लज्जा उपन्यास में सांप्रदायिकता का चित्रण

28-04-2016

लज्जा उपन्यास में सांप्रदायिकता का चित्रण

डॉ. गोविन्दराज.एम

तस्लीमा नसरीन एक बंगलादेशी लेखिका है जो नारीवाद से संबधित विषयों पर अपनी प्रगतिशील विचारों के लिए चर्चित और विवादित रही है। बंगलादेश के मयमनसिंह नामक स्थान पर 25 अगस्त 1962 को जन्म हुआ। उनके पिता एक डॉक्टर थे। पिता का रास्ता उनकी बेटी ने भी चुन लिया। उनकी माता एक कट्टर मुस्लिम थी। उन्होंने 1976 में एस.एस.सी और 1978 में एच.एस.सी करने के बाद मयमनसिंह मेडिकल कॉलेज से एम.बी.बी.एस प्राप्त किया। उसके बाद मयमनसिंह के एक परिवार योजना क्लिनिक में गाइनकॉलजी की डॉक्टर के रूप में काम किया। वे ढाका मेडिकल कॉलेज में सरकारी डॉक्टर भी बनीं।

रुद्र मुहम्मद शहीदुल्ला से 1982 में विवाह और 1988 में तलाक़ भी हुआ। उसके बाद उन्होंने पत्रकार और संपादक नईमुल इस्लाम खान से विवाह किया। सन् 1989 में लेखिका बिचिन्ता सप्ताहिक के संपादक मिनार महमूद से प्यार करने लगी और उनसे 1990 में उनका विवाह हुआ। 1992 में उनका तलाक़ भी हुआ।

काव्य लेखन से साहित्यिक जीवन की शुरुआत हुई। महिलाओं की समस्याओं पर कविताएँ लिखकर 1990 के आसपास वे गद्य की रचना करने लगी। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेखन भी किया। कथा लेखन में सक्रिय भागीदारी से वे मशहूर हुईं। 1993 में उनका "लज्जा" उपन्यास प्रकाशित होने से पहले तीन निबंध संग्रह और चार उपन्यास प्रकाश में आए थे। "लज्जा" उपन्यास ने उनके जीवन को ही बदल दिया। बंगलादेश में उनपर ज़ारी फ़तवे की वज़ह से आजकल वे कोलकत्ता में निर्वासन की ज़िंदगी बिता रही हैं।

स्त्री के स्वाभिमान और अधिकारों के लिए संघर्ष करते हुए तस्लीमा नसरीन ने बहुत कुछ खोया। उन्होंने अपना भरापूरा परिवार, दांपत्य जीवन, नौकरी सब दाँव पर लगा दिया। "लज्जा" उपन्यास लिखने पर सरकार ने उनका पासपोर्ट ज़ब्त किया और उपन्यास पर प्रतिबंध लगाया। इस घटना के बाद उन्होंने नौकरी से इस्तीफा दे दिया।

"लज्जा" तस्लीमा नसरीन का विवादास्पद उपन्यास है। इसमें लेखिका ने बाबरी मस्जिद के 6 दिसंबर 1992 को तोड़े जाने के बाद बंगलादेश के मुसलमानों की आक्रामक प्रतिक्रिया को दिखाया है। इस उपन्यास ने न केवल बंगलादेश में हलचल मचा दी है, बल्कि भारत में भी व्यापक उत्ताप की सृष्टि की है। यही वह उत्तेजक कृति है, जिसकेलिए लेखिका को बंगलादेश की कट्टरवादी सांप्रदायिक राजनीति ने सज़ा-ए-मौत की घोषणा की है।

"यह उपन्यास बहुत ही शक्तिशाली ढंग से बंगलादेश की हिंदु विरोधी सांप्रदायिकता पर प्रहार करता है और उस नरक का अत्यंत मार्मिक चित्रण करता है जो एक लंबे अरसे से बंग्लादेशी हिंदुओं की नियति बन चुका है। यह मुस्लिम सांप्रदायिकता पर जितनी तल्खी से आक्रमण करता है, उतनी ही तीव्रता से हिंदु सांप्रदायिकता की परतें भी उघाड़ता है। 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद तोड़े जाने पर बंग्लादेश के मुसलमान हिंदुओं पर टूट पड़ते हैं और उनके सैकड़ों धर्मस्थलों को नष्ट कर देते हैं।"1 जिन्होंने बाबरी मस्जिद तोड़ डाली उन्होंने यह नहीं सोचा था कि जिस तरह भारत में मुसलमान अल्पसंख्यक हैं, उसी तरह पड़ोसी देश पाकिस्तान और बंग्लादेश में हिंदु अल्पसंख्यक हैं। भारत में जो दंगा हुआ उसका परिणाम दूसरे राज्यों को भी भोगना पड़ा। सौहार्दपूर्ण समाज की सृष्टि से ही हिंदु-मुसलमान सुख-शांति से रह सकते हैं।

