कुविता में कविता

01-04-2021

कुविता में कविता

दिलीप कुमार (अंक: 178, अप्रैल प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

"जुड़ती है सड़क एक सड़क से 
बासी रोटी ने महका रखा है घर को 
मैं कौन, निश्चित मैं मौन हूँ
टूटी हैं बेड़ियाँ, लड़कर थकी नहीं,
सड़क का कूड़ा, समय से लड़ती कूची
दिमाग़ का दही बनाती है कविता"

जी नहीं अंतिम लाइन कोई स्टेटमेंट नहीं है, अलबत्ता कविता का ही हिस्सा है। आजकल कुछ कविताएँ ख़ुद कहती हैं कि मैं आपके दिमाग़ का दही कर दूँगी, कविता पढ़कर आपको ये कहने की तकलीफ़ नहीं करनी पड़ेगी।

ऊपर जो कविता आपने पढ़ी वो, उस कविता को किसी अकादमी का पुरस्कार मिला है।

"क्या कहा आपने, वो कविता है क्या?"

"जी हाँ ख़ालिस कविता ही है प्रभु, आईएसआई मार्का। अगर आईएसआई मार्का से आपको एतराज़ है तो इसको एगमार्क मार्का कर देते हैं। अरे आप शुद्ध शाकाहारी हैं और एगमार्क के मार्क में आपको एग होने से एतराज़ है तो फिर इसको आप किसी भी शुद्ध-स्वदेशी हर्बल टाइप के मार्क का समझ सकते हैं। क्योंकि हर्बल, ऑर्गेनिक के मार्के के नीचे आजकल बहुत कुछ– छुप जाता है। यक़ीन ना हो तो बताऊँ, चिट्ठी लिखकर या चिट्ठी बम फोड़कर।"

"क्या कह रहे हैं कि इस कविता में कविता जैसा कुछ नहीं है?"

"अरे हुज़ूरेवाला, ये क्या सितम नाज़िल कर रहे हैं आप। कविता में कविता होना किस संविधान में लिखा है। अरे जब सियासत से रहनुमाई, दीन से ईमान, इश्क़ से जुनून, प्रेम से निष्ठा, शेर से वज़न, कहानी से क़िस्सागोई ग़ायब हुई तब आपको कुछ अजीब ना लगा, अब अगर कविता से कविता ग़ायब हो गयी तो कौन सी आफ़त आ गयी।"

"ऐसी कविता कोई बड़ा कवि नहीं लिखता, ऐसा लिखकर कोई बड़ा कवि नहीं बन सकता, ऐसी कविताओं का ना तो कोई औचित्य है ना भविष्य।"

"प्रभु, आपके चरण कहाँ हैं? लगता है चंकी पांडे पर लिखी कविता नहीं पढ़ी आपने। वरना इतनी भोली बातें ना करते।

"ऐसी ही एक कविता को हिंदी के शीर्षस्थ आलोचक ने एक बड़े पुरस्कार के लिये चुना था। लोगों ने आपकी तरह ही कविता में कविता होने का मुद्दा उठाया तो उन्होंने अपने निर्णय का बचाव नहीं बल्कि बखान करते हुए कहा था कि उनके द्वारा पुरस्कार हेतु चुनी गयी कविता पाठकों और श्रोताओं पर मन्त्र सा प्रभाव पैदा करती है।

"आपकी तरह ही भोले, सरल काव्य प्रेमियों ने इस कविता को कई-कई बार सुना अपनी साहित्यिक क्षुधा को शांत करने के लिये। ये और बात है कि बाद में वो लोग अनिद्रा, सरदर्द और कब्ज़ की शिकायत से पीड़ित पाये गए। लेकिन यही सब तो आधुनिक कविता के रिटर्न गिफ़्ट हैं।"

"रिटर्न गिफ़्ट हैं या कोई गिफ़्ट भी है, ये भी तो पता चले।"

