खुशियों के असंख्य दीप झिलमिला उठे

13-10-2014

खुशियों के असंख्य दीप झिलमिला उठे

गोवर्धन यादव

पोर-पोर में आलस रेंग रहा था और मन था कि लाख कोशिशों के बावजूद भी काम से जुड़ नहीं पा रहा था आज पहली बार उन्होंने शिद्दत के साथ शैथिल्यता का अनुभव किया था, वरना जोशीजी का जोश देखने लायक होता था चीते की सी चपलता, कागा की सी पैनी दृष्टि और गिद्ध की सी एकाग्रता के कारण ही उनके अधीनस्थ कर्मचारी सदा चौकस और सजग बने रहते थे।

पत्रों की प्रत्येक लाईन पर से उनकी नज़रें दौड़ती थी। वे सभी पत्र बड़ी तन्मयता के साथ पढ़ते आवश्यक टीप देते और संबंधित शाखाओं में भिजवा देते। उन्हें यह भी ध्यान बना रहता था कि किस टेबल से जवाब आना बाकी है और कौन सा पेपर पेंडिंग में डाल दिया गया है, वे संबंधित लिपिक को बुलाते। जवाब प्रस्तुत करने को कहते इसके लिये उन्होंने कभी कोई डायरी-फायरी मेंटेन नहीं की थी। सारी चीज़ें दिमाग के कम्प्यूटर में अंकित रहतीं थी। शायद यही कारण था कोई भी कर्मचारी किसी को धोखा हीं दे पाता था और न ही ऊपरी आय की आशा ही संजोकर रख पाता था ऐसा भी नहीं कि वे दरख्त की तरह तने रहते थे। उनकी बिल्लौरी आँखें सदा हॅंसती दिखती और ओंठों पर स्निग्ध मुस्कान हमेशा दौड़ती ही रहती थी। वे सहृदय और मिलनसार भी थे। अपनी स्पष्टवादिता, साफ-सुथरी छबि और कड़कपन के लिए वे सदैव याद किए जाते थे। रिश्वत की आँधी उनकी कलम को कभी भी झुका नहीं पायी थी।

लगभग पूरा ही दिन वे अपने चेंबर में अपनी कुर्सी से चिपके बैठे रहे। कुर्सी के बैक से पीठ टिकाते हुए उन्होंने अपने हाथों की उँगलियों को आपस में कस लिया और सिर के पीछे रखते हुए निर्निमेष नज़रों से छत को घूर रहे थे। आकाश की तरह ही ऑफिस की छत भी सपाट व भावशून्य थी। एक ख़्याल आता तो दूसरा तिरोहित हो जाता था

उन्हें एक ही चिंता खाये जा रही थी। वे चाहते थे कि किसी तरह शारदा का विवाह हो जाए उसके हाथ पीले हो जाएँ और वह अपनी घर-गृहस्थी में रम जाए अब तक शारदा को तीन लड़के देख चुके थे। हर बार आशा बँधतीं। फिर सूखी रेत की तरह हथेली से झर जाया करती थी वे सोचते, क्या कमी है शारदा में! पढ़ी-लिखी है। हिस्ट्री में एम.ए. किया है। वह भी फर्स्ट-क्लास में। अब अंग्रेज़ी में एम.ए. करने वाली है लिटरेचर लेकर, तीखे नाक-नक्ष हैं। झील सी गहरी आँखें हैं केश-राशि नितम्बों को छूती है। छरहरी देह है। मीठा बोलती है। मिलनसार है। व्यवहारिक है। गुणों की खान होने के बावजूद केवल एक कमी है उसमें उसका रंग थोड़ा साँवला है। साँवला होने के बावजूद वह सलोनी है। चेहरा फोटोजेनिक है। फिर भी वह किसी न किसी बहाने रिजेक्ट कर दी जाती है। पता नहीं, बेचारी के भाग्य में क्या लिखा-बदा है अनायास ही उनकी आँखें छलछला आयी थीं। चश्मे की फ्रेम तनिक उॅंचा उठाते हुए उन्होंने रूमाल से आँखें पोंछ डालीं।

