कहवां से फूटल अँजोरिया के जोत हो - संदर्भ: गंगा रतन बिदेसी

15-08-2020

कहवां से फूटल अँजोरिया के जोत हो - संदर्भ: गंगा रतन बिदेसी

डॉ. अभिजीत सिंह (अंक: 162, अगस्त द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

समीक्ष्य पुस्तक: गंगा रतन बिदेसी (उपन्यास)
लेखक: मृत्युंजय कुमार सिंह
प्रकाशक: भारतीय ज्ञानपीठ
मूल्य: ५५०

महागाथाओं की एक ख़ासियत होती है कि उनकी रचना की नहीं जाती बल्कि हो जाती है। महागाथाएँ निमित्त चुनती हैं और वे लोग इतिहास के स्वर्णिम पन्नों में दर्ज होते हैं जो निमित्त बनते हैं। यदि महागाथाओं की रचना स्वाभाविक प्रक्रिया का हिस्सा होती तो बाबा तुलसी ने और भी ग्रंथ लिखे होते जो रामचरितमानस से उत्कृष्ट होते, रेणु ने मैला आंचल से आगे भी लिखा होता, कामायनी से बड़ा भी कुछ प्रसाद ने रचा होता। लेकिन ऐसा संभव नहीं। इस दृष्टि से मृत्युंजय सिंह का यह उपन्यास पाठकों को निराश भी करेगा कि सौ वर्षों के सामाजिक इतिहास के कालखंड में फैला यह उपन्यास अपने कथ्य में इतना ऊँचा है कि उस ऊँचाई को अपनी अगली रचना में पार करना स्वयं लेखक के लिए एक कठिन चुनौती होगी। अज्ञेय ने 'शेखर : एक जीवनी' की रचना प्रक्रिया के बारे में कहा था कि यह उपन्यास एक रात में देखे गए विज़न को शब्दबद्ध करने का परिणाम था। लेकिन हर उपन्यास विज़न नहीं होता, वह प्रक्रिया भी होता है और यह दोनों अलग-अलग बातें और श्रेणियाँ हैं। इसे कमतर या ज़्यादा के नज़रिए से नहीं देखा जाना चाहिए।

गिरमिटिया मज़दूरों की वापसी और उसी में महात्मा गाँधी के साथ अफ़्रीका के नटाल से आए एक सत्याग्रही गिरमिटिया रतन दुलारी और उसके समूचे परिवार के संघर्षों की गाथा है - 'गंगा रतन बिदेसी'। वर्ष 2004 से 2007 तक इस कथा का ख़ाका लेखक के मन में बनता रहा और 2014 में आदरणीय कवि केदारनाथ सिंह की प्रेरणा से इस उपन्यास की रचना शुरू हुई - भोजपुरी में। इसका पहला संस्करण प्रकाशित हुआ वर्ष 2018 में ज्ञानपीठ से।

रतन दुलारी का भारत लौटना, आज़ादी की लड़ाई में उनकी भागीदारी और आज़ादी के बाद के अनिश्चित जीवन की बदहवासी - सब कुछ बड़ा मार्मिक बन पड़ा है। इसी बदहवासी में मुलाक़ात होती है पुरानी परिचित गंगझरिया से और अधेड़ वय के सिकुड़ते वृक्ष को पुनः इस मिट्टी से जीवन रस की प्राप्ति होती है और मन फिर से फगुआ में मचलने लायक हरा हो जाता है। प्रेम भाव ही ऐसा है कि अधेड़ देह में भी युवा चंचल मन बसा देता है। और युवा चंचल मन अपने प्रिय के सानिध्य की बाट जोहता न जाने उस देह को कहाँ-कहाँ भटकाता है। यह मन उस प्रिय के सानिध्य के लिए युक्तियाँ भी गढ़ता है, जैसे रतन दुलारी गंगझरिया से मिलने के लिए सुबह - सुबह पूड़ी तरकारी का बहाना लिए पहुँचते हैं। तो यही रतन और गंगझरिया आगे चलकर बनारस के पास खेजुआ में जा बसते हैं और उनका बेटा होता है गंगा रतन, जिसकी नियति ने उसके नाम के 'बिदेसिया' को ऐसा गढ़ा कि वह भी अपने बेटे दीपू के गंभीर रोग के उपचार के लिए कुछ पैसे कमाने गाँव से निकलता है और परदेसी लोग और समाज के चक्रव्यूह में मंडराता हावड़ा के लोहा फॉण्डरी, कोलकाता के पोस्ता बाजार, सियालदह स्टेशन से होते हुए चाय बागान के मजूमदार बाबू के घर पहुँच जाता है। इससे पहले की बात इससे आगे की की जाए, यहाँ एक प्रसंग का ज़िक्र बड़ा ज़रूरी लगने लगता है।

