कन्नड़ के वचन आंदोलन और स्त्री मुक्ति

10-12-2014

कन्नड़ के वचन आंदोलन और स्त्री मुक्ति

संतोष महिपती

सनातन काल से भारतीय जन-जीवन में नारी को गौरव का स्‍थान दिया जाता रहा है। पहले तो सती मानकर सृष्टि की नियमिका आदिशक्ति की उपाधि देकर सम्‍मानित किया जाता है। "यत्र नार्यस्‍तु पूजते रमंते तत्र देवता" कहकर उसकी गौरव-गाथा गायी जाती है। वास्तव में प्राय: ये सारी बातें विडम्‍बनात्‍मक लगती हैं, किंतु आज के संदर्भ में इस बात को मानने में तनिक भी सोचनीय विषय नहीं लगता है। वेद-काल की यह धारणा बारहवीं सदी तक आते-आते अनेक ऐतिहासिक मोड़ लेती गयी। वेद काल की भी यह जो धारणा थी, वह कहाँ तक सामाजिक स्‍तर पर सर्व-व्‍यापक थी, इसका सही-सही अवलोकन करना आवश्‍यक लगता है।

वैदिक साहित्‍य में इस बात के ठोस प्रमाण मिलते हैं कि उन दिनों नारी को वे सारी सुविधाएँ उपलब्‍ध थीं जो पुरुष को थीं। उसके लिए शिक्षा, वेदाध्‍ययन, ब्रह्मज्ञान प्राप्ति आदि सभी प्रकार की साधना के लिए कोई बंधन नहीं था। "ऋग्‍वेद के बारे में लिखी रचना 'ब्रह्मदेवता' (ई.पू. पांचवी सदी) में ‘शौनक ऋषि’ ने उन सत्‍ताइस दार्शनिक नारियों का उल्‍लेख किया है जिनके द्वारा रचे गये प्रार्थना-पद (सूक्‍त) ऋग्‍वेद में संग्रहित हैं। ये सारि नारियाँ महान विदूषियाँ थीं और ब्रह्मवादिनी के अभिधेय से विख्‍यात थीं। ऋग्‍वेद के नवें अध्‍याय में इस बात का उल्‍लेख मिलता है कि गर्भवती स्‍त्री से पहली संतान कन्‍या हो इस कामना की पूर्ति के लिए कुछ धार्मिक विधि-विधान किया जाता था। नारी को भी यज्ञोपवीत धारण करने का अधिकार था। यज्ञ-यागों में धार्मिक विधि विधानों में पुरोहिताई करने का उसे पूरा हक था। अपने धार्मिक जीवन के लिए यदि नारी पारिवारिक जीवन को बाधक अनुभव करती तो उसे ब्रह्मचारिणी होने का भी अधिकार था। समाज में ऐसी नारियों का बड़ा सम्‍मान होता था।"1 वेदकाल में नारी के प्रति यह सब विचार जानकर बहुत आश्‍चर्य होता है जो समाज नारी को लेकर इतना सम्‍मान जताते थे वही समाज उसके साथ क्‍या बर्ताव करेगा यह हम आज के संदर्भ में देख सकते हैं। कैसे उसका शोषण किया जा रहा है, अपमानित किया जा रहा है, उसे मात्र एक वस्‍तु की तरह देखा जा रहा है? प्राय: आर्य और अनार्यों के संघर्ष के फलस्‍वरूप नारी की सत्‍ता को बड़ी भारी ठेस पहुँची है। धीरे-धीरे परवर्ती काल में भारत पर अन्‍य जन वर्ग के आक्रमण होते रहे। विजित व्‍यक्ति पराजित व्‍यक्ति की धन संपत्ति के साथ-साथ उनकी नारियों का भी अपहरण कर अपने साथ ले जाते थे। ऐसी परिस्थिति में नारी की संरक्षा उसकी मर्यादा की रक्षा करने की आवश्‍यकता आ पड़ी। इसी के फलस्‍वरूव बाल्‍य विवाह की प्रथा चल पड़ी। पर्दा प्रथा शुरू हुई, सती पद्धति के लिए विवश किया जाने लगा। मनु-संहिता का निर्माण हुआ। इस संहिता का निर्माण क्‍या हुआ, नारी-शोषण के सारे रास्‍ते खुल गए। स्‍त्री की भावनाओं को संवेदनाओं को और उनकी आशाओं का दमन कर दिया गया। मुँह पर ऐसा ताला जड़ दिया गया कि सदियों तक उसकी कुंजी किसी को मिला ही नहीं, उसकी नाक में ऐसी सुतली पिरोई गई कि वह अपनी स्‍वतंत्रता और अस्तित्‍व ही खो बैठी। साथ में अपना सम्‍मान भी नीलाम करने की सीमा तक पार हो चुकी है, वो भी विद्वानों के हाथ से, तभी तो तुलसी ने कहा कि "ढोल, गँवार शूद्र पशु और 'नारी' यह दंड के अधिकारी हैं।"

