कोणार्क : विचारात्मक जाँच पड़ताल, प्रेम के मिश्रित रूपों का शास्त्रीय विवेचन

01-09-2021

कोणार्क : विचारात्मक जाँच पड़ताल, प्रेम के मिश्रित रूपों का शास्त्रीय विवेचन

देवी नागरानी (अंक: 188, सितम्बर प्रथम, 2021 में प्रकाशित)


देवी नागरानी
समीक्ष्य पुस्तक: कोणार्क
लेखक: डॉ. संजीव कुमार 
प्रकाशक: इंडिया नेटबुक्स 
मूल्य: ₹225.00 (पेपरबैक)

सभ्यता ही हमारी धरोहर है, जिसकी नींव पर जीवनरूपी कश्ती उम्र का सफ़र पार करते हुए इस किनारे से उस किनारे पहुँच पाती है। ऐसी सभ्यता जो आदि-जुगाद से शिव की जटाओं से धार बनकर, सूर्य किरणों की तरह हमारी जड़ों में रोपे हुए संस्कारों को निखारते हुए कह उठती है, कुछ ऐसी काव्यधारा में, जैसे शिव की जटाओं से बहती धारा अपने बहाव के साथ उस सत्यम शिवम् सुंदरम का गुणगान करती हुई, विनीता राहुरकर जी की क़लम से अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हुए मनोभावों समेत, शब्दों की कश्ती में सवार हो सागर की लहरों के संग-संग उतार-चढ़ाव पर ख़ुद की थाह पाती है। उनकी बानगी की जादूगरी को महसूस कीजिए इन शब्दों में: 

सहस्त्राब्दियों पहले
एक टिमटिमाती लौ सी
उदित हुई थी एक किरण
देखते ही देखते
एक विराट सूर्य समान तेजस्वी बन
अपने गूढ़ ज्ञान से
समस्त धरा को जगमगा दिया
सहस्त्र हाथों से विज्ञान,
तकनीक, अध्यात्म, धर्म
संस्कृति की एक विशाल
धरोहर सौंप दी मनुष्य के हाथों में
कितने ही राहू ग्रसने आए
कितने ही काले बादलों ने
निगल लेना चाहा
लेकिन हर अँधेरे को चीर
पुनः उदित हो जाती है
वह सनातन सभ्यता
जिसमें कृष्ण की बाँसुरी के सुर है
राम की मर्यादा
शिव का शिवत्व है
उस सभ्यता के सूर्य को भला
कौन अस्त कर सकता है...?

सच है, ऐसी सभ्यता को कौन अस्त कर सकता है? सत्य जब बाहर भीतर प्रकट होता है तब निशब्दता बतियाती है और सुनने वाला उस मौन के दायरे की गिरफ़्त महसूस करते हुए उस सौन्दर्य से जुड़ जाता है, कुछ यूँ जैसे डॉ. संजीव कुमार जी ने मन की तन्मयता में खोकर अपनी कृति “कोणार्क” में अपने भावों, मनोभावों को स्वच्छ, निर्मल, काव्यधारा में उन सूर्यकिरणों से नहाई शिल्पकारी को सजीव किया है, कुछ यूँ जैसे वे अभी बोल पड़ेगी। यही लेखन का सत्यम है, यही शिवम् है, और सुंदरम भी। शब्दों में बानगी की कलाकारी व् भव्यता देखिये:

तुम्हारा सौन्दर्य
जगाता है मन में कौतूहल
उस कल्पना का
जो देखा होगा
उस महाशिल्पी ने...!

लेखन कला एक ऐसा मधुबन है जिसमें हम शब्द बीज बोते हैं, परिश्रम के खाद का जुगाड़ करते हैं और सोच से सींचते हैं, तब कहीं जाकर इसमें शब्दों के अनेकों रंग-बिरंगे सुमन निखरते और महकते हैं।