"हाँ ये आपका वाजिब सवाल है। इसके गिफ़्ट ही गिफ़्ट हैं। ऐसी कविताई से सबसे पहले आप "युवा तुर्क" की संज्ञा पाते हैं। फ़ेलोशिप की शुरुआत इन्हीं कविताओं से होती है। आप दो-तीन सत्र की एडहॉक की नौकरी किसी डिग्री कॉलेज में पा सकते हैं, बिना गाइड की सब्ज़ी-भाजी ख़रीदने की तकलीफ़ उठाये हुए। मान लीजिये आप अस्थायी बेरोज़गारी से पीड़ित हैं और किसी साहित्यिक संस्थान में लेटर डिस्पैच वग़ैरह का काम कर रहे हों तो ऐसी उत्तर-आधुनिक कविताएँ लिखने से आपके प्रूफ़ रीडर से सहायक सम्पादक बनने का हाइवे बन जाता है। जिस संस्थान में आप आगन्तुकों को माला पहनाते थे वहाँ ख़ुद मुख्य अतिथि के तौर पर बुलाये जाने लगेंगे। और भी बहुत से लाभ हैं जो आपको इस विशेष कविताई के समंदर में उतरने पर पता चलेंगे, जैसे कि कॉफ़ी हाउस जैसी जगहों पर आप जाने से हिचकिचाते हों कि अव्वल तो कॉफ़ी हाउस में कॉफ़ी नहीं रही और कॉफ़ी के नाम पर जो पेय पदार्थ आपको मिलते हैं उन पर आप अपनी जी-तोड़ मेहनत की कमाई ख़र्च करना अफ़ोर्ड नहीं कर सकते। तो फ़िक्र ना करें इस अति आधुनिक कविता के समंदर के यही तो मोती हैं कि आप बस ऐसी कविताएँ कहने और सुनने की आदत डाल लें तो आपको अक़्सर "हॉट कॉफ़ी विद ट्रेन्डिंग कविता" जैसे किसी प्रोग्राम में कॉफ़ी हाउस के बजाय किसी पब में बुलाया जाए और फिर आपको तरल और गरल दोनों प्राप्त हों।"

"हुंह, ऐसी कविता पर तरल और गरल दोनों मिलेंगे, अलबत्ता ऐसी कविता कही और सुनी तो साथ की गर्ल भी नाराज़ होकर कहीं चली जायेगी।"

"ना, ना आपकी निश्छलता बिल्कुल पप्पू टाइप की है। कोई गर्ल कहीं नहीं जाएगी और क्यों जाएगी? वे भी तो ऐसी कविताएँ कहती-सुनती हैं। उन्हें भी तो भोज और पेय पदार्थों की आवश्यकता होती है अपनी-अपनी रुचियों के अनुसार।

"अलबत्ता कई बार तो वो भी अपने घर से खाने का सामान लाती हैं। कुछ समय पूर्व एक कवियत्री ने अपने काव्य पाठ के सफलता से पूरे होने पर सौ कबाबों का वितरण किया था; मेरे भी हिस्से में दस कबाब आये थे। अभी तक लार टपक जाती है उन कबाबों के बारे में सोचकर। भगवान उस कवियत्री को शतायु करे, वो हज़ारों कविताएँ लिखे और लाखों कबाब बाँटे।"

"ऐसा कोई अपवाद रहा होगा, वरना कौन ख़ुद की कविता भी सुनाता है और कबाब भी खिलाता है। ऐसा होता है क्या भला?"

"आप की जिज्ञासा पर हँसी भी आती है और सिर पीटने का भी मन करता है। अरे हिंदी के बहुतेरे कवि किसी फ़ाइव स्टार होटल में तभी जा पाए हैं जब किसी बड़े अफ़सर टाइप की पुस्तक का विमोचन या काव्य चर्चा वहाँ हुई हो।
नेपाल जाने की भी महँगाई ना अफ़ोर्ड कर पाने वाले लोग चार-चार बार काव्य पाठ विदेशों में कर आये हैं। हाई स्कूल में ग्रेस मार्क से हिंदी में पास होने वाले लोग ऐसे ही (कुख्यात या विख्यात अपनी सुविधानुसार समझें) लोग अपनी कुविता के बूते पर आलोचना में जाते हैं और तमाम मानद उपाधियों से विभूषित होते हैं और तमाम कमेटियों में मानदेय वाली मीटिंगों में अक़्सर पाये जाते हैं।"

"लेकिन इस सबसे कुछ ख़ास हासिल नहीं, फ़ेसबुक पर ही तो पूरा साहित्यिक परिदृश्य थोड़े ही ना उपस्थित है, इसे लोग गंभीरता से नहीं लेते।"

