ख़त्म होंगे तालिबान एक दिन

01-09-2021

ख़त्म होंगे तालिबान एक दिन

अखतर अली (अंक: 188, सितम्बर प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

मन में है विश्वास 
पूरा है विश्वास 
ख़त्म होगे तालिबान एक दिन।

इन दिनों हम इतना तालिबान तालिबान कर रहे हैं कि ज़बान तालू से रगड़ा-रगड़ा कर ज़ख़्मी हो गई है। व्यंग्य, कविता, संपादकीय, स्तंभ, निबंध जहाँ नज़र डालो वहाँ तालिबान। विषय के अभाव में जो लेखक ख़ाली बैठे थे तालिबान ने उन्हें काम से लगा दिया। अब तो वह लेख लेख माना ही नहीं जाता जिसमें तालिबान न हो। लिखने के लिये आग हमेशा ज़रूरी होती है। इसी आग में लेख तपकर निखरता है। तालिबान की आग में सिका कर अख़बार निकल रहे हैं। तालिबान, यह विषय लेखन का फ़ैशन हो गया है। जिन्हें तालिबान की अनीतियों का ज़रा भी अध्ययन नहीं है वह भी तालिबान पर लिख रहे है।

जब ख़राब आदमी दौड़ाते हैं और अच्छे आदमी भागते हैं तब तालिबान आता है और जब अच्छे आदमी दौड़ाते हैं और ख़राब आदमी भागते हैं तब लोकतंत्र आता है।

तालिबान पर लिखना बहुत आसान है। यह कोई क़ाबिल, विद्धान लोगों का संगठन तो है नहीं कि इनकी उपलब्धियों का आकलन किया जाये फिर लिखा जाये। यह तो हिंसक, अज्ञानियों का गैंग है, इनकी जैसी निंदा करनी है कर सकते हैं क्योकि हर निंदा इनकी करतूतों पर फ़िट बैठती है। इनके कारतूस और करतूत में कोई अंतर नहीं है।

सब देशों के पास बंदूकें होती हैं बस वहाँ बन्दूकों के पास देश है।

लोग डिक्शनरी में तालिब और तालिबान का अर्थ खोज रहे हैं। भाई मेरे, अब तालिबान कोई शब्द नहीं रहा वह दृश्य हो गया है। अब वहाँ बस अनुभूति है अभिव्यक्ति नहीं है, युद्ध वालों को बुद्धि वालों का समर्थन भी मिल रहा है। इससे भयानक भला और क्या दृश्य हो सकता है?

तालिबान की कोई अहमियत नहीं है क्योंकि ये चार दिन की चाँदनी है। ये लोग पतंग की तरह हैं कटेंगे या फटेंगे। जाते-जाते दुनिया को बता जायेगे कि बंदूक के दम पर सरकार बनाई जा सकती है, चलाई नहीं जा सकती। अब काबुल में क़ाबिल नहीं हैं। देखना आसमान का ख़्वाब देखने वालों को ज़मीन पर भी जगह नहीं मिलेगी। अभी वहाँ दाढ़ी और बंदूक दिख रही है इनके  मिश्रण से फिर वहाँ हर सिम्त बस धुआँ ही धुआँ दिखेगा। ज़हन में रौशनी न हो तो ज़मीन पर भी उजाला नहीं किया जा सकता। किसी का घर और दिल जला देना आसान है बात तो तब है जब किसी का चूल्हा जला कर दिखाओ।

तालिबानी उफ़गानिस्तान में हमेशा हाथ में बंदूक लिये घूमते हैं; उन्हें डर है कि सामने से कोई क़लम लिए न आ जाये। कोई पोस्टर न लेकर खड़ा हो जाये। कोई ज्ञापन न देने लगे। कोई मुस्कुरा कर न देखे। हिंसक आदमी प्रेम से और अशिक्षित लिखे हुए से बहुत डरता है।

उफ़गानिस्तान में अगर बच्चों को पढ़ाया गया तो गणित कैसे पढ़ाया जायेगा?

अगर तुम्हारे अब्बा एक घंटे में दस आदमी का क़त्ल करते हैं तो तीन घंटे में कितने आदमी का क़त्ल करेंगे?

छात्र कहेगा – जब मेरे अब्बा क़त्ल करते है तो बस क़त्ल करते हैं, गिनते नहीं हैं। अब्बा कहते हैं गिनने में क्यों वक़्त बर्बाद करें इतने देर में तो दो आदमी को एक्स्ट्रा मारा जा सकता है। 

अब उफ़गानिस्तान में दहेज़ इस प्रकार दिया जाएगा –

ए.के. – 47  25 नग 
कारतूस  –  5000 
आर.डी.एक्स. – 500 किलो 
हैंड बम्ब – 100 नग 

आर्थिक स्थति के अनुसार दहेज़ के सामान की संख्या घटाई-बढ़ाई भी जा सकती है। सक्षम ससुर अपने दामाद को फ़ाईटर प्लेन भी दे दे तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

अब उफ़गानिस्तान को ’ब’ शब्द को अपना राष्ट्रीय शब्द घोषित कर देना चाहिए क्योंकि तालिबानी व्यवस्था में उनके प्रिय साज़ो-सामान के नाम ’ब’ से ही शुरू होते हैं जैसे – बम, बंदूक, बारूद, बर्बादी, बेरोज़गारी, बददिमाग़ी,  बदहवासी, बदइन्तेज़ामी, बहस, बकवास।

अब वहाँ गीत ऐसे गाये जायेंगे –

मेरे रश्के कमर किया ऐसा क़हर 
बाह धड़ से कटी तो मज़ा आ गया 
ख़ून बहने लगा – दर्द उठने लगा 
साँस रुकने लगी तो मज़ा आ गया। 

इन्होंने औरतों पर बहुत पाबंदी लगाईं है। औरतों की क्षमता का सही आकलन कर लिया है। अहसास हो गया है कि जिस दिन औरत मुखर हो गई सँभाल नहीं सकेंगे। देखना बहुत जल्द  गली-गली और  घर-घर से जनगीत गाते हुई औरतों का सैलाब निकलेगा जिसके तेज़ धारे में ज़ुल्म बह जायेगा।

1 टिप्पणियाँ

  • 3 Sep, 2021 11:24 AM

    वाह साहब ‘ बन्दूकों के पास देश है ‘ मज़ा आ गया । बहुत रोचक । बधाई ।

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