कविता लिखना एक क्रिया है, एक अनुभूति है जो हृदय में पनपते हुए हर भाव के आधार पर टिकी होती है। एक सत्य यह भी है कि यह हर इन्सान की पूँजी है, शायद इसलिये कि हर बशर में एक कलाकार, एक चित्रकार, शिल्पकार एवं एक कवि छुपा हुआ होता है। किसी न किसी माध्यम द्वारा सभी अपनी भावनाएँ प्रकट करते हैं, पर स्वरूप सब का अलग-अलग होता है। एक शिल्पकार पत्थरों को तराश कर एक स्वरूप बनाता है जो उसकी कल्पना को साकार करता है, चित्रकार तूलिका पर रंगों के माध्यम से अपने सपने साकार करता है और एक कवि शब्दों का सहारा लेकर अपनी निशब्द सोच को अभिव्यक्त करता है तो कविता बन जाती है।

बस यूँ ही कुछ प्रकट हुईं हैं डॉ. संजीव कुमार जी की क़लम की धार से ये कविताएँ जो उन्होंने मन की आँखों से देखी, उस शिल्पकार की अद्भुत कलाकृतियों में। जी हाँ हम उनके साथ इस पथ पर हमसफ़र हो चल रहे हैं कोणार्क सूर्य मंदिर के उस उज्जवल प्रांगण में जहाँ की दिव्यता, वैभव व् उस जगमगाते सूर्य के सौन्दर्य को अपने मन की आँखों से देखते हुए, अपने भीतर की अँधेरी ख़लाओं को प्रकाशमय करते हुए उन रौशन राहों के पथिक बन पाएँ। 

हिन्दू धर्म में सूर्य देव की पूजा का विशेष महत्व है। ज्योतिष शास्त्र में सूर्यदेव को ग्रहों का सर्वश्रेष्ठ गृह माना गया है, एवं वेदों-पुराणों के मुताबिक सूर्य देव की आराधना-पूजा-अर्चना जहाँ की जा रही है, वहीं कुछ बड़े राजाओं ने भी सूर्यदेव की आराधना की और कष्ट दूर होने एवं मनोकामनाएँ पूर्ण होने पर सूर्यदेव के प्रति अपनी अटूट आस्था प्रदर्शित करने के लिए कई सूर्य मंदिरों का निर्माण भी करवाया। वहीं उन्हीं में से एक है कोणार्क का सूर्य मंदिर है जो कि अपनी भव्यता और अद्भुत बनावट के कारण पूरे देश में प्रसिद्ध है और देश के सबसे प्राचीनतम ऐतिहासिक धरोहरों में से एक है। लेखक की प्रतिभा शब्दों के शिल्प में दमकते हुए उस सत्य को देखिये किस निरालेपन से दर्शा रही है: 

किसी शिल्पी की
कल्पना का मूर्त रूप,
शीर्ष पर थामे
सहस्र किरणों का भार,
तुम आज भी वैसे ही हो
शिल्प श्रेष्ठ
भले ही विगत यौवन।

कहते हैं कि भगवान कृष्ण के वंशज साम्ब को कुष्ठ व्याधि हुई जिससे मुक्ति के लिये साम्ब ने देश के १२ जगहों पर भव्य सूर्य मन्दिर बनवाए थे और भगवान सूर्य की आराधना की थी। ऐसा कहा जाता है तब साम्ब को कुष्ठ से मुक्ति मिली थी। 

ओडिया लोककथाओं में, धर्मपद, बिशु महाराणा नाम के एक महान वास्तुकार के पुत्र थे, जिन्होंने भारत के पूर्वी तट पर ओडिशा के कोणार्क में सूर्य मंदिर का निर्माण एक ही रात में पूरा किया, ताकि 1,200 शिल्पकारों को तत्कालीन राजा से फाँसी से बचाया जा सके। धर्मपद के बारे में किंवदंतियों का कहना है कि उन्होंने कहानी को फैलने से रोकने के लिए मंदिर के शीर्ष को पूरा करने के लिए अंतिम चरण पूरा करने के बाद समुद्र में कूदकर अपना जीवन बलिदान कर दिया। कोणार्क मंदिर अभी भी १३वीं शताब्दी के बाद से बिशु महाराणा और उनके पुत्र धर्मपद की कहानियों को बता रहा है। 

