ये अजीब सा शोर आज फिर 
आसमान मे भरने लगा है 
सुबह से ही हवाएँ कुछ बोझिल सी हो चली हैं 
ठिठकती रुक-रुक कर बढ़ती हैं आगे 
लगाए पत्तों में कान 
जानने को वह भी बेकरार कि आखिर 
कौन सी क्रांति आने वाली है यहाँ 
चारों ओर उमड़ रही है भीड़ 
हाथ मे झंडे हैं सबके 
मगर गर्दन के ऊपर 
सिर नदारद।
कोई जाँबाज़ कोई तीरंदाज़ 
लगा जाएगा उन खाली गर्दनों पर सिर अपना।

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