तस्लीमा नसरीन ने इस उपन्यास में सुधामय के परिवार की कहानी कही है जो मुसलमानों की सांप्रदायिकता को सहने केलिए अभिशप्त है। बाबरी मस्जिद टूटने के बाद दंगे भड़क जाते हैं। एक समय के प्रगतिवादी सुधामय अब बिलकुल चुप पड़ा है। उसका बेटा सुरंजन जो कम्यूनिस्ट है, अपने दोस्तों से दूर घर में बैठा है। उसकी बेटी माया को मुसलमान गुंडे उठा ले जाते हैं। सुधामय जो हर समय बंग्लादेश को अपना वतन मानते थे, अंत में भारत जाने का निर्णय कर लेता है।

सुधामय का बेटा सुरंजन और उनका दोस्त हैदर राष्ट्रधर्म इस्लाम को लेकर एक लंबा-चौड़ा भाषण देते हैं। हैदर एवं सुरंजन को राजनीति प्रिय विषय रहा है। हैदर बोल रहा था "जिन्ना ने ख़ुद भी द्विराष्ट्रीयता को राष्ट्रीय ढाँचे के तहत रद्द करते हुए कहा था आज से मुसलमान, हिंदु, क्रिश्चियन, बौद्ध राष्ट्रीय जीवन में अपने-अपने धार्मिक पहचान से नहीं जाने जाएँगे। सभी धर्म निर्विशेष एक राष्ट्र पाकिस्तान के नागरिक होंगे - पाकिस्तानी। वे सिर्फ पाकिस्तानी के रूप में परिचित होंगे।"2 सुरंजन के अनुसार – "इस देश का सांप्रदायिक दल मुँह से कह तो रहा है कि बाबरी मस्जिद के विध्वंस के लिए भारत सरकार दोषी है और इसके लिए बंग्लादेश के हिंदु उत्तरदायी नहीं है। बंग्लादेश के हिंदु और मंदिरों के प्रति हमारी कोई नाराज़गी नहीं। हमें इस्लामिक चेतना से जाग्रत होकर सांप्रदायिक सद्भाव की रक्षा करनी होगी।"3

सुधामय की बेटी माया एक लड़की की ट्यूशन लेती थी। वह लड़की- "मिनती" भिखारुन्निसा स्कूल में पढ़ती थी। एक दिन जब माया मिनती से गणित करवा रही थी तब उसने देखा कि मिनती पेंसिल हिला रही है, और कह रही है "अलहमदुलिल्लाहिर रहमानी का रहीम और रहमानी का रहीम।"

माया ने हैरान होकर पूछा था "तुम यह सब क्या कह रही हो?"

मिनती ने तुरंत जवाब दिया था "हमारी एसेम्बली में सूरा पढ़ा जाता है।"

"अच्छा, भिखारुन्निसा की एसेम्बली में सूरा पढ़ा जाता है।"

"दो सूरा पढ़ा जाता है। उसके बाद राष्ट्रीय संगीत होता है।"

"जब सूरा पढ़ा जाता है, तब तुम क्या करती हो?"

"मैं भी पढ़ती हूँ। सिर पर चुन्नी डालकर।"

"तुम्हारे स्कूल में हिंदु, बौद्ध, क्रिश्चियनों के लिए कोई प्रार्थना नहीं है?"

"नहीं।"

माया के मन में अजीब-सा भाव उठता है। देश के एक बड़े स्कूल की एसेम्बली में मुसलमान धर्म का पालन होता है और उस स्कूल की हिंदु लड़कियों को भी चुपचाप उस धर्म पालन में भाग लेना पड़ता है। यह अवश्य ही एक तरह का अनाचार है।

माया का एक और ट्यूशन भी था। वह लड़की पारुल की ही रिश्तेदार है। सुमइया भी एक दिन बोली "दीदी आप से अब और नहीं पढ़ूँगी"

"क्यों?"