यंत्रवत उनके हाथ टेबल से लगी कालबेल की बटन पर जा पहुँचे। कालबेल बजते ही चपरासी ने अंदर प्रवेश किया सलाम ठोंका और अगले आदेश की प्रतीक्षा करने लगा उन्होंने चपरासी को कड़क-मीठी चाय लाने को कहा आदेश लेकर चपरासी जा चुका था उन्होंने टेबल पर पड़े सिगरेट केस को उठाया सिगरेट निकाली। माचिस की तीली चमकायी और गहरा कश लेते हुए ढेरों सारा धुँआ छत की ओर उछाल दिया छत अब भी निर्विकार भाव से टँगा थ॥ ऊपर पंखा स्पीड से चक्कर घिन्नी काट रहा था। अब तक वे चार बार चाय पी चुके थे आने वाली पाँचवी थी। वैसे उनकी आदत में शुमार था कि वे एक चाय सीट पर बैठने के साथ ही सुड़कते थे और शाम को सीट छोड़ने के पहले दूसरी चाय। उनका मानना था कि सीट पर बैठते ही चाय इसलिए ली जानी चाहिए कि काम की शुरूआत के पहले मुँह एक हल्की सी मिठास के साथ मीठा हो जाए।

चाय की चुस्की लेते हुए वे एक लंबा कश ले ही पाये थे कि दरवाज़े पर हल्की सी दस्तक़ सुनाई दी। वे कुछ कह पाते, ओंठ बोलने के पूर्व फड़फडाये भी थे, शब्द ओठों तक आ पाते इसके पूर्व ही पाटिल अंदर प्रवेश कर चुके थे। चाय की चुस्की पूरी तरह से हलक के नीचे उतर नहीं पायी थी, मुँह में भरा-सिगरेट का धुँआ भी वे पूरी तरह उगल नहीं पाए थे। पाटिल को देखते ही जैसे पूरे शरीर में बिजली कौंध गई। वे पूरे जोश के साथ अपनी सीट से उठ खडे हुए और अपना दाहिना हाथ आगे बढ़ाते हुए बोले "आओ पाटिल आओ, बहुत दिन बाद आना हुआ अब तक कहाँ गायब रहे।"

पाटिल भी पूरे जोश से भरे हुए थे। थुलथुला शरीर होने के बावजूद भी उनमें चपलता-चंचलता थ॥ पलभर में दो मित्र जोश के साथ हाथ मिला रहे थे। बड़ी देर तक वे पाटिल के हाथ अपने हाथ में थामे रहे। फिर ओठों पर स्निग्ध मुस्कान बिखेरते हुए उन्हें बैठने का इशारा कर स्वयं अपनी सीट पर बैठ गए। उनके हाथ कालबेल के स्विच पर जा पहुँचे। घंटी बजते ही चपरासी फिर हाज़िर हुआ। उन्होंने चाय-नाश्ता लाने को कहा फिर पाटिल की आँखों में आँखें डालते हुए कहने लगे "कहाँ गायब हो जाते हो पाटिल! तुम्हें देखने को जैसे आँखें तरस गई।" वे कुछ आगे बोल पाते कि पाटिल ने चहकते हुए कहना शुरू कर दिया "देख यार जोशी, मैं तेरे जैसा तो हूँ नहीं कि दिन भर कुर्सी से चिपका पड़ा रहूँ। तू जानता है। अपनी यायावरी ज़िन्दगी है। एक आज़ाद पंछी की तरह घूमता रहता हूँ। एक बड़ी ख़ुशखबरी है....... सुनेगा तो सिर के बल खडा हो जायेगा। बोल सुनाऊँ?"

