ग़ज़ल- 221 2121 1221 212
अरकान-मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईलुन फ़ाइलुन
कैसी निगाह-ए-इश्क़ में तासीर हो गई
जिस पर पड़ी नज़र तेरी तस्वीर हो गई
निकला न ख़ून जिस्म से घायल हुआ हुँ यूँ
क़ातिल नज़र थी ऐसी जो शमशीर हो गई
बाहों में बंध के हो गया क़ैदी किसी का मैं
माला गले की पाँव में ज़ंजीर हो गई
घर में बचा है कुछ न ज़रूरत है कुछ मुझे
दीवानगी मेरी, मेरी जागीर हो गई
कल तक सभी थे साथी जहाँ में ‘निज़ाम’ के
तन्हा हूँ आज कैसी ये तक़दीर हो गई
– निज़ाम-फतेहपुरी