कनकाभ-मेघ

01-09-2020

कनकाभ-मेघ

विनय एस तिवारी (अंक: 163, सितम्बर प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

मैंने नहीं देखा है हिमालय का स्वर्णमयी शिखर।

मैंने उसका सौंदर्य प्रत्यक्षानुभूत नहीं किया है, किन्तु मैंने उसे देखने पर होने वाले अनुभव को महसूस किया है। क्योंकि मैंने देखा है ‛कनकाभ मेघ!’ हाँ, जिस प्रकार सूर्यातप से नहाए गिरीराज स्वर्णमयी दिखते हैं, ठीक उसी प्रकार जब बरसात के मौसम में दिनेश आच्छादित होते हैं श्यामल बादलों से, और उनकी रश्मियाँ सीधे धवल कपासी बादलों पर पड़ती हैं, तो ये धवल मेघ हो जाते हैं स्वर्णमयी।

और वह श्यामल-स्वर्णमयी बादलों का दृश्य नीले आकाश में दिखता है तो आँखें विस्मय से भर जाती हैं, मन नियति की इस अद्भुत सजीव चित्रकारी से मोहित हो जाता है, और अनायास स्वर फूट पड़ता है ‛अहा!’

यह विस्मय लगभग ऐसे ही होता है जब पहली बार कोई बालक-मन पुस्तकों से इतर, वास्तविकता में देखता है पहली बार ‛इंद्रधनुष’। आह! उसकी अद्भुत रंगीयता बालक-मन को ऐसे मोह लेती है जैसे ऋषियों को मोह लेता है सच्चिदानंद ‛ब्रह्म’ का अनुभव। तभी तो उसे उपनिषदों ने रसोवैसः कहा है।

बालक के मन को यह अलौकिक रंगीयता से भरा इंद्रधनुष भी रसोवैसः ही है। ऐसा इसलिए, क्योंकि जो सुखद विस्मय ब्रह्म को अनुभव कर होता है लगभग वैसा ही अनुभव उस बालक को होता है, या जैसा अनुभव मुझे प्रयागराज में माँ गंगा के दिव्य स्वरूप के दर्शन से हुआ था।

तारीख़ तो नहीं याद है लेकिन वो रात आज भी जीवन्त है, मुझमें।

दारागंज में ( प्रयागराज शहर का माँ गंगा के किनारे बसा एक मोहल्ला), ठीक गंगा के कछार के किनारे एक घर की सबसे ऊँची कोठरी में मैं ठहरा था एकबारगी।

सामने फैला गँगा का कछार, जिस पर पसरी श्वेत-रेत और कछारों के बीच बहती मटमैली गँगा।

जब मैं शाम को देख रहा था गंगा की शून्यता लिए तीव्र प्रवाह, तब ही तो ख़याल आया मुझे कि कहीं आज पूर्णिमा तो नहीं! मैंने झटसे पञ्चाङ्ग देखा और ये पूर्णिमा थी! यानी पूरा चाँद दिखने वाला था।

मैं इस दृश्य को सम्पूर्ण सौष्ठव में देखना चाहता था, इसके चरम सौंदर्य को जीना चाहता था, इसीलिए मैंने कछार की खिड़की को ठीक रात दस बजे खोला।
उस श्वेत-रेत में हर ओर फैली चाँदनी और ये चाँदनी श्वेत-रेत के कणों पर पड़ते ही प्रकीर्णित हो कर वापस लौट जाती थी, जिसका परिणाम ये था कि चाँदनी की आभा प्रकट हो गई। उस अद्भुत उजाले का सौंदर्य और ठीक मेरे सामने गँगा में बना चाँद का प्रतिबिंब! मुझे ऐसे लगा जैसे मैं स्वर्गादि में भ्रमण कर रहा हूँ, या जैसे अर्जुन को दिखाए थे भगवान कृष्ण अपना दिव्य स्वरूप, ठीक वैसे ही माँ गंगा ने मुझे दिखाया अपने मातृत्व, देवत्व का चरम उत्कर्ष।

मुझे याद नहीं, मैंने कितने घंटे बिताए होंगे वहाँ, क्योंकि उस क्षण मैं गँगामय हो गया था, ठीक वैसे ही जैसे बगुलों की पाँत को सरोवर से उड़ता देख समाधिस्थ हुए परमहंस रामकृष्ण देव।

शायद वही हुआ होगा, मेरे साथ।

निश्चित ही, माँ गंगा का ये बिम्ब मैं नहीं बिसार सकूँगा, आजीवन।

ठीक ऐसे ही जब मैंने देखा स्वर्णमयी-मेघ तो मेरे अंदर विस्मय का स्थायी भाव अनायास ही उमड़ आया और याद आने लगीं सुखद-विस्मय की तमाम स्मृतियाँ।

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