"एक तू ही तो मेरा जिगरी यार है........ तू न होता तो मैं ज़िंदा रह पाता! बोल क्या खबर है।" पाटिल बोल पाये, इसके पूर्व ही न जाने कितनी ही मीठी-मीठी कल्पनाएँ, जोशी के अंदर बनती-मिठती चलीं गई थी।

पाटिल एक हाथ से बिस्कुट खाता जाता और दूसरे हाथ से चाय सुड़कते जा रहा था। वे सोचने लगे थे, बुढ़ापा आ गया पाटिल को लेकिन अब तक बचपना नहीं गया उसका और वह है कि समय से पहले ही बूढ़ा हो गया है। उनकी नज़रें अब भी पाटिल के चेहरे से चिपकी थीं।

चाय के घूँट के साथ बिस्कुट हलक से नीचे उतारते हुए पटिल ने बताया कि वे अभी-अभी शोलापुर से लौटे हैं और आते ही सीधे यहाँ चले आए हैं। उन्होंने एक लड़का देख रखा है शारदा बेटी के लिए; लड़का बड़ा होनहार है। पोस्ट ग्रेजुएट है। हैण्डसम है और वह कल दस बजे तेरे यहाँ पहुँच जाएगा। फिर चाय की घूँट हलक से नीचे उतारते हुए कहने लगे "जोशी, भगवान दत्तात्रय की कृपा से सब ठीक हो जायेगा। मैं सब कुछ बता चुका हूँ तेरे बारे में। उसे केवल लड़की चाहिए और कुछ नहीं। भगवान की दया से सब कुछ है उसके पास।" पाटिल ने बहुत कुछ कहा पर वे सुन नहीं पाये थे उनके कान में अब भी वे शब्द बार-बार गूँज रहे थे। "लड़का ठीक दस बजे पहुँच जायेगा"´बस इतना सुनते ही वे किसी तीसरे लोक में उड़ान भरने लगे थे। सुनते ही उनके शरीर में रोमांच आ गया था, आँखें सजल हो उठी थीं। उन्हें ऐसा भी लगने लगा था कि सारे मनोरथ एक साथ पूरे होने वाले हैं। वे यंत्रवत कुर्सी से उठ खडे हुए और अपनी विशाल बाहों में पाटिल को भर लिया। वे अब और अपने आप को रोक नहीं पाए थे उनकी आँखों से अश्रुधारा बह निकली थी, जो पाटिल के कुरते को भिगो देने के लिए पर्याप्त थी।

पाटिल को छोड़ने के लिए वे तीसरी मंज़िल से सीढ़ियाँ उतरते हुए गेट तक चले आए थे। वे चाहते तो लिफ़्ट से सीधे उतर सकते थे, चाहकर भी वे वैसा नहीं कर पाये थे कि पाटिल से जितनी भी बातें की जा सकती थीं, की जानी चाहिए क्योंकि एक तो वे उनके जिगरी दोस्त थे और एक शुभ समाचार भी लेकर आए थे।

अपने चेंबर में लौटकर उन्होंने इंटरकाम पर अपने सचिव को सूचित किया कि वे ज़रूरी काम से चार घंटे पूर्व ही अपना कार्यालय छोड़ रहे हैं।

उनकी चाल मे गेंद की सी उछाल थी, मन प्रसन्नता से लबरेज़ था, आशाओं के बुझते दीप फिर एक बार टिमटिमाने लगे थे। उन्होंने पाटिल से लड़के के बारे में बारीक से बारीक जानकारियाँ प्राप्त कर ली थीं - उसे क्या पसंद है? नाश्ते में वह क्या लेगा? खाने में क्या-क्या लेगा? काहे से आयेगा? कितनी देर तक रुकेगा? लड़का देखने के बाद स्वयं फैसला करेगा या फिर अपने आई-बाबा के कंधों पर जवाबदारी डाल देगा?

