खंडहर हो चुके अपने अतीत के पिछवाड़े से
नवल किशोर कुमारखंडहर हो चुके अपने अतीत के पिछवाड़े से,
श्मशान से अधजली लाशों के रोने की आवाज़ आती है,
मेरा मन उनकी करुण पुकार को,
शब्दों की मीठी चासनी में लपेट,
भावनाओं की मर्यादा को ताड़-ताड़ कर,
नये काव्य का सृजन करने लगता है,
कुछ अल्फ़ाज़ मेरी लेखनी की राह रोक,
मुझे लोकतंत्र का मतलब समझाने का प्रयास करते हैं,
मगर मैं उन्हें नवभाषावाद से अवगत करा,
उनका समर्थन लेता रहता हूँ।
कभी मेरा मन शब्दमाला में,
अल्फ़ाज़ों के सुनहरे मोती पीरो,
अतीत की उन महान आत्माओं को,
श्रद्धासुमन अर्पित करना चाहता है,
जिन्होंने अपने शब्दों को,
बिना किसी खड्ग या हथियार के,
अपने नियंत्रण में रख,
अपनी भावनाओं को निज लहू का छांक1 दे,
जन्म-जन्मांतर तक अक्षुण्ण रखा,
ताकि हम जैसे शब्दों के खिलाड़ी,
उनके वारिस होने का दावा कर,
उनकी गाढ़ी कमाई का पाई-पाई,
छद्म समाजवाद की थोथी दलील,
खरीद सकें और,
अर्जित कर सकें,
चौराहों पर बिकने वाले,
चमचागिरी के स्वर्ण तमगे।
छांक शब्द आँचलिक शब्द है। इसका अर्थ होता है-देवताओं को अर्पित किया जाने वाला बलि किये गये जानवरों के रक्त। दरअसल यह शब्द बिहार और उत्तरप्रदेश के पूर्वी जिलों मे बहुत लोकप्रिय है और इस कविता में मुझे सबसे बेहतर लगा - नवल किशोर कुमार
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