ख़्वाहिशें (नवल किशोर)
नवल किशोर कुमारतन कठोर और हृदय में,
कोमलता का अंबार लिये।
बचपन छोड़ मध्य मझधार में,
नव यौवन का अहसास लिए।
देखते हैं लोग उसे अक्सर ही,
कामेच्छा का निज स्वार्थ लिए।
उसके उरोजों का उभार देखते,
हैवानियत का स्वरूप लिए।
देखती है वह सपने अनेक,
कभी तो वह दुल्हन बनेगी।
अपनी पर्णकुटीर महल में,
नित नये अरमान सजाएगी।
काश वह भी सीता होती,
कोई जनक उसे भी अपनाता।
उसके भी होते अपने राम,
जो आजीवन उसे निबाहता।
जाने नियति कहाँ ले जायेगी,
समाज कहाँ उसे ले जायेगा।
क्या भविष्य उस निर्धन का,
भगवान उसे क्या दे पायेगा।
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- कविता
-
- अब नहीं देखता ख़्वाब मैं रातों को
- अब भी मेरे हो तुम
- एक नया जोश जगायें हम
- कोशिश (नवल किशोर)
- खंडहर हो चुके अपने अतीत के पिछवाड़े से
- गरीबों का नया साल
- चुनौती
- चूहे
- जीवन का यथार्थ (नवल किशोर)
- जीवन मेरा सजीव है प्रिये
- नसों में जब बहती है
- नागफनी
- बारिश (नवल किशोर कुमार)
- बीती रात के सपने
- बैरी हवा
- मानव (नवल किशोर)
- मैं लेखक हूँ
- मोक्ष का रहस्य
- ये कौन दे रहा है यूँ दस्तक
- रोटी, कपड़ा और मकान
- वक़्त को रोक लो तुम
- शून्यता के राह पर
- सुनहरी धूप (नवल किशोर)
- सूखे पत्ते
- स्वर्ग की तलाश
- हे धर्मराज, मेरी गुहार सुनो
- क़िस्मत (नवल किशोर)
- ख़्वाहिशें (नवल किशोर)
- ललित निबन्ध
- सामाजिक आलेख
- विडियो
-
- ऑडियो
-