खाट पर पड़ी लड़की

01-05-2020

खाट पर पड़ी लड़की

रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ (अंक: 155, मई प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

माँ, मैं बीमार हूँ
बीमार ही होती हैं लड़कियाँ
मैं नहीं रहूँगी;
लेकिन, फिर भी जीवित रहूँगी-
गुलाबों की क्यारी में
तुलसी-चौरे में ।


इन गुलाबों की क़लम 
बरसों पहले  लगाई थी मैंने,
कलियाँ, अपनी आँखों के पपोटे
खोलने को व्याकुल हैं,
ये कल फूल बनकर मुस्कराएँगी।
कल मैं न रहूँगी;
पर मेरी मुस्कान
तुम्हें पँखड़ियों में दुबकी मिलेगी


तुलसी-चौरे को मैं लीपती थी
तुम साँझ को दिया जलाती थीं
सवेरे कच्चे दूध से नहलाती थीं


जब तुम साँझ को
तुलसी-चौरे पर दिया जलाओगी
मेरी सूरत तुम्हारी आँखों में
तैर जाएगी
मद्धिम बाती-सा जलता हुआ
मेरा ज़र्द  शरीर
भोर तक रोशनी करता रहेगा
इस तरह मैं तुलसी-चौरे में छुपकर
मुस्कुराती रहूँगी
तेरी गीली आँखें पोंछ दूँगी
माँ, तुम रोना नहीं!


लड़कियाँ तो बीमार होती ही रहती हैं,
लड़कियाँ तो मरती ही रहती हैं,
अपने लगाए पौधे
छोड़ जाती हैं-याद के लिए बस
पौधे छोड़ जाती हैं लड़कियाँ!

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता
साहित्यिक आलेख
बाल साहित्य कविता
गीत-नवगीत
लघुकथा
सामाजिक आलेख
हास्य-व्यंग्य कविता
पुस्तक समीक्षा
बाल साहित्य कहानी
कविता-मुक्तक
दोहे
कविता-माहिया
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में