"मातृ देवो भव" से हटकर वे इस तरह का अपमान का केन्‍द्र बिन्‍दु बनी कि शिवपुराण ने स्‍त्री के बारे में 'अरूधंती' के मुँह से यह कहलवाया, उस अरूंधती के मुँह से जिसका दर्शन हर एक को विवाह के समय कराया जाता है कि स्त्रियाँ तभी तक सती-सावित्री बनी रही हैं, जब तक उन्‍हें एकान्‍त स्‍थान नहीं मिलता और पराए पुरुष का सहवास प्राप्‍त नहीं होता। इसलिए कुलांगनाओं को सदा सखियों की रखवाली में रहना चाहिए।"2 इस तरह स्‍त्री को लेकर जो देवी स्‍त्री-रूपी और जगद्धात्री हैं उस देवी पुराण में भी स्‍त्री को लेकर अत्‍यंत ही अपमानित और भद्दी बातें काफी मात्रा में पायी जाती हैं। यह एक प्रकार की विचित्र विडम्‍बना की बात है।

"स्त्रियाँ न मित्र होती हैं और न शत्रु। वे सदा पराए पुरुष को चाहती हैं। अच्‍छी वेशभूषा वाला चाहे कोई भी हो, उस पुरुष की कामना करती हैं। किन्‍तु अपनी कामित वस्‍तु को पाने के पतिवृत्‍य का प्रदर्शन करती हैं। देखने में स्त्रियाँ बड़ी शालीन लगती हैं किन्‍तु जब अपना प्रेमी रहस्‍य-स्‍थान में मिलता है तो उसके साथ यों रम जाती हैं मानो उसे सजीव निगल जाएँगी। वे अपनी संतान से भी अधिक अपनी काम पिपासा को तृप्‍त करने वाले यार से प्‍यार करती हैं। स्त्रियाँ हमेशा जोंक की तरह पुरुष का रक्‍त चूसती रहती हैं। पुरुष जिसे अपनी प्रियतमा समझता है वह स्‍त्री रति-क्रीड़ा के द्वारा पुरुष के पौरुष का हरण करती हैं और साथ-साथ उसके मन, धन और सर्वस्‍व का अपहरण करती हैं। अत: स्‍त्री से बढ़कर क्‍या कोई लुटेरा हो सकता है।"3

स्‍त्री का इससे अधिक अवज्ञापूर्ण और अपमानित चित्रण और क्‍या हो सकता है, ऐसे अवैज्ञानिक और अपमानजनक स्‍त्री चित्रण का किसी पुरुष ने कभी विरोध नहीं किया। स्‍त्री ने पुरुष के जीवन में माँ, पत्‍नी, बहन, बेटी बनकर उसके जीवन को आलोकित किया, मधुर बनाया, सार्थक किया और चेतना की शक्ति बनी रही। तुलसीदास जैसे महान संत कवि ने भी बिना संकोच के स्‍त्री के बारे में कहा कि ढोर, गँवार, शूद्र, पशु, नारी यह सब ताड़न के अधिकारी हैं। यह तो पुरुष वर्ग की मानसिक अस्‍वस्‍थता का स्‍पष्‍ट उदाहरण लगता है।