उन्होंने जेब में हाथ डाला पर्स निकाला पाँच-सात सौ रुपये भर पड़े थे जेब में। इतने से रुपयों में क्या होगा! मन ही मन बुदबुदाते हुए उन्होंने अपने आप से कहा। रिस्ट वॉच पर नज़र डाली तीन बज चुके थे, बैंक अथवा पोस्ट ऑफिस से रकम अब निकाली नहीं जा सकती थी। अभी इतने रुपयों में आवश्यक चीज़ें ख़रीद लेनी चाहियें। कुछ रह भी जायेगी तो घर के पास की किसी दुकान से ख़रीद की जा सकती है। सुलभा के पास कुछ रुपये तो पड़े ही होंगे। लड़का आ भी रहा है तो महीने के अंत में। इतने पैसे बच ही कहाँ पाते हैं कि हज़ार-दो हज़ार की ख़रीद की जा सके। माह की पहली तारीख को तनख़्वाहरूपी सूरज उगता है और माह के अंत तक आते-आते इतना निस्तेज हो जाता है कि सब्जी-भाजी भी ढंग से खरीदी नहीं जा सकती।

एक मिनिट से भी कम समय में उन्होंने कई बातों पर गहनता से सोच डाला था। एक डिपार्टमेंटल स्टोर में घुसकर अत्यावश्यक चीज़ें खरीदीं। कार्टन में पैक करवाया और बस-स्टॉप पर बैठ कर बस की प्रतीक्षा करने लगे थे।

महानगरों की बसें एक तो धीमी गति से नहीं चलतीं। चलतीं भी हैं तो हवाई-जहाज़ की स्पीड से होड़ लेती हैं। समय पर आ ही जायेगी, उसकी कोई गारंटी नहीं। आ भी गई तो दस-पाँच पायदान पर लटके मिलेंगे। तरह-तरह के ख़्याल मन को अशांत कर जाते। वे बस को आता देखते, अपना कार्टन सँभालते, तब तक बस चरमराकर आकर खडी हो जाती और झटके के साथ आगे बढ जाती थी। इतने कम समय में दो-चार चढ़-उतर पाते। वे सोचने लगे - जवानी अब रही नहीं। दौड़-धूप उनके बस में रहा नहीं। जल्दी की और कहीं सलट गये तो लेने के देने पड़ जायेंगे। एक ख्याल जोश दिलाता - तो दूसरा हवा निकला देता।

न जाने कितनी ही बसें आईं और चली गईं। अब तक वे बस-स्टॉप पर बैठे ही रह गए। उन्हें अब अपने आप पर चिढ़ सी भी होने लगी थी। सूरज अपनी उपस्थिति में आग बरसा रहा था। वे जेब से बार-बार रूमाल निकालते, पसीने से लथपथ देह पोंछते और हसरत भरी नज़रों से बस का इंतज़ार करने लगते। भीषण गर्मी में तन झुलसाते हुए उनके मन के किसी कोने से विचारों की सरिता बह निकली।

"मैं भी कितना बडा मूर्ख हूँ। कोई चिराग लेकर ढूँढने निकले तो मुझसे बडा मूर्ख कोई नहीं मिलेगा। सचिवालय में काम कर रहा हूँ। सेक्शन इंचार्ज हूँ। फाइलों के बीच से रुपयों की गुप्त-गोदावरी बहती है। एक-एक फाईल लाखों-अरबों की होती है। अगर एक-एक बूँद भी निकाल पाता तो आज लाखों में खेलता, मेरे अपने पास भी बेशकीमती गाड़ी होती। गाड़ी होती तो मुझे, जाहिल गंवारों की तरह यहाँ स्टापेज पर बैठ कर बस का इंतज़ार नहीं करना पड़ता!"