"अब्बा ने कहा है कि मुसलमान टीचर रखेंगे।"

"अच्छा।"4

परवीन सुरंजन से प्यार करती थी। परवीन हैदर की बहिन है और हैदर सुरंजन का दोस्त भी। परवीन कभी-कभी छिपकर उसके पास चली आती थी। कहती थी - "चलो कहीं भाग जाते हैं।"

"भाग जाएँगे, कहाँ?

"दूर कहीं पहाड़ के पास।"

"पहाड़ कहाँ मिलेगा? पहाड़ पाने के लिए सिलहट नहीं चट्टग्राम जाना होगा।"

"वही जाऊँगी। पहाड़ पर घर बनाकर रहूँगी।"

"खाओगी क्या? फूल-पत्ता?"

परवीन हँसकर सुरंजन के ऊपर लुढ़क जाती। कहती है, तुम्हारे बगैर मैं मर ही जाऊँगी।

"लड़कियाँ ऐसा ही कहती हैं, लेकिन सचमुच कोई नहीं मरती।"

सुरंजन ने ठीक ही तो कहा था। परवीन नहीं मरी। बल्कि अच्छी लड़की की तरह शादी के मंडप में जा बैठी थी। शादी से दो दिन पहले बोली थी "घर में सब कह रहे हैं तुम्हें मुसलमान बनना पडेगा।" सुरंजन ने हँसकर कहा था "मैं खुद धर्म-कर्म नहीं मानता। यह तो तुम जानती ही हो।"

"नहीं, तुम्हें मुसलमान बनना होगा।"

"मैं मुसलमान बनना नहीं चाहता।"

"इसका मतलब है तुम मुझे नहीं चाहते?"

"बिलकुल चाहता हूँ। लेकिन इसके लिए मुझे मुसलमान बनना होगा, यह कैसी बात है?"5

सुरंजन जानता था कि उसे छोड़ देने के लिए परवीन पर उसके परिवार की ओर से दबाव डाला जा रहा है।

एक दिन परवीन की शादी एक मुसलमान व्यवसायी के साथ हो जाती है। सुरंजन मुसलमान बनने के लिए तैयार नहीं था इसलिए परवीन ने भी उसके साथ भाग जाने का स्वप्न छोड़ दिया।

प्रस्तुत उपन्यास में लेखिका सुरंजन के माध्यम से बंगलादेश के मुस्लिम राजनीति का चित्रण खुले हाथ से करती है। पारिवारिक कठिनाइयों के बीच भी सुरंजन वहाँ काम करने को तैयार नहीं होता है।

मित्र पुलक उनसे कहता है, "दरअसल तुम्हें कुछ करना चाहिए था, नौकरी-चाकरी।"

"मुसलमानों के देश में नौकरी मिलना बहुत मुश्किल है। और इन मूर्खों के अंडर नौकरी कैसे करूँगा, बोलो?"

पुलक विस्मित हुआ। सुरंजन के और नज़दीक आकर बोला, "तुम मुसलमानों को गाली दे रहे हो सुरंजन?

"डरते क्यों हो? गाली तो तुम्हारे सामने दे रहा हूँ, उनके सामने तो नहीं दे रहा, अब उनके सामने गाली देना संभव है? मेरे धड़ में क्या सिर रहेगा?"6

का यहाँ यह दिखाने की कोशिश कर रही है कि सांप्रदायिकता का संबन्ध मूलतः धर्म के राजनीतिक इस्तेमाल से है। जब धर्म और राजनीति का अनुचित सम्मिश्रण होता है, समाज में तरह-तरह की बर्बरताएँ फैलती हैं।

इस प्रकार इस उपन्यास से हमें पता चलता है कि भारतीय उपमहाद्वीप में अल्पसंख्यकों की स्थिति लगभग एक जैसी है। फिर चाहे वे बंग्लादेश और पाकिस्तान के हिंदु और ईसाई हों या भारत में रहनेवाले मुसलमान।

संदर्भ

1. तस्लीमा नसरीन - लज्जा-भूमिका से
2. तस्लीमा नसरीन -लज्जा-पृ.सं.73
3. तस्लीमा नसरीन -लज्जा-पृ.सं 74
4. तस्लीमा नसरीन - लज्जा पृ.सं.83
5. तस्लीमा नसरीन - लज्जा पृ.सं. 85,86
6. तस्लीमा नसरीन - लज्जा पृ.सं. 87

शोध छात्र
गोविन्दराज.एम
कण्णूर विश्वविद्यालय

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