इतिहास के अनुसार, पूर्वी गंगा राजवंश के राजा लंगुला नरसिंह देव प्रथम ने कोणार्क में एक विशाल मंदिर बनाने का फ़ैसला किया। मंदिर सूर्य देव के आकार में होना था, सूर्य अपने रथ में सवार थे। मंदिर के निर्माण के लिए १,२०० शिल्पकारों की भर्ती की गई थी, जिसका नेतृत्व बिशु महाराणा नाम के एक व्यक्ति ने किया था और इस परियोजना को बारह साल लगने थे। बारह वर्ष के अंत के निकट, बिशु महाराणा का पुत्र धर्मपद, जो अब १२ वर्ष का था, अपने पिता से मिलने गया। आगमन पर, उसने अपने पिता को व्यथित पाया; सूर्य मंदिर के शीर्ष पर मुकुट अभी तक पूरा नहीं हुआ था और राजा ने सभी 1,200 शिल्पकारों को सुबह तक पूरा नहीं करने पर उन्हें मारने की धमकी दी थी। हालाँकि यह कार्य असंभव लग रहा था, धर्मपद ने इसे अकेले ही पूरा करने का फ़ैसला किया।

इसके बाद कारीगरों के बीच वाद-विवाद हुआ। अपने स्वयं के जीवन के डर से कि अगर यह पता चला कि उनके बजाय एक बच्चे ने काम पूरा कर लिया है, तो उन्होंने माँग की कि धर्मपद को मार दिया जाए। इस सुझाव का उनके पिता ने कड़ा विरोध किया। अंत में, इस बहस को निपटाने के लिए, धर्मपद ने अपने द्वारा पूर्ण किए गए मुकुट से छलाँग लगा दी, ख़ुद को मार डाला और कारीगरों की सुरक्षा सुनिश्चित कर ली। 

ऐसे ही एक अलौकिक उपर्युक्त ऐतिहासिक, पौराणिक एवं स्थापत्यकला संबंधी तथ्यों के आलोक में डॉ. संजीव कुमार का कथन उनके शब्दों में, “मेरे मन में हमेशा से जिज्ञासा रहती थी कि इस स्थापत्य कला के पीछे कोई तो कल्पना रही होगा जिसके तार महाशिल्पी बिशु के साथ जुड़े होंगे और उनके मन में उपजा होगा और कैसे इन मैथुन मूर्तियों का सूत्र हुआ होगा। इसके अतिरिक्त परियोजना के क्या परिमाप और परिमाण थे उनको देखकर ही मंदिर की पृष्ठभूमि का सूक्ष्म अध्ययन मुझे आवश्यक लगा, कोणार्क के बारे में अपनी आँखों से स्वयं देखकर ही उसकी शिल्पकला की व्याख्या की जा सकती थी, उसके शिल्प को समझा जा सकता था। यह मंदिर अब सूर्य मंदिर की जगह अब प्रेम मंदिर अधिक प्रतीत होता।

अपनी इस जिज्ञासा के सम्पूर्णता बख़्शने ने लिए उनके अपने शब्दों में, “मैंने दो बार कोणार्क की यात्रा की और वहाँ के भग्नावशेषों मंदिर के अवशेषों एवं परिसर नज़दीक से देखा एवं समझा। उपलब्ध साहित्य एवं सूचनाओं के विश्लेषण के बाद मुझे लगा कि इस अप्रतिम शिल्प कला के पीछे, जिस भावना, कल्पना, ज्ञान अनुभव एवं चिंतन है वह भी अप्रतिम है। यह सत्य है कि सभी बातों का ज्ञान किसी अनुभव से प्राप्त हो यह ज़रूरी नहीं। कल्पना एवं अनुभव का मिश्रण एक नई धारा की सृष्टि भी कर जाता है। कोणार्क की पृष्ठभूमि और महाराणा बिशु की शिल्प कला तो यही स्पष्ट करती है।“

समेटे अपने आँचल में
खड़ा है आज भी
एक कालखंड
जिसमें निहित थी
कल्पना की उड़ान
नभ पर उड़ते सूर्य को
अपनी धरती पर
उतार लाने का स्वप्न

लेखक के कथन की सत्यता ‘अपनी आँखों से स्वयं देखकर ही उसकी शिल्पकला की व्याख्या की जा सकती थी’ सोने पे सुहागा रही . . . जिसके लिए यथाकथित सत्य को काव्य में निपुणता व् भव्यता के स्तर पर नवनिर्माणित करते हुए उनका कवि मन आसपास की मूर्तरूप कलाकृतियाँ की मूकता को अपनी जागृत लहलहाती विचारधाराओं से कल कल बहती काव्य धरा में कुछ यूँ रच रहे है जैसे मूर्तियों के उस प्रांगण में पत्थर बोल उठे हों: 

