कौन तुम्हें अपना लेता है?

01-06-2021

कौन तुम्हें अपना लेता है?

संदीप कुमार तिवारी 'बेघर’ (अंक: 182, जून प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

हृदय   में  कुंठित  भाव  तुम्हारे,
आत्माग्लानी     से   भरे   हुए।
प्यासे   प्रेम   अथाह  सागर  में,
तुम    हो   अकेले   खड़े   हुए।
झरना,   नदी,   हवा   के   जैसे,
कहीं किधर  भी  मुड़  जाते हो।
वृथा  किसी  पे  कर के  भरोसा,
किसी के साथ भी जुड़ जाते हो।
ठोकर ही खाते हो निशिदिन कौन तुम्हें कब क्या देता है!
इस जग के प्रांगण  में  बोलो, कौन तुम्हें  अपना लेता है?
 
है   बस   ये  सब  भ्रम  तुम्हारा,
ये   है  तुम्हारा   वो  है  तुम्हारा।
मिथ्या   जग   में   झूठी   काया,
कुछ  ना  तेरा  कुछ  ना  हमारा।
हाँ कुछ  पल  को  साथ  तुम्हारे,
तेरे     अपने     रो    जाते    हैं।
कुछ ना  रहे  जब  पास  तुम्हारे,
लोग     पराये     हो     जाते हैं।
बच के  रहना  जग  में  प्यारे  जीवन  ये  भरमा  देता है!
इस जग के प्रांगण में बोलो, कौन  तुम्हें  अपना लेता है?
 
नदी   के   दो  किनारों  में  कब,
आपसी   मेल   कभी  होता  है!
सावन   में   धरती  की  ख़ातिर,
आसमान    खुलकर   रोता  है।
समय पे आना समय  पे  जाना,
समय-समय  पे  प्रीत  निभाना।
समय पे जीना  समय  पे  मरना,
समय से जग की रीत  निभाना।
समय के हैं सब संगी-साथी,समय किसी को क्या देता है!
इस  जग के  प्रांगण  में बोलो  कौन तुम्हें अपना लेता है?

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