ख़ुदनुमाई के कभी आलम नहीं थे

01-09-2020

ख़ुदनुमाई के कभी आलम नहीं थे

कु. सुरेश सांगवान 'सरू’ (अंक: 163, सितम्बर प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

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ख़ुदनुमाई के कभी आलम नहीं थे
हम ज़माने में किसी से कम नहीं थे
 
रह गई थी ज़िंदगी तस्वीर बनकर
आप कहते हैं कि हम क़ायम नहीं थे
 
ज़िंदगी से बस रहेगी ये शिक़ायत
हमसफ़र थे तुम कभी हमदम नहीं थे
 
ख़्वाब था कोई न वादा ही किसी से
ये नहीं कि सिलसिले बाहम नहीं थे
 
उसने रस्मन ही पुकारा था पता है
बोल ही जज़्बात से मुदग़म नहीं थे
 
उम्र भर पूरी न हो पाई ज़रूरत
मैं जहाँ थी शौक़ के आलम नहीं थे
 
आ गया था फर्क़ तेरी ही नज़र में
दीप मेरे प्यार के मद्धम नहीं थे
 
ठीक हो जाते थे मेरे ज़ख्म ख़ुद ही
ज़िंदगी के दर्द जब पैहम नहीं थे
 
दर्द दिल के शौक़ से पी तो गए हम
वो शरारे थे कभी शबनम नहीं थे

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