हाँ विशु,
लगता है
समाहित हो गया है
तुम्हारा अस्तित्व
शब्दों को उकेरती
इस लेखनी में
और जैसे एक चलचित्र सा
दिखाने लगा है
तुम्हारा जीवन
तुम्हारा प्रेम
तुम्हारी कल्पना
अदृश्य, किन्तु मूर्त।
लगता है
जाग उठेंगे
उन स्वप्नों के
मोहक इन्द्रधनुष
शब्दों का आंचल
ओढ़कर
और खिल उठेंगे
तुम्हारे स्वप्न कमल
इस काल में।। 

कोणार्क सूर्य मंदिर के दोनों ओर 12 पहियों की दो क़तारें है। इनके बारे में कुछ लोगों का मत है कि 24 पहिए एक दिन में 24 घण्‍टों का प्रतीक है, जबकि अन्‍य का कहना है कि ये 12 माह का प्रतीक हैं। यहाँ स्थित सात अश्‍व सप्‍ताह के सात दिन दर्शाते हैं। समुद्री यात्रा करने वाले लोग एक समय इसे ब्‍लैक पगोडा कहते थे, क्‍योंकि ऐसा माना जाता है कि यह जहाज़ों को किनारे की ओर आकर्षित करता था और उनका नाश कर देता था।

दिखता है विशु
तुम्हारी आँखों के कोणों पर
उस सौन्दर्य का अर्क
उस अतीत की भव्य गाथा
जो सालती होगी पल पल
तुम्हें जलाती होगी

कोणार्क सूर्य मंदिर के धार्मिक महत्व और ख़ूबसूरत बनावट की वज़ह से इसे देखने यहाँ न सिर्फ़ देश से बल्कि विदेशों से भी लाखों की संख्या में पर्यटक आते हैं और इस भव्य मंदिर की ख़ूबसूरत कलाकृति का आनंद लेते हैं और तमाम तरह के कष्टों से मुक्ति पाते हैं। महान कवि व नाटकार रवीन्द्र नाथ टैगोर ने इस मंदिर के बारे में लिखा हैः “कोणार्क, जहाँ पत्थरों की भाषा मनुष्य की भाषा से श्रेष्ठतर है।” उसी अनबोली भाषा को सुर दिया है संजीव कुमार की बाहरी व् भीतरी दृष्टि ने। इस अनोखे लावण्य काव्य सृजन से वे बधाई के पात्र हैं। 

ज़िंदगी एक सुंदर कविता है पर कविता ज़िंदगी नहीं, इस बात का समर्थन श्री आर.पी. शर्मा 'महर्षि' का यह शेर बख़ूबी बयान करता है:

ज़िंदगी को हम अगर कविता कहें
फिर उसे क्षणिका नहीं तो क्या कहें।

किसीने खूब कहा है 'कवि और शब्द का अटूट बंधन होता है। कवि के बिना शब्द तो हो सकते हैं, परंतु शब्द बिना कवि नहीं होता। जब तक कवि की सोच उन शब्दों का सहारा लेकर पनपने और बोलने लगती है तभी ही वह कविता बन जाती है, कभी ग़ज़ल तो कभी रुबाई।’

डॉ. संजीव कुमार ने जैसे पत्थरों को देखते हुए एक-एक कलाकृति के सौंदर्य में जान फूँक कर एक नूतन सौन्दर्य बख़्शा है अपने पाठकों को, कुछ ऐसे जैसे उस शिल्पी ने रचा उन शिलाओं से।

रच दिया जैसे
एक महाकाव्य
उस शिल्पी की
स्वर्गिक कल्पना ने
आराधना के स्वर
अचानक ही गूँज उठते होंगे
आज भी गर्भ गृह से
क्योंकि पुकारा होगा
उसने मन से
उसी महाशक्ति को
उतर आने के लिये
अपने रथ सहित
और होने को
प्रतिस्थापित
गर्भगृह के कोणों के बीच
और बना लेने को
उसे अर्क क्षेत्र 
ताकि अखिल भुवन
बन सके उसका श्रीक्षेत्र
बरसता है इतिहास का
वह एक एक शब्द
गीत बनकर हर कोने में॥

