कविता में भाषा और शब्द के संदर्भ : ’हमारी हिंदी’ - रघुवीर सहाय

15-08-2021

कविता में भाषा और शब्द के संदर्भ : ’हमारी हिंदी’ - रघुवीर सहाय

विजय नगरकर (अंक: 187, अगस्त द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

’हमारी हिन्दी’

रघुवीर सहाय (1957)


हमारी हिंदी एक दुहाजू की नई बीबी है
बहुत बोलने वाली बहुत खानेवाली बहुत सोनेवाली

गहने गढ़ाते जाओ
सर पर चढ़ाते जाओ

वह मुटाती जाए
पसीने से गन्धाती जाए घर का माल मैके पहुँचाती जाए

पड़ोसिनों से जले
कचरा फेंकने को लेकर लड़े

घर से तो ख़ैर निकलने का सवाल ही नहीं उठता
औरतों को जो चाहिए घर ही में है

एक महाभारत है एक रामायण है तुलसीदास की भी राधेश्याम की भी
एक नागिन की स्टोरी बमय गाने
और एक खारी बावली में छपा कोकशास्त्र
एक खूसट महरिन है परपंच के लिए
एक अधेड़ खसम है जिसके प्राण अकच्छ किये जा सकें
एक गुचकुलिया-सा आँगन कई कमरे कुठरिया एक के अंदर एक
बिस्तरों पर चीकट तकिए कुरसियों पर गौंजे हुए उतारे कपड़े
फ़र्श पर ढंनगते गिलास
खूंटियों पर कुचैली चादरें जो कुएँ पर ले जाकर फींची जाएँगी

घर में सबकुछ है जो औरतों को चाहिए
सीलन भी और अंदर की कोठरी में पाँच सेर सोना भी
और संतान भी जिसका जिगर बढ गया है
जिसे वह मासिक पत्रिकाओं पर हगाया करती है
और ज़मीन भी जिस पर हिंदी भवन बनेगा

कहनेवाले चाहे कुछ कहें
हमारी हिंदी सुहागिन है सती है खुश है
उसकी साध यही है कि खसम से पहले मरे
और तो सब ठीक है पर पहले खसम उससे बचे
तब तो वह अपनी साध पूरी करे ।

♦♦♦

’हमारी हिंदी’ पढ़ने पर प्रथम दृष्टि में हिन्दी का अपमान, हत्या जैसी भावना तत्काल उभरकर आती है। इस कविता की रचना आज़ादी के बाद 1957 में की गई थी। आज़ादी के बाद संविधान सभा में राष्ट्रभाषा और राजभाषा को लेकर संसद में गहन विचार मंथन हुआ था। भारत जैसे बहुभाषिक देश में किसी एक भाषा को राष्ट्रभाषा का दर्जा देना आसान नहीं था। भाषा को लेकर सबके अपने तर्क और विचारधारा थी। इन सभी का सुवर्ण-मध्य मार्ग यह निकाला गया कि हिंदी देश की "राजभाषा" होगी। हिंदी के विकास के लिए संविधान में कुछ महत्वपूर्ण प्रावधान किए गए।

इन सारी बातों को ध्यान में रखते हुए व्यावाहरिक धरातल पर हिंदी की स्थिति तब कुछ अलग थी। सरकारी हिंदी और आम आदमी की भाषा में फ़र्क़ था। 

रघुवीर सहाय जी की ’हमारी हिंदी’ कविता की पृष्ठभूमि को जानना अत्यंत महत्वपूर्ण है। उनको हिंदी भाषा का अपराधी मानना भूल होगी। किसी भी घटना की संपूर्ण जाँच-पड़ताल होनी चाहिए।

आप सभी जानते हैं कि हिंदी कविता के सशक्त हस्ताक्षर रघुवीर सहाय (९ दिसम्बर १९२९ - ३० दिसम्बर १९९०) हिन्दी के साहित्यकार व पत्रकार थे। कविता संग्रह 'लोग भूल गए हैं ' के लिए  उन्हें 1984 में साहित्य अकादमी पुरस्कार  प्राप्त हुआ था। 1957 तक वे आकाशवाणी के समाचार विभाग में उपसंपादक रहे। इसके बाद वे 'नवभारत टाइम्स' में विशेष संवाददाता रहे। 1969 से 1982 तक वे 'दिनमान' के प्रधान संपादक रहे। उन्होंने 1982 से 1990 तक स्वतंत्र लेखन किया।

उनका यह परिचय इसलिए ज़रूरी है कि हम  उनकी कविताओं की पृष्ठभूमि को समझ सकें।  पत्रकारिता के  उनके अनुभव और सामाजिक प्रश्नों के बारे में उनका गहन चिंतन कविताओं में प्रकट हो  रहा  है।

"हमारी हिंदी एक दुहाजू की नई बीबी है"

इस प्रथम पंक्ति में रघुवीर सहाय जी ने यह स्पष्ट किया है कि हिंदी को राजभाषा के रूप में स्वीकार करके स्वतंत्रता के बाद दुहाजू अर्थात्‌ स्वतंत्र भारत की राज सत्ता ने हिंदी को नयी बीवी का दर्जा दिया है। रघुवीर सहाय जी स्वयं हिंदी के बड़े कवि पत्रकार रहे हैं। जिन्होंने हिंदी साहित्य की सेवा की है। 

व्यंग्य जब तीव्र हो जाता है, तब उसकी मारक शक्ति बढ़ती है। मोहभंग की स्थिति में कवि के पास व्यंग्य का सहारा रहता है। कवि इसी व्यंग्य को लेकर व्यवस्था के विरोध में अपना स्वर तीव्र करता है।   संविधान में हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया गया है ।  यह जानना अधिक महत्वपूर्ण है कि अनुच्छेद 351. हिंदी भाषा के विकास के लिए निदेश–

“संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिंदी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे जिससे वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिंदुस्थानी में और आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं में प्रयुक्त रूप, शैली और पदों को आत्मसात करते हुए और जहाँ आवश्यक या वांछनीय हो वहाँ उसके शब्द-भंडार के लिए मुख्यतः संस्कृत से और गौणतः अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करे।”

इस आदर्श नियम के बावजूद आम जनता के संवाद और संचार की भाषा होने में वह अब तक असफल रही है। राजसत्ता की भाषा अभी तक क्लिष्ट/कठिन और आम आदमी से दूर रही है। अन्य भाषाओं (पड़ोसन) के प्रति हिंदी की भावना को लेकर कवि ने कहा है कि –

 "बहुत बोलने वाली बहुत खानेवाली बहुत सोनेवाली"

इस पंक्ति में कवि ने  सरकारी कार्यालयों की दिखावटी, महँगी और निद्रित भाषा  की तुलना की है।  कवि ने  व्यंग्य शैली में चकित करने वाली प्रतिमान प्रस्तुत किए हैं।

 ’एक महाभारत है एक रामायण है"

इस पंक्ति द्वारा कवि ने हिंदी साहित्य के महान रचनाओं का उल्लेख करते हुए यह भी स्पष्ट किया है कि वर्तमान हिंदी साहित्य का स्तर गिरता जा रहा है। 

"एक खारी बावली में छपा कोकशास्त्र"  की प्रतिमान के सहारे उन्होंने भाषा साहित्य के बाज़ारू अभिरुचि रहित स्थिति की ओर संकेत किया है। अभिजात साहित्य की तुलना में सस्ता, बाज़ारू, और निकृष्ट साहित्य का प्रचलन बढ़ गया है। जब तक रोज़गार, व्यवसाय, शिक्षा माध्यम, क़ानून, राजसत्ता के उत्तुंग महलों में हिंदी विराजमान नहीं होगी तब तक उसके विकास की बातें निरर्थक हैं।

दुहाजू बीवी के घर का वर्णन अतुलनीय है। भाषा परिवार के टूटते संबंध, अन्य भाषाओं के साथ सौहार्द के अभाव को व्यक्त करते हुए कवि ने 

"बिस्तरों पर चीकट तकिए कुरसियों पर गौंजे हुए उतारे कपड़े"
"फ़र्श पर ढंनगते गिलास
खूंटियों पर कुचैली चादरें"

 आदि प्रतिमान प्रदान किए हैं। हिंदी की स्थिति का सही और वास्तविक स्थिति काआकलन किया है।

 "सीलन भी और अंदर की कोठरी में पाँच सेर सोना भी"

भाषा विकास की उदासीनता और महज़ उत्सव और मंच पर हिंदी को स्थापित किया गया है। इसलिए हिंदी को "पाँच सेर सोना" देने की बात होती है।

सुविधाभोगी और धूर्त नेताओं ने हिंदी भवन का आश्वासन देकर हिंदी अस्मिता को बनावटी उत्सवधर्मी बना दिया है।  हिंदी को रोज़गार व्यवसाय से जोड़ने के लिए विज्ञान, क़ानून, शिक्षा माध्यम, प्रशासन, आदि क्षेत्र में उसे विकसित करना चाहिए था। आम आदमी की पीड़ा और उसके अधिकार के लिए भाषागत विकास की बातें नज़रअंदाज़ की गई है ।

"और तो सब ठीक है पर पहले खसम उससे बचे
तब तो वह अपनी साध पूरी करे।"

 इन पंक्तियों की सहायता से कविता का अंत होता है।

यह पंक्ति हमें भाषागत ज़िम्मेदारी का बोध कराती है। आम जनता अपनी भाषा की बात करती है। उस आम आदमी का अस्तित्व अत्यंत महत्वपूर्ण है। भाषा का विधवा होना अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है। इसलिए  भाषा का सदा सुहागन होना अत्यंत महत्वपूर्ण है। भाषा के साथ उसके प्रयोगकर्ता की ख़ुशहाली भी ज़रूरी है।

(एक हिंदी भाषा प्रेमी होने के नाते मैंने ऊपरलिखित प्रतिक्रिया प्रस्तुत की है। हिन्दीतर भाषी होने के बावजूद गत 40 वर्षों से हिंदी कविता में रुचि होने के कारण अनेक कविताएँ पढ़ी हैं,समझी हैं। मेरी भाषा में वह प्रवाह शायद नहीं होगा, जो हिंदी भाषी पाठक का होता है। यह मेरी धृष्टता होगी। मैं एक साधारण तुच्छ पाठक हूँ। लेकिन मुझे साहित्य में रुचि है।)

3 टिप्पणियाँ

  • 16 Aug, 2021 01:25 PM

    FOR EXAM

  • 13 Aug, 2021 09:25 PM

    रघुवीर सहाय ने हिन्दी की पीड़ा को व्यंग्य के जरिए बयां किया और अपने उस व्यंग्य के भीतर तक जाकर जो पड़ताल की वो काबिले तारीफ है। आपकी विवेचना हिन्दी के दर्द को गहराई से समझाने में सफल रही।

  • 13 Aug, 2021 04:59 PM

    वाह ,विजय जी, सशक्त प्रस्तुति ,अभिनंदन हिन्दी की हत्या करने वाले हिन्दी भाषियों के लिये संदेश!!

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