कौन हूँ मैं
अजेय रतनकोख में आँख की
एक सपना पलता हुआ
या लड़ता तम से
एक सूरज ढलता हुआ
कौन हूँ मैं
पीछे तृषा के,
गरम रेत पर चलता हुआ
या फिसलती रेत से,
रिक्त हाथ मलता हुआ
कौन हूँ मैं
सुखान से हाथ की,
लहरों से लड़ता हुआ
या भटका पोत,
तट ढूँढ़ता मचलता हुआ
कौन हूँ मैं
(सुखान-पतवार)
जीत, उल्टे वेग से
आगे निकलता हुआ
या स्थूल जिसे,
अदृश्य दलदल निगलता हुआ
कौन हूँ मैं
इन्द्रधनु में रंग
नए आस के भरता हुआ
पुराने साँचे में या
हारकर ढलता हुआ
कौन हूँ मैं
भार विहीन मैं
चरम ठौर तक उड़ता हुआ
या स्व बोझ से दबता
गर्त से जुड़ता हुआ
शायद मैं ही हूँ
आज में भी और
पुरानी कथाओं में भी
दुर्वासा में भी
शंभु की जटाओं में भी
मुझमें शिव है, कृष्ण है
और है वामन भी
दुर्योधन है,कंस है
और है रावण भी
मैं कभी पतित हूँ
और हूँ कभी महान भी
मैं हूँ कामधेनु भी
और कभी स्वान भी
मुझमें मधुक है
और है विषैला दंश भी
कदाचित है गुण आसुर
पर प्रभु का अंश भी
श्रद्धा में भीगकर
जो लगता अवतार है
नफ़रत में पाथर वही
दिखता हथियार है