कवि हो तुम

01-01-2020

कवि हो तुम

आलोक कौशिक (अंक: 147, जनवरी प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

ग़ौर से देखा उसने मुझे और कहा 
लगता है कवि हो तुम 
नश्तर सी चुभती हैं तुम्हारी बातें 
लेकिन सही हो तुम 


कहते हो कि सुकून है मुझे 
पर रुह लगती तुम्हारी प्यासी है 
तेरी मुस्कुराहटों में भी छिपी हुई 
एक गहरी उदासी है 


तुम्हारी ख़ामोशी में भी 
सुनाई देता है एक अनजाना शोर 
एक तलाश दिखती है तुम्हारी आँखों में 
आख़िर किसे ढूँढ़ती हैं ये चारों ओर 

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