कितने दूर कितने पास
सुनील सक्सेनासुधा सुबह के नाश्ते के लिए किचन में भजिये की तैयारी में जुटी थी। किचन से किसी डब्बे की गिरने की आवाज़ आई। कहीं बेसन का डब्बा तो नहीं गिरा? यदि मेरा शक सही हुआ तो ये सीधा संकेत था कि बेसन ख़त्म हो गया है। अब लॉकडाउन में भजिए की फ़रमाइश बंद करिए। राशन का पुराना स्टॉक ख़त्म होता जा रहा है। फिर भी तसल्ली के लिए मैंने पूछ लिया, "क्या गिरा मेडम?"
“बेसन का डब्बा…”
“यानी भजिए केंसिल?”
“नहीं बाबा थोड़ा बचा था मैंने पहले ही निकाल लिया था…”
“थेंक्स गॉड। वरना दो दिन पुरानी ब्रेड खिलातीं तुम आज नाश्ते में…”
मैं ड्राइंग रूम में प्याज़ काट रहा हूँ। मुझे प्याज़ काटने का कोई पूर्व अनुभव नहीं है। घर में सबसे बड़ा था। अम्मा ने किचन में कभी घुसने नहीं दिया। एकाध बार कोशिश भी की तो अम्मा ने बुरी तरह हड़काया – “लड़कों का क्या काम रसोई में…?" अम्मा की फटकार सुनते ही मेरी दोनों छोटी बहनें रसोई में दौड़ी चली आतीं। “आप भी न भैया अम्मा से ज़बरदस्ती डाँट पड़वाते हो। शैफ़ बनने का भूत सवार है रहता है आपको। किसने कहा था किचन में जाने को।”
एक प्याज़ अभी भी बाक़ी है काटने के लिए। अम्मा टीवी पर रामायण देख रही हैं। "तुम आ गये हो नूर आ गया है नहीं तो चरागों से लौ जारही थी" ...आँधी फ़िल्म का ये गाना जब कानों में सुनाई पड़ा तो मैंने प्याज़ के आँसुओं से लबालब दोनों आँखों को आस्तीन से पोंछते हुए पूछा, “अम्मा ये रामायण देखते-देखते आप कहाँ फ़िल्म चैनल पर चली गईं?”
“बेटा मैं तो रामायण ही देख रही हूँ। ये सुधा की आवाज़ है। वो गा रही है। जब तेरे लिए सुधा को देखने गये थे तो उसने बड़ा सुंदर भजन सुनाया था। मैंने उसकी सुरीली तान सुनते ही तेरे लिए फ़ाइनल कर दिया था। अब तुझे नौकरी से फ़ुरसत मिले तो पता चले कि सुधा कितना अच्छा गाती है। पागलों की तरह दिन- रात दौड़ता रहता है। चैन कहाँ है तुझे? ऐसी भी क्या नौकरी। वो तो भला हो लॉकडाउन का और तेरे वर्क फ़्रॉम होम का जो घर में टिका है तू।” टीवी पर सीता स्वयंवर चल रहा था। अम्मा ने अपनी बात कहने के लिए टीवी का साउंड म्यूट कर दिया था।
मन हुआ किचन में जाकर सुधा से कहूँ – “यार क्या कमाल का गाती हो..!” पर मुझे पता है वो ताना मारेगी – “जनाब को दस साल बाद पता चला मेरे इस हुनर का…”। मैं ख़ामोशी से अंतिम बचे प्याज़ को काटने में लग गया। सोच रहा था कि जीवन की इस आपाधापी में कितना कुछ छूट जाता है! कितनी चीज़ें अनदेखी रह जाती हैं! कितना कुछ अनसुना रह जाता है! किसी और का नहीं अपनों का। आँखों से प्याज़ वाले आँसू नाक के पास से गुज़रते हुए होंठों तक आ गये। ज़बान फेरी तो हल्के नमकदार हो गए थे आँसू।
तभी परी दौड़ती हुई मेरे पास आई। उसके हाथ में ड्राइंग शीट थी।
“पापा ये देखो मेरी ड्राइंग…”
“दिखाओ भाई हमारी परी ने क्या बनाया है..?” ड्राइंग शीट मेरे हाथ में थी।
“ये जो गोल-गोल है न हमारी ’अर्थ’ है," परी ने दोनों हाथों को गोलाकार फैलाते हुए कहा। "और ये अर्थ के ऊपर जो छोटी-छोटी चोटी-सी हैं न ये ’कोरोना’ है। ये नीचे जो इत्ते सारे लोग खड़े हैं, इसमें आप, मम्मी, दादी और मैं भी हूँ। यानी हम सब। हमारा इंडिया।” परी किसी कुशल चित्रकार की तरह मुझे अपनी रचना समझा रही थी । मैं कभी ड्राइंग को कभी परी को विस्मित निगाहों से देख रहा था। सोच का उम्र से कोई नाता नहीं होता है।
“पापा आपने पूछा नहीं इस ड्राइंग का मैंने क्या नाम रखा है?”
“क्या?”
“हम होंगे कामयाब। अब बताओ कैसी लगी मेरी ड्राइंग पापा?”
“बहुत सुंदर। पर हमारी परी ने तो कभी बताया नहीं कि वो इतनी अच्छी ड्राइंग बना लेती है..”
“मैं तो रोज़ बनाती हूँ। पर आप तो रात को लेट आते हो ऑफ़िस से। तब तक मैं सो जाती हूँ। आपको कैसे पता चलेगा..?”
“मेरी प्यारी बिटिया परी,” मैंने परी को सीने से लगा लिया।
नाश्ते के लिए सुधा, अम्मा, परी और मैं सब ड्राइंग रूम में एक साथ बैठे थे। मुझे याद नहीं ऐसा पहले कब हुआ। रामायण का एपिसोड ख़त्म होने को है। प्रसारण बीच में रुक गया। “ब्रेकिंग न्यूज़”। सरकार ने देश में लॉकडाउन का समय पन्द्रह दिन और बढ़ाया। अम्मा ने पलट कर मुझे देखा। सुधा कनखियों से देखकर मुस्करा रही थी। परी मेरे गले से लिपट गई।
1 टिप्पणियाँ
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भावपूर्ण सृजन।