कहने के लिये बाप-दादाओं के हाथ का एक टूटा-फूटा सा मकान है। वह भी ढाई कमरों वाला। घर में रहने वाले पाँच प्राणी। पति-पत्नी दो और तीन बेटियाँ। शारदा बेटियों में सबसे बड़ी है। एक प्रायवेट स्कूल में पढ़ाती है। शिल्पी और सुनयना अभी पढ़ रही है। शिल्पी एम.ए प्रीवियस में है। सुनयना फर्स्ट-ईअर में है। शारदा साँवली है। मेरी जैसी। शिल्पी अपनी आई पर गई है। गोरी-चिट्टी। देखने में शारदा से बीसा पड़ती है। रिश्ता आता है शारदा के लिए। पसंद कर ली जाती है शिल्पी। बड़ी के रहते छोटी की शादी हो! हो ही नहीं सकती। संभव भी कैसे है? कर भी दूँ तो बड़ी में खोट निकाली जाएगी। तरह-तरह की उल्टी-सीधी बातें फैलायी जायेंगी।

दो साल पहले एक लड़का आया था। घंटों तक वह शारदा का इंटरव्यू लेता रहा था, साँवली होने के बावजूद वह पसंद कर ली गई थी। लड़का तैयार था। पर वह इस बात पर अड़ा रहा कि माँ-बाप की रज़ामंदी के बाद ही वह कुछ कह पाएगा। जाते ही सूचित करेगा। बीस-बाईस दिन बेसब्री से इंतज़ार करने के बाद एक पत्र आया, लिखा था आई-बाबा को लड़की तो पसंद है। पर वे चाहते हैं कि लड़की संगीत में एम.ए. होनी चाहिए - ये भी कोई बात हुई! लड़कियाँ क्या कोई कैसेट की डिब्बी हैं जिसमें ढेरों सारी चीज़ें टेप करा दी जाएँ। आप कितनी बातों में लड़कियों को पारंगत करा सकते हैं?

उसके बाद एक लड़का और आया, सुदर्शन था पढ़ा लिखा था लड़की कैसी भी रहे चलेगी। पर दान-दक्षिणा तगड़ी चाहिए। बड़ी रकम कहाँ से आती, रिश्वतखोरी तो अब तक की नहीं फिर-डाका भी तो नहीं डाला जा सकता। एक लड़की हो तो उधारवाड़ी भी ली जा सकती थी। दो लड़कियाँ और भी हैं। किस-किस को कितनी रकम दी जा सकती थी। जेब में होती तब न! मामला फिर लटक गया।

पिछले साल एक संबंध और आया लड़का देखने में उठाईगीर-सड़क छाप मजनू लगता था। कंधे तक बाल झूल रहे थे, दाढ़ी मूँछें बढ़ी हुई थीं। जिस पर काला चश्मा चढ़ाये, बड़ी नज़ाकत-नफ़ासत से बात करता था। हाथ हिला-हिलाकर बातें करते समय उसका पूरा शरीर थिरकता रहता। शारदा की बढ़ती उम्र और कमज़ोर जेब देखकर लगा कि रिश्ता चल सकता है। बात आगे बढ़ी।

उसकी माँ भी उसके साथ आयी थी। देखकर कोई भी नहीं कह सकता कि वह उसकी माँ होगी। लग रहा था कोई मॉड़ल सामने बैठी है। पारदर्शी कपड़ों में से झाँकता उसका यौवन, गर्दन नीची किये देता था। मन पर बड़ा-सा पत्थर रखकर बात आगे बढ़ानी पड़ी। उसकी माँ ने बतलाया था कि वे आज़ाद ख़्यालों वाली है। स्वतंत्र विचारधारा वाली है। लड़की हमारे परिवार में एडजस्ट हो पायेगी अथवा नहीं, इस बात का भी ध्यान रखना होगा। वह चाहती थी कि लड़का, लड़की से खुलकर बातें कर सक॥ पर ढाई कमरों वाले इस मकान में यह संभव नहीं। उन्हें लड़की को लड़के के साथ बाहर भेजना पड़ेगा। साथ-साथ घूमेंगे, खायेंगे। एक-दूसरे को समझेंगे। पूरी ज़िन्दगी का सवाल जो ठहरा।

