लेबर चौराहा और कविता

01-06-2019

लेबर चौराहा और कविता

प्रभांशु कुमार

सूर्य की पहली किरण 
के स्पर्श से 
पुलकित हो उठती है कविता
चल देती है 
लेबर चौराहे की ओर 
जहाँ कि मज़दूरों की 
बोली लगती है। 
होता है श्रम का कारोबार
गाँव-देहात से कुछ पैदल
कुछ साइकिलों से 
काम की तलाश में आये 
मज़दूरों की भीड़ में  
वह गुम हो जाती है 
झोलों में बसुली,साहुल हथौड़ा
और अधपकी कच्ची रोटियाँ
तरह-तरह के श्रम सहयोगी औज़ार 
देख करती है सवाल
सुनती है विस्मय से 
मोलभाव की आवाज़ें 
देखती है
आवाज़ों के साथ मुस्कराता 
शहर का असली आईना 
कविता न उठाती है हथियार 
न लहराती है परचम
वह धीरे-धीरे
मज़दूरों की हड्डियों में समाकर
कैलशियम बन जाती है। 

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