खेमा

दीपक शर्मा (अंक: 152, मार्च द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

बाबा के संग पहली बार क़िस्सा खड़ा तो किया था मैंने उन्नीस सौ पैंसठ में मगर उसकी तीक्ष्णता आज भी मेरे अन्दर हाथ-पैर मारती है और लंबे डग भर कर मैं समय लाँघ जाता हूँ... लाँघ रहा हूँ...

“कलाई और कंधे वाली बात याद है न?” हमारे पुराने घर की खाने की कुर्सी पर बाबा बैठे हैं। अपनी दाहिनी कुहनी मेज़ पर टिकाये। पेट मेज़ के निकट चिपकाये। दाँयें कुल्हे और पैर को आगे बढ़ाये। मेरे संग बाँह की कुश्ती करने को आतुर।

“याद है न? तुम्हारी और मेरी कलाई का एक-दूसरे से संपर्क छूटना नहीं चाहिये। तुम्हारे कंधे और तुम्हारी समूची देह तुम्हारी कुश्ती वाली बाँह के साथ-साथ उसी तरफ घूमनी चाहिये, जिस तरफ़ तुम उसे ले जाना चाहते हो...।” 

अपनी बगल वाली कुर्सी थपथपाते हुए वह मेरे चेहरे पर अपनी आँखें ला टिकाते हैं। शायद जानना चाहते हैं मुझे मेरे सहज और स्नेही रूप में लौटते हुए इन पिछले दो घंटों में किये गए उनके प्रयास सफल रहे हैं या नहीं।

दो घंटे पहले फूफाजी ने हमारा वह खेमा उखाड़ फेंका था जिसके अंदर हम बाप-बेटा अभी तक सुरक्षित बैठे रहे थे। बाबा की टकटकी तभी से जमा हो रहे मेरे ग़ुस्से के अंबार को पट से बाहर ले आती है और मैं उनकी बगल वाली कुर्सी पर बैठने की बजाय उसे ज़मीन पर पटककर चिल्ला पड़ता हूँ- “आपके यह खेल-तमाशे आपका मन बहला सकते हैं, मेरा नहीं...।”

और मैं अपने क्वार्टर के सोने वाले कमरे में बिछे बिस्तर पर जा लेटता हूँ। औंधे मुँह।

पाँच साल पहले तपेदिक से हुई माँ की मृत्यु के बाद ही से क्वार्टर में अब केवल बाबा और मैं ही रहते हैं। रसोईदारी उनके ज़िम्मे है और सफ़ाई मेरे। दो कमरों का यह क्वार्टर उसी स्कूल के परिसर में है जहाँ बाबा गेम्स टीचर हैं और मैं छठी जमात का विद्यार्थी। “सुबह वाली बात पर तुम्हें अपने उस फूफाजी से बायकाट करना चाहिए या मुझसे...?” बाबा मेरे पास चले आये हैं।

बाबा के लिए ‘बायकाट’ शब्द बहुत अर्थ रखता है। स्वतंत्रता संग्राम के समय में वह बड़े हुए थे और संग्राम से इतने अधिक प्रभावित रहे थे, कि उन दिनों जब विदेशी चीज़ों के ‘बायकाट’ के अंतर्गत हर गली, हर नुक्कड़ तथा हर बाज़ार में विदेशी कपड़े जलाए जा रहे थे, तो उन्होंने भी विदेशी अपने सारे कपड़े जला डाले थे तथा स्वतंत्रता मिलने तक केवल खादी का ही उपयोग करते रहे थे, किन्तु बायकाट शब्द ज़रूर उनके साथ बराबर बना रहा था और उन्हें किसी से भी जब अपना रोष प्रकट करना होता, वह यही कहते- “मैं तुम्हारा बायकाट करता हूँ।” स्कूल में मैच के दौरान यदि किसी लड़के का फ़ाउल प्ले देखते, तो उसे तत्काल मैच से ही नहीं, उस मैच की टीम से ही हमेशा के लिए बायकाट कर देते।

“आपके बायकाट करने से फूफा जी को कोई अंतर नहीं पड़ने वाला…” -मैं फिर टनटनाता हूँ, “बल्कि मान जाइये आज आपने उनका बायकाट नहीं किया है, बायकाट उन्होंने आपका किया है।”

