कोलाहल की साँसें
अविनाश ब्यौहाररात हुई और
थम गईं
कोलाहल की साँसें।
गाड़ियों के हार्न दिन में
बजते रहे हैं।
कई शादियाँ-बाराती
सजते रहे हैं॥
आँख का
काजल चुराएँ–
निर्दोषों को फाँसें।
ज़हर घुला हुआ है
यानि अब हवाओं में।
प्रदूषण के दंश मिलते
इन फ़िज़ाओं में॥
है दमा हुआ
बरगद-पीपल को
रह रह खाँसे।
शीलभ्रष्ट लोगों का
जमघट सा लगा हुआ।
भौंचक्का है देश
अपनों से ठगा हुआ॥
निर्मम है ये वक़्त
फेंकता-
पासे पर पासे।
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