लाशों का शहर बन बैठा है, आज हर एक शहर

15-07-2021

लाशों का शहर बन बैठा है, आज हर एक शहर

डॉ. विनय कुमार श्रीवास्तव (अंक: 185, जुलाई द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

लाशों का शहर बन बैठा है, आज हर एक शहर।
बहते हुए देखा है ये सब ने, पा कर गंगा में लहर।
 
क्या हुआ है मेरे शहर को, ये कैसी क़यामत आई।
ख़ुदा दूर करे अपने रहम से, ये जो है आफ़त आई।
 
कुछ पता न चले ये मौत, कब यह किसको निगले।
अब तो ये दौर है आया, कि जनाज़ा भी न निकले।
 
हर तरफ़ डर ही डर है, वायरस ने सताया है बहुत।
वैश्विक महामारी है ये,  कोरोना ने रुलाया है बहुत।
 
किसी के माँ ने किसी के, पिता ने ये दुनिया छोड़ी।
किसी के पति ने किसी की,  पत्नी ने दुनिया छोड़ी।
 
किसी के भाई ने किसी की, बहन ने जहां छोड़ा है।
किसी के बेटे ने किसी के, बेटी ने ये जहां छोड़ा है।
 
किसी को चिता मिली, किसी को वो भी न नसीब।
किसी को दफ़न किया, किसी को कफ़न न नसीब।
 
कितना बुरा समय है ये आया, परेशां अमीर ग़रीब।
विद्युत से शवदाह कहीं, गंगा जी में प्रवाहित ग़रीब।
 
कहीं-2 तो किसी का पूरा, परिवार ही है चल बसा।
कैसा मंज़र है आँखों को, जो ये भी देखना है पड़ा।
 
अब तो रुक जाये क़यामत ये, अब सहा नहीं जाये।
कुछ समझ में नहीं आता है, ऐसे में रहा कैसे जाये।

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