"ये आपसे किसने कहा कि फ़ेसबुक आदि की कविताओं को लोग गम्भीरता से नहीं लेते। ना जाने कितने कॉमरेडों ने फ़ेसबुक पर कविता से क्रांति करके अपने बच्चों को तमाम हिंदी पोषित परियोजनाओं में सेट कर दिया। तमाम नेत्रियों और पुरुष लेखओं ने कविताई करके एक डेढ़ लाख से अधिक के फ़ॉलोवर बना लिये। मुंबई में ये फ़ैन फ़ॉलोइंग बनाने के लिए इवेंट मैनेजमेंट कम्पनियाँ लाखों रुपये ले लेती हैं। कविता विद किटी पार्टी चलाने एक मोहतरमा ने तो अपने डूबते व्यापार को बचा लिया; अब हथकरघा विभाग के कवि सम्मेलनों में मानदेय भी लेती हैं और कविता के बूते बने सम्पर्कों पर हथकरघा विभाग से अच्छा-ख़ासा अनुदान भी लेती हैं, अक़्सर फ़ेसबुक पर उनकी फोटो आती है जिसमें वो ग़रीब बच्चियों के उन्नयन हेतु कविताएँ लिखकर उन्हें अब हथकरघा के ज़रिये ज़िंदगी बदलेंगी।"

"कविता का हथकरघा से क्या सम्बन्ध, कविता का अनुभव हथकरघा में कैसे काम आ सकता है?"

"यही तो चमत्कार है आधुनिक कविता का। यहाँ एक अति प्रतिष्ठित कविता के अवार्ड का चयन ऐसा व्यक्ति कर सकता है जिसका कविता से दूर -दूर तक नाता नहीं रहा, जो सदैव पत्रकार रहा है, तो फिर कविता से हथकरघा में जाने पर किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिये, बिके तो कविता बेचो, नहीं तो हथकरघा के उत्पाद, मगर कुछ ना कुछ बेचो ज़रूर। देखा ना कविता के प्लेटफ़ॉर्म पर क्या-क्या बिकता है।"

"वो सब तो ठीक है लेकिन उसके लाखों वाले कोई पुरस्कार ऐसी कविता पर नहीं मिलते होंगे, उसके लिये दिनकर जी या बच्चन जी जैसी कालजयी कविताएँ लिखनी पड़ती होंगी।"

"अरे भाई जिस तरह भारत सँपेरों के देश की छवि को तोड़कर आगे बढ़ चुका है, उसी तरह हिंदी की कविता जिसे तुम कुविता कहते हो, वो भी इससे बहुत आगे बढ़ चुकी है, अब की कालजयी कविताएँ इस तरह होती हैं –

"पटक, नोच, मार, 
कीचड़ ख़ूब उछाल 
कीच को खींच 
भर दिमाग़ में ग़लीज़ 
कूड़ा पढ़कर कर सर्जन 
उससे बड़े मानसिक कूड़े का कर उत्सर्जन"

"वाह क्या कविता है, इसे कौन सा अवार्ड मिल सकता है?"

"बड़े से बड़ा, ये नौकरी भी दिलाएगा, वो भी परमानेंट वाली। एक बार इस कविता के ज़रिये नौकरी में घुस जाओ, फिर उम्र भर कुविता करते रहना। क्योंकि जब तक तुम जियोगे तब तक तुम्हें इस सवाल का सामना नहीं करना पड़ेगा कि कविता मानसिक उत्पादन है या मानसिक उत्सर्जन।"

"फिर भी इस कविता को कौन सा अवार्ड मिल सकता है?"

"_________वग़ैरह, वग़ैरह टाइप के अवार्ड।"

"कौन सा अवार्ड, सुन नहीं पाया?"

मैंने फिर उस अवार्ड का नाम दुहराया। लेकिन पाठक फिर नहीं सुन सका, क्योंकि इस बीच एक सिरफिरा आशिक़ बड़े ही ज़ोर से ज़ोर से गा रहा है –

"मैं कहीं कवि ना बन जाऊँ तेरे प्यार में ए कविता।"

अब आप ही तय करें कि आप संगीतमयी कविता सुनेंगे या अवार्ड वाली कुविता?️

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