यही कविता मनोभावों की कल-कल बहती हुई एक प्रवाहमान-धारा होती है जो कई दिशाओं में अनेक स्तरों पर अपनी चाह तलाश करते हुए विश्राम पाती है। 

इस अनबुझी प्रयास को लेकर संजीव कुमार जी का कवि मन दो बार कोणार्क की यात्रा के लिए रमता रहा और वहाँ के भग्नावशेषों मंदिर के अवशेषों एवं परिसर नज़दीक से देखा एवं समझा। उपलब्ध साहित्य एवं सूचनाओं के विश्लेषण के बाद मुझे लगा कि इस अप्रतिम शिल्प कला के पीछे, जिस भावना, कल्पना, ज्ञान अनुभव एवं चिंतन है वह भी अप्रतिम है। यह सत्य है कि सभी बातों का ज्ञान किसी अनुभव से प्राप्त हो यह ज़रूरी नहीं। कल्पना एवं अनुभव का मिश्रण एक नईधारा की सृष्टि भी कर जाता है।

कविता का दूसरा पहलू यह भी है कि 'कविता' केवल भाषा या शब्द का समूह नहीं। मनोभाव शब्दों की तोतली सी बोली में जब अभिव्यक्त होते हैं तो वही कविता बन जाती हैं। रचना का यह एक ऐसा मधुबन है जहां शब्द-बीज के अंकुर अपनी ताज़गी व रंगत के साथ एहसास के परों पर ऊँचाइयों और गहराइयों में डूबकर ख़ुद को अभिव्यक्त करते हैं। सुनते हैं जब ग़मों के मौसम आते हैं तो बेहतरीन रचना की सृष्टि होती है। जैसे:

काव्य के पंखो पर
मैं तीव्र वेग से तितली सी उड़ती हूँ
अपने आस-पास की भव्य सुन्दरता निहारने हेतु
अपनी मखमली चरम चेष्टा से
एक अनोखे आनंद की अनुभूति हेतु . . .

काव्य रचना और कुछ नहीं बस हृदय की भाषा है। हर मानव, जो तार्किक रूप से चिन्तन करता है और दिल की आवाज़ सुनता है वह अपने स्नेह, घृणा, धैर्य, सुहानभूति, क्रोध, आहत सन्तुलन अहसासों के विभन्न भावों की अनुभूति व्यक्त कर सकता है। कुछ ऐसे ही डॉ. संजीव कुमार जी जब मौन पत्थरों से घिरे रहे होंगे तब उनके हृदय के लब एक माधुर्य को अपने भीतर लिए कहीं लहलहाती काव्य धारा को प्रवाहमान होते हुए पा रहे होंगे जो छलक कर शब्दों में अपना स्वरुप पाती रही:

एक शाम
उन्हीं पाषाण शिलाओं के बीच
तलाशता रहा मन
कि वह मूर्तियाँ
जीवन का मूर्त हैं
या मूर्तियाँ ही जीवन-
खोजती रही आँखें
उन भाव भंगिमाओं के बीच
उस शिल्पी की आँखों के
अनबेधे स्वप्न
कैसे जागे होंगे

उसी प्रकार एक कवि की कल्पना, सुन्दर शब्द लय या बिना लय संग अपनी अनुभूतियां अभिव्यक्त करती हैं, जिसमें उनकी कल्पना शब्दों के माध्यम से कभी धड़कने लगती है, तो कभी घुटनों के बल चलने लगती है। कभी नृत्यांगना बन तेज़ गति से या तितली बन भूं-भू कर प्रकृति से गले मिल सुन्दरता का ऐसा अनोखा खूबसूरत अहसास देती है। विचारों का सुन्दर ताना-बाना बुनकर एक नई चाल संग सम्मोहित गीत बन पड़ता है।

जैसे बड़ी नदी की चाल से
एक प्रवाह गुज़रता है 
एक सुई के लघु छिद्र से...! 

