खिड़की
धर्मेन्द्र सिंह ’धर्मा’सुबह को जब
खिड़की से झाँकता हूँ,
रहता है इंतज़ार
तुझे देखने को...
वो गली की
चहल पहल भूल जाता हूँ,
तेरी ख़ूबसूरती निहारने को...
वो सूरज की
सुनहरी किरणें जब
तेरे चेहरे पर पड़ती हैं,
तुम अपनी
आधी आँखें बंद करके
नाज़ुक सा हाथ
अपने मस्तक पर रखती हो तो,
मजबूर हो जाता हूँ मैं
ख़ुद को सँभालने को....
देखता हूँ जब
तेरी झील सी गहरी
आँखों को,
तो इनमें डूबने को
दिल करता है
जी चाहता है कि
इनमें डूब जाऊँ तो बस डूब ही जाऊँ,
मुझे नहीं चाहिए कोई
वक़्त सोचने विचारने को....