उस दिन बुआ की ननद की शादी थी और हम दोनों जैसे ही बारात के आने के समय से कुछ देर पहले शादी के मंडप स्थल पर पहुँचे थे। फूफाजी बड़बड़ाये थे- “लो, गेम्स मास्टर भी फ़ैमली समेत आन पधारे हैं…” तिरस्कारक अपने भाव को मौजी अपने स्वर शैली में ढालते हुए।

बुआ की शादी सन छियालीस के लाहौर में हुई थी जहाँ मेरे दादा के पास मर्फी रेडियो की अपनी दुकान थी तथा उस समय उनकी आर्थिक स्थिति फूफाजी के अमृतसर स्थित बर्फ़ के कारखाने वाले परिवार से किसी भी प्रकार कम नहीं रही थी, मगर बंटवारे के समय हुए दंगे सब लील ले गए थे, जान-माल समेत। बाबा को छोड़कर, जो उस समय अमृतसर के खालसा कॉलेज में बी.ए. के विद्यार्थी थे और वहीं छात्रावास में रहते थे।

“मैं आप लोग ही की राह देख रही थी,” बुआ तत्काल हमारी ओर बढ़ आयी थी।

“हमें तो आना ही था,” बाबा बोले थे।

जभी फूफाजी हमारे पास पहुँच लिए थे और बुआ को एक कोने में ले जाकर कहे थे, “कम अज़ कम आज तो तुम्हारे इन गेम्स मास्टर को टाई-सूट में आना चाहिए था, इस तरह के फटीचर कोट-पतलून में नहीं। तिस पर जनाब टाई की जगह मफलर लगाये हैं। अरे भाई उसके पास ढंग का टाई-सूट नहीं था, तो तुम्हीं उसे न्यौता देते समय मेरा कोई पुराना टाई सूट पकड़ा आती...।”

“मगर आपका पुराना सूट भाई पहन लेता क्या...?” बुआ ने प्रतिवाद किया था।

“तो मैं ही उसे नया सूट सिलवा देता। अब उधर लोग-बाग इन्हें देखेंगे, तो यही बोलेंगे कि दुल्हन के रिश्तेदार ऐसे छोटे आदमी हैं,” फूफाजी का जवाब आया था।

तभी बाबा उनके पास पहुँच लिए थे और अपनी कोट की जेब का लिफ़ाफ़ा बुआ की ओर बढ़ा दिए थे, “जीजी, हम दोनों आपको यह शगुन पकड़ाने आये थे। हमारे स्कूल में आज हॉकी का मैच है। हम यहाँ और रुक नहीं पाएँगे...”

“मगर भाई…,” बुआ की आँखों में आँसू छलक आये थे।

“मैं जानता हूँ जीजी…,” बाबा का गला भी भर आया था, “आपकी जरब-मनफी रुपये-पैसों तक सीमित नहीं है। आपसी रिश्ते आप उस हिसाब से ऊपर रखती हैं...”

“क्या है इस लिफ़ाफ़े में?” फूफाजी ने बाबा के हाथ से वह लिफ़ाफ़ा झपट लिया था।

“जीजी, आप देख लेना,” बाबा ने फूफाजी की ओर अपनी पीठ फेर ली थी और मेरा हाथ पकड़कर शादी के मंडप से बाहर निकल आये थे।

उस लिफ़ाफ़े को तैयार करने में बाबा को पूरे दो दिन लगे थे। सौ-सौ के ग्यारह नये नोट इकट्ठे करने के वास्ते उन्हें अपने बैंक के तीन चक्कर काटने पड़े थे। उन दिनों उनका वेतन कुल जमा दो सौ सत्तर रूपया माहवार था और ग्यारह सौ रुपया उनके लिए बड़ी रक़म रही थी।

घर लौटते समय बाबा ने दो बार रिक्शा लिया था घर के लिए दूसरी बार।

पहली से उस जलपान गृह तक गए थे, जहाँ मेरे मनपसंद भोजन की थाली मिलती थी और जिसके बाहर आइसक्रीम कोन।

उनके साथ मैंने भी भरपेट खाया था और उन्हें अपने लिये कोन भी ख़रीद लेने दिया था।

बेशक पूरी इस अवधि में शुरू से लेकर अंत तक हमारे बीच विछिन्न-सी एक चुप्पी घिरी रही थी, जिसे तोड़ने हेतु बाबा अब घर लौटते ही अपनी इस कुश्तीबाजी को परिदृश्य में खिसका लाना चाहते थे। बाँह की कुश्ती में वह पारंगत थे और प्रादेशिक स्तर पर उसमें कई पुरस्कार भी जीत चुके थे।