कुछ ऐसे ही भाव अभिव्यक्त हुए हैं जैसे वे मूर्तियाँ, जीवन का मूर्त हैं या मूर्तियाँ ही जीवन! बस एक अद्भुत भाषा भाव का प्रयास है जो कह उठता है: 

समेटे अपने आँचल में
खड़ा है आज भी
एक कालखंड
जिसमें निहित थी
कल्पना की उड़ान
नभ पर उड़ते सूर्य को
अपनी धरती पर
उतार लाने का स्वप्न
जो अपनी अभिनवता में
भर लाया होगा
उत्साह का पारावार
और कल्पना के उत्कर्ष
उकेर गया होगा
उन पत्थरों पर
जो हो उठा जीवंत
कला की प्राचुर्यता के साथ
विभिन्न मुद्राओं में
जीवन की भंगिमाओं में
जिससे आज भी
जाग उठता है
विस्मय भी
और पश्चात्ताप भी।

यह एक दिल की भाषा है जो सीमित शब्दों द्वारा, असीमित दुख-सुखो, कष्टों-त्रासदियों, लालचों, अनभिज्ञाओं, एकान्तो, स्नेह-घृणाओं आदि अहसासों को प्रकट करती है। पर एक मौन भी सौ बोलने वालों को चुप करा देने में सक्षम रहता है। 

काव्य रचना एक जुनून है, वास्तव में यह दिल का संगीत है जो मौन रहकर भी खमोशी में सचेतन कानों से सुना जा सकता है अर्थात एक खामोश फ़ुसफ़ुसाहट बिना किसी भाषाई दायरे में पनपती है-जैसा मैंने महसूस किया है, देखा है..... 

अगर
तुम श्रद्धा की आखों से देखते हो
तो 
तुम्हारे भीतर की अनदेखी दुनिया
एक नई दुनिया के द्वार तुम्हारे लिए खोलती है!
कविता भी ऐसी ही एक अनकही, अनसुनी अभिव्यक्ति है 

कोणार्क की पृष्ठभूमि और महाराणा विशु की शिल्प कला को एक जीवंत स्पष्टता देते संजीव कुमार जी ने कुल 97 भावखण्डों में इस संवाद को एक नाटिका के संवाद की भांति लिखने का सफल प्रयास है। यह न केवल शिल्प एवं इतिहास के प्रसंग है बल्कि प्रेम के मिश्रित रूपों का शास्त्रीय विवेचन भी है। इस प्रस्तुतिकरण के लिए वो बधाई के पात्र है। 

कानों में गूंजता है
एक अद्भूत संगीत
वह नृत्य मुद्राओं से सजे पाँव
वह सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति-
यौवनायें
जीवनोत्सव के गातीं गीत
शायद रचती कोई
महासंगीतमय कृति
गुंजारती मन मस्तिष्क में
जीवन की चहल कदमी भरे
नृत्य की पदचापें
ताताथैथ्या के स्वर
मृदंग की थापें
और कर्णप्रिय वाद्यसंगीत
की पृष्ठभूमि के बीच
घुंघरुओं की
रंजनमंयी झंकार
बेसुध करती सी
अमृत भरती सी
बरसती पल पल
कोणार्क की मूर्तियों में...!

देवी नागरानी 
अगस्त ४, २०२१
लेखिका परिचय 
देवी नागरानी
dnangrani@gmail.com 


 

1 टिप्पणियाँ

  • कोणार्क पर देवीनागरानी की समीक्षा्मक टिप्पणी बहुत ही प्रेरणादायी और विषय को स्पषट करे वाली है कोणार्क जो सृष्टि कोचेतना का संचार करके क्रिया शील बनाते है उसे अपने शब्दों मे उतार सजीव बना दिया है। इसीलिए कहा गया है कि कविता भी सजीव होती है क्योंकि वह अपने उकेरे हुए भावों से कला में भी प्राण फूक देती है। इसीलिए कहा गया है कि कला भी वाणी मय होती है भले ही प्रस्तर की ही क्यों न हो।कोणार्क तो स्वयं जीवंत कला है। धन्यवाद

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

साहित्यिक आलेख
कहानी
अनूदित कहानी
पुस्तक समीक्षा
बात-चीत
ग़ज़ल
अनूदित कविता
पुस्तक चर्चा
बाल साहित्य कविता
विडियो
ऑडियो
लेखक की पुस्तकें
लेखक की अनूदित पुस्तकें