ख़त
अनिल खन्नाबरसों पहले
बिछुड़ते वक़्त
तुमने जो ख़त
मुझे दिया था
उसमे अब
झुरीयाँ सी
पड़ने लगी हैं,
सियाही फीकी
पड़ने लगी है।
अश्कों में
डूबते-तैरते अल्फ़ाज़
अब बेजान से
लगने लगे हैं ,
अपनी कशिश
खोने लगे हैं ।
ख़त का रंग
पीला पड़ने लगा है
कहीं-कहीं से
छितरने लगा है,
सच कहुँ तो
मुझ जैसा
लगने लगा है।
बंद अलमारी मे रखी
कमीज़ों की तह मे
क़ैद हो कर
बची हुई ज़िन्दगी
जी रहा है ।
मेरी तरह ।