वैदिक काल के पश्चात यदि कभी नारी की स्‍वतंत्रता और बोली फूटी तो वह बारहवीं सदी में, शिवशरणों (वचनकारों) के उदात्त आंदोलन के संदर्भ में ही। नारी के मुँह पर सदियों से जो ताला पड़ा था और कुंजी खो गई थी, शिवशरणों ने मानो उसकी कुंजी ढूँढ निकाली थी। 'ब्रह्मदेवता' में उल्‍लेखित वेद कालीन सत्‍ताइस विदूषियों के अतिरिक्‍त प्राय: ही अन्‍य नाम मिलते हैं। ये सत्‍ताइस के सत्‍ताइस नारी-मणियाँ समकालीन थीं। इसका कोई ठोस प्रमाण नहीं है। कालांतर में संयोगवश ये नारियाँ चमक उठी हों। किन्‍तु बारहवीं सदी की बात ऐसी नहीं थी। एक साथ हज़ारों नारियाँ अपनी स्‍वतंत्र अस्मिता, निजी पहचान लेकर सामने आई थी। सामाजिक क्रांति का इससे बड़ा उदारण केवल वचन साहित्य में ही मिलता है। या कम से कम इसके समान एक भी दृष्‍टांत अन्य साहित्य इतिहास में न के बराबर है।
स्‍त्री को देवता कहकर सिंहासन पर प्रतिष्‍ठापित करके प्रशंसा के पुल बाँधकर उसका शोषण जैसा विडम्‍बनात्‍मक कार्य शिवशरणों ने नहीं किया। नर और नारी का विभेद करके मुक्ति-मार्ग का बँटवारा करने वाली सनातन संस्‍कृति पर शिवशरणों ने करारी चोट दी। नर और नारी के अभिध्‍यात्‍मक स्‍वरूप को भेदभाव उन्‍होंने चिरंतन सत्‍य के दर्शन कराए।

"कच कुच बुझे लछन नारी
वर के लछन मूँछ अरु दाढ़ी
दुई बिच आतम जो संचारी
बताओ रामनाथ, नर या नारी"?4

शारीरिक संरचना से ही नर और नारी के अभिधान बने हुए हैं। किंतु, इन दोनों के शरीर में जिस आत्‍मा का अस्तित्‍व है वह न नर है और न नारी। नर-नारी के शारीरिक अवगुंठन हटाने पर वहाँ एक ही परम-तत्‍व की अनुभूति होती है तथा इसी बात को लेकर एक शिवाशरणी (महिला वचंकर) ने अन्‍यत्र बड़ा ही मार्मिक प्रश्‍न उठाया है -

"भार्या के प्राणों को थे, कैसा जूड़ा, कैसा स्‍तन?
भर्ता के प्राणों को था, कैसा वह व्रत-बंधन?
अत्‍यज के प्राणों ने की थी, कैसी लकुटी धारण?"5

शिवशरणों ने नारी को कभी वासना की दृष्टि से नहीं देखा। नारी पुरुष के लिए भार्य (जिसका भरण-पोशण किया जाए) नहीं थी और पुरुष नारी का भर्ता नहीं था। बल्कि दोनों आपस में सह-धर्मचारी बने हुए थे। गृहस्‍थ जीवन के लिए जो पाबंदियाँ नारी पर लगाई गई थीं वे ही पाबंदियाँ पुरुष पर भी लागू थीं। क्‍योंकि दोनों एक ही पथ के पंथी थे। यदि सती की छूत (स्‍पर्श) पति के लिए नाशक है तो पति की छूत भी सती के लिए नाशक है। दोनों समानधर्मी हैं, परस्‍पर अवलंबी हैं। शिवशरणों का यह बड़ा अच्‍छा अभिप्राय है कि पत्‍नी को छोड़ पराई स्‍त्री माँ-बहन के समान है और यदि विधवा है तो वह साक्षात पार्वती के समान है। पराई नारी को न ललचाने की बात शिवशरणों ने अपनायी थी और यह बात आज के संदर्भ में बहुत ही महत्‍वपूर्ण है। "स्‍त्री माया रूपिणी होती है, कैसे-कैसे योगी-संन्‍यासी भी स्‍त्री-माया के सामने हार चुके हैं।" यह कथन पौराणिक सत्‍य एक-पक्षीय विचार हो सकता है। जिस प्रकार पुरुष के लिए स्‍त्री को माया कहा गया उसी भाँति यह क्‍यों भुलाया गया कि स्‍त्री के लिए पुरुष भी माया हो सकता है। इस वास्‍तविकता को शिवशरणों ने समाज के सम्‍मुख रखकर इस बात का स्‍पष्‍टीकरण भी किया कि आखिर माया होती क्‍या है, यह 'अल्‍लम प्रभु' का एक वचन है। इस के संदर्भ अल्‍लम प्रभु यह स्‍पष्‍ट करते हैं कि इस समाज में स्‍त्री साधना के मार्ग में माया या बाधा नहीं है। मनुष्‍य का मानसिक विकार ही माया है।