शारदा उसके साथ बाहर जाने को तैयार नहीं थी सुलभा का भी कुछ इसी तरह का इरादा था। सबकी नज़रें उन पर केन्द्रित थी। फैसला उन्हीं को लेना था, लाचारी का समुद्र सामने दहाड़ मार रहा था। अनिर्णयात्मक-द्वन्द्व मन में चल रहा था। उनकी नज़रें बार-बार शारदा के चेहरे पर चिपक जाया करती थीं। शारदा के कोमल मन में एक अज्ञात भय गहरे तक धँस आया था। वह कनखियों से उनकी ओर देखती जा रही थी। निर्णय उन्हें ही लेना था दिल पर वज़नी पत्थर रखते हुए वे इतना ही कह पाए थे कि घूम फिर कर जल्दी लौट आना। बाप के चेहरे से टपकती लाचारी भी वह देख चुकी थी।

दोनों के बीच जो कुछ भी घटा, उन बातों को सोचते ही घिन होने लगी है। वह लंपट उसे गार्डन में ले गया, बेंच पर बैठते हुए उस निर्लज्ज ने शारदा से पूछा था "क्या उसने कभी किसी से प्यार किया है? क्या उसने अपने किसी बॉयफ्रेण्ड से शारीरिक संबंध स्थापित किये हैं? जब दो जवान जिस्म हम-बिस्तर होते हैं तो कैसा मजा आता है?" शारदा जैसे काठ बनकर रह गई थी। उसके अंदर क्रोध उबल रहा था न चाहते हुए भी वह चुप थी... सारा ज़हर पीकर। फिर वह उसे फिल्म देखने ले गया ग्लैक्सी में सिराको फिल्म चल रही थी, बेहद अश्लील! बेहद उत्तेजक! ट्रिपल एक्स फिल्म थी। शारदा गर्दन नीची किए बैठी रही, फिल्म चल रही थी नज़दीक खिसकते हुए उसने उसे अपनी बाँहों में भर लिया और ढेरों सारे चुंबन उसके गाल पर जड़ दिये और अपना हाथ उसके ब्लाउज में डाल दिया था।

मर्यादा की सारी सीमाएँ वह तोड़ चुका था। शारदा ने किसी तरह अपने आपको उसके पाश्विक-बंधन से मुक्त कराया और तीन-चार झापड़ उसके गाल पर जड़ दिये और घर लौट आयी थी। घर लौटते ही उसने आपने आपको एक कमरे में कैद कर लिया था। अपने आपको कमरे में बंद करने से पहले उसने इतना कहा था कि वह ज़हर खाकर मर जाना पसंद करेगी पर ऐसे लुच्चे-लफंगे के साथ शादी नहीं करेगी। उसने यह भी कहा था कि अगर दुबारा शादी की बात की गई तो वह किसी उॅंची इमारत से कूद कर अपनी इहलीला समाप्त कर देगी।

शारदा की सारी व्यथा-कथा सुलभा ने उनको बाद में बताई थी। पहिले बताती तो शायद वह उसकी दुर्गति अवश्य बना देता। सुलभा ने यह भी सुझाव दिया कि बात पता चलने के तुरंत बाद, उन्हें लड़के के घर जाना चाहिए सारी चीज़ों की मालूमात कर लेनी चाहिए फिर उन्हें आने के लिए कहना चाहिए। सुलभा की बतायी बातों का ख्याल आते ही लगा कि हलक कडुआ हो आया, उन्होंने खांसकर गला साफ किया और ढेरों सारा थूक एक ओर उछाल दिया जबान में कडुआपन अब भी तैर रहा था।

