क्योंकि हम मज़दूर हैं
काव्या मिश्राये घर बनाने वाला, ख़ुद
घर के लिए मजबूर है।
रोटी रूठी जेब से,
भूखे पेट का क्या कुसूर है।
बटुए में सूखा पड़ा है,
आँखों से छलकता पानी है।
इस घरौंदे कि एक-एक ईंट,
उसकी मेहनत की ही निशानी है।
शहर खड़े हैं जिसके दम पर,
उससे ही की मनमानी है,
मेरे देश के निर्माता की,
आज यही कहानी है।
आँखों में नींद होकर भी,
मेरे लिए वो जगता था,
सूखी रोटी खाकर भी,
सारा दिन वो हँसता था।
सोचा होगा बुरे समय में,
ये रिश्ता साथ निभाएगा,
क्या पता था वक़्त आने पर,
सारा शहर नज़र चुराएगा।
पूछता होगा ख़ुद से रोज़,
ऐसा भी क्या कुसूर है?
इंसानियत भी नहीं नसीब,
क्योंकि हम मज़दूर हैं?
वादा किया है ख़ुद से उसने,
लौटकर कभी ना आयेगा,
शहरों को अब ना जाने,
वापस आ कौन बसाएगा!
कहता है रहूँगा वतन में अपने,
बेकारी भी मुझे मंजूर है,
और हर क़दम पे पूछता है,
मेरा गाँव अब कितनी दूर है?
1 टिप्पणियाँ
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आपने इस कविता के माध्यम से मजदूर की व्यथा को बहुत अच्छे से व्यक्त किया है। समाज की उदासीनता है जो मजदूर को मजबूर मानती है।