"कनक माया है, कनक माया नहीं,
नारी माया है, नारी माया नहीं,
मिट्टी माया है, मिट्टी माया नहीं
मन की आशा ही माया है, हे गुहेश्‍वर!"6

सही मायने में पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर इस युग में स्‍त्री ने विकास किया है। अदूर दृष्टि से अंधों की आग में जलती नारी ने पुकार-पुकार कर अपनी मुक्ति के लिए काव्‍य रचना की और इसमें अत्‍यंत ही आत्‍मीयता से शरणों ने इनकी सहायता की। सामाजिक क्रांति का एक मार्ग इन शरणियों ने ढूँढ निकाला था। नारी के प्रति शिवशरणों की ऐसी पावन कल्‍पना थी कि यदि नारी के प्रति मोह उत्‍पन्‍न हो जाए तो उसका इलाज शिवशरणों ने इस प्रकार बताया-

"भक्‍त का मन यदि ललना को ललचाए
ब्याह करके मिल लें।"7

धार्मिक और आध्‍यात्मिक साधना के लिए शिवशरणों ने संन्‍यास को अनिवार्य नहीं बताया। संन्‍यास की प्रवृत्ति मनुष्‍य में स्‍वेच्‍छा से उत्‍पन्‍न होनी चाहिए, न कि आध्‍यात्मिक साधना के लिए एक अनिवार्य तत्‍व बनकर रहना शिवशरणों के लिए यह उनकी सहज प्रवृत्ति थी। उसमें स्‍त्री पुरुष का भेद-भाव नहीं था। आध्‍यात्मिकता एक वृत्ति नहीं थी बल्कि यों तो एकांतिक भक्ति की अपेक्षा सती और पति की संयुक्‍त भक्ति को उन्‍होंने श्रेष्‍ठ माना। इसलिए पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन में नर-नारी के तर-त्रम भाव को उन्‍होंने नष्‍ट कर दिया। पार्थिव विभेदीकरण को घटिया मानकर उन्‍होंने आत्‍म-ज्ञान, आत्‍मानुभूति को श्रेष्‍ठ माना। अक्‍कम्‍मा नामक एक शिवशरणी के वचन में देख सकते हैं -

"जो होंगे नंगे वे गधे की संतान
जो होंगे सिरमुंडे वे सब विधवा की संतान
जो होंगे जटाधारी वे सब पंचम की संतान
कुछ भी हो प्रमुख है ज्ञान
प्रभु रामोक्ष्‍वरलिंग में सदाचार ही प्राण।"8

ईसाई संत पॉल ने कहा है कि "पुरुष औरत के लिए नहीं बना है, औरत बनी है पुरुष के लिए" तथा "जैसे चर्च के स्‍वामी येशू हैं, वैसे ही स्‍त्री का स्‍वामी पुरुष है।"9 लेकिन यह 12वीं सदी की शिवशरणियों के संदर्भ में ऐसी कोई बात कहीं भी लागू नहीं होती और हम सोच भी नहीं सकते, जिस प्रकार शिवशरणों में सभी वर्ग के, सभी तबके के लोग थे उसी प्रकार शिवशरणियाँ भी सभी वर्ग की सभी तबके की थीं। साथ में असंख्‍य शिवशरणियों में अब तक प्राप्‍त आधार के अनुसार लगभग तैंतीस स्‍त्री वचनकारों की रचना प्राप्‍त हुई है। नारी के लिए जब स्‍वतंत्र बनना, साक्षर बनना ही निषिद्ध था, तब इतनी सारी नारियों का वचनों की रचना करना साधारण बात नहीं थी। स्त्रियाँ भी ऐसी नहीं जो अभिजात परिसर से आयी हों बल्कि ऐसे परिसर की जिनके साक्षर होने की कल्‍पना भी हम नहीं कर सकते। जुलाहिन, नाइन, झाड़ू लगाने वाली, कुलहारीन यहाँ तक कि वेश्‍याएँ भी अपनी वेश्‍यावृत्ति छोड़कर शिवशरणियाँ बन गई थीं।