पता नहीं कल आने वाला लड़का कैसा निकले! लड़का ढंग का ही होगा फिर पाटिल रिश्ता लाया है। पाटिल उसका जिगरी दोस्त ही नहीं, सगे भाई से बढ़कर है। वह कोई गलत रिश्ता ला भी कैसे सकता है। फिर शारदा की कही गई बातें याद आते ही उनकी धड़कने बढने लगी थी। "दुबारा शादी की बात की तो वह किसी उॅंची इमारत से कूद कर जान दे देगी" उन्हें ऐसा भी लगने लगा था कि वह जिस जगह बैठे हैं, वह काँपने लगी है। फिर वे अपने आपको समझाईश देने लगे थे। वे शारदा से कहेंगे कि पिछली बातों को एक बुरा सपना समझकर भूल जाए। पाटिल फिर अपना ही है। वह भला गलत रिश्ता लाने से रहा, वह किसी तरह शारदा को मना लेंगे।

उन्हें इस बात का भी ख्याल हो आया कि शिल्पा को थोड़ी देर के लिए ही सही, बाहर भेजना पड़ेगा किसी सहेली के यहाँ अथवा पड़ोसी के घर। कहीं उस लड़के की नज़र शिल्पा पर पड़ गई तो वह उसका हाथ न माँग बैठे। सुनयना रहेगी न घर में। वह सुलभा का हाथ बँटा देगी, लड़का पूछ भी बैठा शिल्पा के बारे में तो कह देंगे, मामा के घर गई है।

विचारों की आँधियाँ उनके साहस व धैर्य की चूलें हिलाने लगी थीं। बस के इंतज़ार में आँखें पथराने सी लगी थीं। वे इस बात को सोचने के लिए मजबूर हो चले थे कि काश एक मरी-टूटी मोटर बाईक ही ख़रीद ली होती तो अब तक इस तरह बैठना नहीं पड़ता। पता नहीं वह भी किस मिट्टी का माधो बना बैठा रहा। रिश्वत अथवा घूसखोरी न लेने की अपने पिता की सीख को वह अपने कलेजे से चिपकाये न रख पाता तो आज यह दुर्दशा न हुई होता।

क्यों बना रहा वह इस घोर कलयुग में राजा हरिश्चन्द्र? क्या मिला राजा हरिश्चन्द्र बनकर? सिवाय फ्रस्टेशन के, कुण्ठा के, एआत्मग्लानी के, एपश्चाताप के। वह भ्रष्टाचार में भले ही आकण्ठ न डूबता, रिश्वत न लेता, कम से कम परसेंटेज मनी पर तो सहमत हो जाता, एक परसेन्ट अथवा आधा ही पर्याप्त होता है। लाखों बनाए जा सकते थे, अरबों-खरबों की योजनाएँ बनती हैं। आज जेब में ढेरों सारा पैसा होता, गाड़ियाँ होतीं, आलीशान बंगले होते। लोग खिंचे चले आते हैं डेज़िग्नेशन देखकर। जब उन्हें हक़ीक़त की कंकरीली ज़मीन पर खड़ा होना पड़ता है तो अपनी भूल पर पछताने लगते हैं। उन्हें समझ में आ चुका होता है कि वह पारसमणी नहीं बल्कि एक मामूली काँच का टुकडा है। जब उन्हें यह भी पता चलता है कि बेचारा कलजुगी हरिश्चन्द्र है। तो वे दबी आवाज़ में हॅंसने लगते हैं। दूर छिटकने लगते हैं।

बंगले की कल्पना मात्र से उसे अपने टूटे-फूटे ढाई कमरों वाले मकान की याद हो आयी। वह जैसा भी हो अपना मकान तो है। उस मकान में इतना सुख तो अवश्य समाया हुआ है जो पाँच लोगों के लिए पर्यात है। किसी एक कमरे की सफाई करनी पड़ेगी। उसमें रखा कबाड़खाना, किसी दूसरे कमरे में ठूँसकर भरना होगा भले ही अस्थायी रूप में वह हो, ड्राइंगरूम में तो उसे बदलना ही होगा, जहाँ बैठकर कल बातें की जानी हैं।

