मा पर इस बात का बहुत प्रभाव पड़ा कि लड़की का चरित्र बहुत अच्छा है। प्रयाग में तो उन्होंने देखा था और स्वयं बताया भी कि- “प्रयाग में तो जो लड़कियाँ पढ़ रही थीं वे अच्छे परिवार के लड़के देखकर स्वयं उन्हें प्रभावित करने की चेष्टा करती थीं और यहाँ लड़की ने पत्र पिता जी को दे दिया।” पढ़ाई पूरी करने के बाद राधेश्याम शर्मा ने सदन को पत्र वाहक बना कर पुनः भेजा और पत्र में स्पष्ट पूछा कि स्वीकृति या अस्वीकृति समाचारपत्र पर ‘यस’ या ’नो’ लिख कर दे देना।

पहले की भाँति पत्र पुनः बाबूजी के हाथ में पहुँच गया। इस समय सुशीला की बड़ी बहिन प्रियंवदा ने बाबूजी को समझाया। उनका विवाह शाहाबाद निवासी पंडित कैलाश नारायण मिश्रा के साथ हो चुका था। उन्होंने कहा-

“बाबूजी लड़कियों की शादी के लिये कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं? घर बैठे रिश्ता आया है। जाना-समझा परिवार है। लड़का सुंदर है, स्वस्थ है, सुशिक्षित है, संस्कारवान है, अच्छे घर का है, जाना-पहचाना है, ऐसे में रूढ़ियों की बातों पर ध्यान न देकर विवाह कर देना चाहिये।"

बाबूजी को भी बात समझ में आ गई क्योंकि अच्छे खाते-पीते परिवारों में शिक्षित लड़के खोजना बहुत कठिन काम था। सबके विरोध के बाद भी आज से इतने वर्ष पूर्व यह क्रांतिकारी क़दम उठाया गया और सुशीला और राधेश्याम शर्मा का विवाह 18 जून 1943 को सम्पन्न हुआ। सुशीला के विवाह के उपरांत राधेश्याम शर्मा का चयन पी.पी.एस. में हो गया और उनके सौभाग्य में चार चाँद लग गये।

सुशीला और राधेश्याम शर्मा के परिणय के अवसर पर उनकी बहिन प्रियमवदा मिश्रा ने एक अमर गीत की रचना की जो उस समय से परिवार की प्रत्येक कन्या के विवाह के अवसर पर गाया जाता है।

 आशीर्वाद

"सुखमय हो संसार तुम्हारा"

 

कम्पित स्वर से हर्षित उर से
उर तंत्री के तार तार से
मन वीणा की मृदु झंकार से
स्वर लहरी की मधु गुंजार से

निर्विकल्प निर्वाद भाव से
यही निकलता राग दुलारा
सुखमय हो संसार तुम्हारा।

हँसती ही दिन रातें आयें
हँसते क्षण सौरभ बरसायें
स्वर्णिम प्रात थिरकते आयें
संध्या मधुमय राग बहायें।

बालारुण के नव प्रभात में
रहे निखरता प्यार तुम्हारा
सुखमय हो संसार तुम्हारा।

जीवन पथ है दुर्गम दुस्तर
फूल यहाँ, शूलों का भी डर
था अब तक जीवन एकाकी
आज मिला, यह सुंदर साथी

प्रेम पूर्णिमा हो मदमाती
जागे ज्योति मिटे अँधियारा
सुखमय हो संसार तुम्हारा।

पथ दो हों पर राह एक हो
दो हृदयों में चाह एक हो
स्वर दो पर आवाज़ एक हो
गतिविधि दो, पर लक्ष्य एक हो

इन आशामय मृदु हृदयों में
बहती रहे प्रेम   रसधारा
सुखमय हो संसार तुम्हारा

झँझा के भीषण झोंकों में
सागर की उन्मद लहरों में
चपला के गर्जन तर्जन में
प्रकृति नटी के पर्रिवर्तन में

 रहे प्रज्ज्वलित अविकल अविचल
 मधुर- मधुर यह दीप तुम्हारा
 सुखमय हो संसार  तुम्हारा।

आज के युग में जब कन्याओं की घटती संख्या पर चिंतित होकर कन्या भ्रूण हत्या रोकने के प्रयास हो रहे हैं और कन्याओं को शिक्षित करके महिला सशक्तीकरण के प्रयास हो रहे हैं तो मेरे मन में यह विचार आया कि क्यों न मैं आज से तिरानवे चौरानवे वर्ष पूर्व के इस क्रांतिकारी संस्मरण को लिख कर अपने स्वर्गीय नाना, नानी, मौसी और पापा को श्रद्धा सुमन अर्पित करूँ?

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