कन्‍नड़ के शिवशरणों ने अपने युगीन प्रमुख सामाजिक समस्‍या यानी असमानता की ओर ध्‍यान दिया था। जातिभेद, वर्णभेद के द्वारा अपने युग को जो हानि उठानी पड़ी थी, एक वर्ग को जो अपमानित होना पड़ा था, इसके विरुद्ध शरणों ने वचनांदोलन शुरू किये थे। इन शरणों ने उच्‍च वर्ग और वर्ण वालों के अहं को तोड़ दिया और सर्वहारा वर्ग की साहित्यिक, सांस्‍कृतिक और आर्थिक स्‍थापना का प्रयास किया। जो समाज और उसका धर्म शारीरिक परिश्रम और स्‍वावलम्‍बन पर स्‍थापित हो वह कभी पतन की ओर जा ही नहीं सकता। लेकिन पाखंडी पंडित और धर्म ग्रंथों के ठेकेदार उपदेश मात्र से जीवन यापन करते हैं। परिश्रमी परिश्रम करते हैं, ढोंगी आराम करते रहते हैं। यह किसी भी समाज के लिए पतन का कारण बन सकता है। इसलिए शिवशरणों ने परिश्रम और स्‍वावलम्‍बन का प्रतिपादन ज़ोरदार आवाज़ में किया है। साथ में उन्होंने संग्रह प्रवृत्ति का भी खंडन कर सामाजिक असंतुलित संग्रह प्रवृत्ति को नकारा है। यह आर्थिक परिस्थिति में समानता लाने की कोशिश है और नारी के संदर्भ में भी वचनकारों ने अपनी आलोचनाएँ बड़े प्रगतिशील स्‍तर पर की थीं कि नारी पुरुष के समान ही सशक्‍त है तथा तत्‍कालीन शिवशरणियों में सामाजिक और धार्मिक आंदोलन में हिस्‍सा लेकर यह प्रमाणित किया कि वे किसी भी दृष्टि से पुरुषों से कम नहीं हैं। शरणों की इन्‍हीं मान्‍यताओं के कारणों से इनका काव्‍य लोगों के लिए निकट है और आज के संदर्भ में बहुत ही प्रासंगिक है।

संदर्भ सूची:

  1. शरण तत्‍व विवेचन - प्रो. बी. विरूपाक्षप्‍पा, अनु. डॉ. टी.जी. प्रभाशंकर 'प्रेमी', पृ.सं. 7
  2. अक्‍कमहादेवी और स्‍त्री विमर्श - डॉ. काशीनाथ अंबलगे 2007, पृ.सं. 26
  3. अक्‍कमहादेवी और स्‍त्री विमर्श - डॉ. काशीनाथ अंबलगे 2007, पृ.सं. 26
  4. शिवशरणि‍याँ : महिला दृष्टिकोण - अनु. डॉ. शकुंतला भूसनूरमट 2010, पृ.सं. 4
  5. वचन - कन्‍नड वचनों का हिंदी अनुवाद, प्रो. भालचंद्र शेट्टी 1998, पृ.सं. 30
  6. अक्‍कमहादेवी और स्‍त्री विमर्श - डॉ. काशीनाथ अंबलगे 2007, पृ.सं. 38
  7. वचन - कन्‍नड वचनों का हिंदी अनुवाद, प्रो. भालचंद्र शेट्टी 1998, पृ.सं.
  8. वचन - कन्‍नड वचनों का हिंदी अनुवाद, प्रो. भालचंद्र शेट्टी 1998, पृ.सं. 32
  9. स्‍त्री उपेक्षित - अनु. डॉ. प्रभा खेतान, 2002, पृ.सं. 62

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