“चलो बिस्तर से उठो। उधर बैठक में चलते हैं। वहाँ बैठकर बात करेंगे,” बाबा मेरे बालों में उँगलियाँ फिरा रहे हैं।

“बात क्या करेंगे,” बाबा का हाथ मैं अपने बालों से अलग कर चिटक देता हूँ, “अपने को ऊँचा सिद्ध करने की कोशिश करेंगे और फूफाजी को नीचा। जबकि पूरी दुनिया उन्हें आप से ऊँचा दरजा देती है। आप मान क्यों नहीं लेते, घर से बाहर आपको कोई बड़ा आदमी नहीं समझता। सब छोटा समझते हैं। बहुत छोटा समझते हैं।”

“जब तक मैं अपने को छोटा नहीं समझता, मैं बड़ा ही बना रहूँगा.” बाबा की आवाज़ लरजी है। उसमें वह कंपन उतर आया है जो वह अपनी बात मज़बूती से कहने से पहले अपने अंदर महसूस करते हैं।

“किसके लिए बड़े बने रहेंगे? उन छोटे बच्चों के लिए जिन्हें आप हॉकी सिखाते हैं? फुटबाल खेलाते हैं? ऊँची छलाँगे लगवाते हैं? जिनकी नज़र में शरीर की फुर्ती ही सबकुछ है?” मैं चिल्लाता हूँ।

“तुम अभी ग़ुस्से में हो,” बाबा मेरा कंधा थपथपाते हैं, “तुम से बाद में बात करता हूँ। सब समझाता हूँ...”

“मुझे आपसे कुछ नहीं सुनना-समझना,” अपना चेहरा मैं उनसे विपरीत दिशा में घुमा ले जाता हूँ, उनकी ओर अपनी पीठ फेरता हुआ। लगभग उसी बेरुख़ी के साथ जो उन्होंने फूफाजी की ओर पीठ फेरते समय उस दिन बरती थी।

बाबा अब कुछ नहीं कहते। चुप्पी साधकर बैठक की ओर बढ़ जाते हैं।

मेरे अंदर का बगूला और उग्र हो रहा है। मेरे थमाये नहीं थम रहा है।

बाबा समझ क्यों नहीं रहे, स्कूल की उनकी इस दुनिया के बाहर एक और दुनिया भी है जहाँ उनका कोई महत्व नहीं, कोई मोल नहीं।

बिस्तर पर बने रहना मेरे लिए असंभव हो आया है। लपककर मैं भी बैठक की ओर चल देता हूँ।

बाबा वहाँ की आरामकुर्सियों के पीछे वाले कोने में खड़े अपने पौमेल हॉर्स पर सवार हैं। यह उनका वह वरज़िशी घोड़ा है जिसके मेज़ जैसे ढाँचे की दोनों टाँगें फ़र्श से चिपकी हैं और जिसके ऊपरी ताल पर दो हत्थे जड़े हैं।

इस समय बाबा उन हत्थों के सहारे अपने पैर जोड़कर गोलाई में चक्कर काट रहे हैं। दाँयें से बाँयें। बाँयें से दाँयें।

असमंजस एवं तनाव के अपने क्षण वह इसी पौमेल हॉर्स पर बिताया करते हैं।

मुझे सामने पाकर वह तत्काल उससे नीचे उतर लेते हैं।

“मैं जानता था, तुम मेरे पास आये बिना नहीं रह सकते। सारी दुनिया मुझसे बायकाट कर दे, मुझे कोई परवाह नहीं, मगर तुम बायकाट करोगे, तो मेरा हौसला टूट जाएगा। हिम्मत चुक जायेगी…”

और वह रोने लगते हैं। उसी वेग से जिस वेग से वह माँ की मृत्यु पर रोये थे... ‘कैसे हमसे बायकाट करके चली गयी!’

“मैंने आपका कोई बायकाट नहीं किया,” बैठक के बाहर बने उस बरामदे में मैं चला आता हूँ, जहाँ मेरी साइकिल खड़ी है। मैं उसे लेता हूँ और स्कूल का परिसर पारकर आता हूँ। स्कूल के गेट के बाहर वाली उस दुनिया में मैं पहली बार बाबा के बिना निकला हूँ। तिस पर बिना उन्हें बताये मैं कहाँ जा रहा हूँ?
 

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