तरह-तरह के ख़्याल दिल और दिमाग़ को मथ जाते, वे कुछ और सोच पाते "बेस्ट" की एक बस सामने खड़ी थी। भीड़ भी नहीं थी उसमें। न ही चढ़ने-उतरने वालों का रेला था। किसी तरह भारी भरकम कार्टन उठाकर वे बस में चढ़ पाने में सफल हो सके थे। बस से उतरने के साथ ही लगने लगा था कि शरीर जड़ हो आया है। पोर-पोर में ऐंठन व दर्द रेंगने लगा है। सुबह से पहले वे क्या कुछ कर पाएँगे, इसमें संदेह होने लगा था। कार्टन उठाये किसी तरह लड़खड़ाते कदमों से वे घर की ओर बढ़ चले थे।

चूं-चां-चर्र की आवाज़ के साथ गेट खुला। अंदर प्रवेश करते ही ठहाकों के मिश्रित स्वर कानों से आकर टकराने लगे। वे ठिठककर वहीं खड़े रह गये, मानो पैर में ब्रेक लग आए हों। ठहाकों के मिश्रित स्वरों में उनकी पत्नी सुलभा की हॅंसी की गूँज भी वे सुन पा रहे थे। वे सुलभा की हॅंसी के स्वर को पहचानते थे। एक मुद्दत बाद वे उसकी हॅंसी सुन पा रहे थे दरवाज़े की चौखट पर, बडा सा कार्टन हाथ में लटकाये, वे विस्फारित नज़रों से अंदर देखने लगे थे। हॅंसने वालों में पत्नी और बच्चियों के अलावा एक अजनबी को हॅंसता देख उन्हें अच्छा नहीं लगा। "निर्लज्जता की भी हद होती है, एक अजनबी के साथ ठहाके लगाने का मतलब", वे सोचने लगे थे। सुलभा ने पलटकर देखा पति दरवाज़े पर खड़े हैं। पति के पदचापों को वह भलीभाँति पहचानती थी ,बरसों से जो सुनती आ रही थी। उन्हें तो अब तक अन्दर आ जाना चाहिए था। समझ गई अंदर न आने का कारण। सहज हास्य बिखेरते हुए वह उसके पास तक चली आयी थ॥ उसके हाथ में मिठाई का डिब्बा था। मुँह में मिठाई ठूँसते हुए, हॅंसकर कहने लगी "बधाई हो जोशी जी।" पत्नी के मुख से जोशीजी सुनकर वे हैरान से होने लगे थे। अब तक तो वह ऐ जी! अथवा शारदा के बाबा कहकर पुकारती आयी है। बाबा अचानक जोशी जी कैसे हो गया? विस्फारित नज़रों से वह कभी सुलभा का चेहरा देखते, कभी बच्चियों का, तो कभी अजनबी का। कई रंगों के शेड उनके चेहरे पर बनते बिगड़ते रहे।

पल भर को वे, ये भी भूल गये थे कि हाथ में वज़नी कार्टन अब भी लटक रहा है। कार्टन को नीचे रखते हुए अपनी झेंप मिटाने का सायास प्रयास करने लगे थे। हाथ का बोझ तो कम हुआ, पर दिल पर बोझ अब भी लदा हुआ था - कौन है यह अजनबी? पिता को आया देख शारदा और युवक ने आगे बढकर आदर के साथ उनके चरण स्पर्श किए। शारदा बस इतना ही कह पायी - "बाबा! मैंने और शरद ने गंधर्व विवाह रचा लिया है। शरद मेरे ही स्कूल में शिक्षक है। हमें आशीर्वाद दीजिए" बस वह केवल इतना ही बोल पायी थी। उसके चेहरे पर सूर्योदय की सी लाली छाने लगी थी।

सोचने समझने को अब बाकी रह भी क्या गया था? जोशी जी की कोर भीग उठी थी। जोशीजी का खोया हुआ जोश फिर लौट आया था। उन्होंने दोनों को उठाया और गले से लगा लिया।

गले लगाते हुए जोशी जी को लगा कि उनके भीतर ख़ुशियों के असंख्य दीप झिलमिला उठे हैं।

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