प्रसंग है कोलकाता में बरसों से रहने वाले उत्तर प्रदेश और बिहार के उन बाशिंदों का जो अपने गाँव घर से दूर, उस गाँव घर को अपने मन में बसाए यहाँ छोटे-मोटे काम करते हैं और समय-समय पर रुपए पैसे और सामान अपने घर भेजते हैं और साल में शायद दो-एक बार ही घर परिवार से मिलते हैं। तो इन उजरुआ - बसरुआ लोगों का भी यहाँ एक समाज है जिसका ज़िक्र उपन्यास में बड़ी तन्मयता से हुआ है। विक्टोरिया के मैदान में इतवार के इतवार आज भी इन लोगों की सभाएँ होती हैं और उसका चित्रण लेखक के शब्दों में ही देखें तो मर्म समझ आए - 'परदेस गईला प आपन देश के कुकुरो आपन पटीदार जईसन हो जाला। अऊर एही भाव से जन्म होखेला ई 'सभा' के। अपना - अपना इलाका अउर जिला के सभा के लोग सय-सय माइल दूर से आवस, गाना बजाना, खाना-पीना, लेनदेन क के फिर अपना परदेस वाला डेरा प जाके काम ध लेस। चिट्ठी अउर छोट - मोट समान त जइबे करे, पईसा-कउड़ी तक लोग अपना घरे ईहे सभा के मार्फत भेजस। कोनो बेईमानी के खींसा कमे सुनल जाओ।' तो यह है वह समाज जो परदेस में भी अपने जिला जवारी पर उतना ही भरोसा करता है जितना कि वह अपने परिवार पर करता है।

तो इन्हीं सब में डूबता उतराता गंगा रतन पहुँचता है मजूमदार बाबू के यहाँ और उनकी बेटी डोना से एक ऐसा रिश्ता बनता है जिसे लेखक ने अंत तक बिना नाम दिए बड़ी परिपक्वता से निभाया है। यह उपन्यास परिस्थितियों में जीने वाला उपन्यास है। इसके पात्र एक प्रक्रिया का हिस्सा हैं और विविध परिस्थितियों में ही वे अपना विकास करते हैं और अंतर्मन की पेचीदगियों से लड़ते हैं। इन्हीं पेचीदगियों में फँसता है बिदेसिया, जब वह मजूमदार बाबू के हाथों हुई उनकी पत्नी की हत्या को उनकी मासूम बेटी डोना के लिए अपने ज़िम्मे लेता है और जेल जाता है। दूसरी तरफ़ उसका यह त्याग डोना के हृदय में उसे कहीं और गहरे धँसा देता है। इतने गहरे कि उसे जेल से निकालना ही डोना के जीवन का एक मात्र लक्ष्य हो जाता है। इतने गहरे कि उसका अंत वह दीपू को अपने साथ ले जाकर करती है।

हिंदी साहित्य में साठोत्तरी गद्य के बाद एक सामान्य प्रवृत्ति देखने को मिलती है कि अमूमन अब के गद्यकार अपने उपन्यास या कहानियों में आने वाले यौन प्रसंगों को पचाकर लिखने में अब भी असमर्थ हैं। यौन प्रसंगों में अमूमन या तो कुंठा दिखाई देने लगती है या फिर यदि लेखक ने उसे लिखना शुरू किया तो वह यौन प्रसंगों में प्रेम और शरीर के इरोटिज़्म में अंतर करना भूल जाता है। बिना शारीरिक क्रियाओं को दिखाए भी स्त्री-पुरुष के बीच के इरोटिज़्म को दिखाया जा सकता है यह हिंदी का कथाकार शायद सोच ही नहीं पाता या फिर इस कला पर वह काम करने की ज़रूरत ही नहीं समझता।

'गंगा रतन बिदेसी' को इस दृष्टिकोण से बेहद परिपक्व उपन्यास माना जा सकता है। क्योंकि इस उपन्यास में जहाँ-जहाँ भी ऐसे प्रसंग आए हैं – चाहे वह प्रसंग रतन दुलारी और गंगझरिया का हो, चाहे हेमवती देवी और बाबू रामाश्रय का हो, चाहे बिदेसिया और लछिमिया का हो या फिर बिदेसिया और डोना के बीच के महीन प्रेमसूत्र का प्रसंग ही क्यों ना हो – इन प्रसंगों को लेखक ने बड़ी बारीक़ी से निभाया है। अन्यथा ऐसे प्रसंग पर तो अधिकांश लेखकों को फिसलते देखा गया है। उदाहरण के लिए बिदेसिया और लछिमिया के उस प्रसंग को देखा जा सकता है जहाँ वे बिदेसिया के जेल से छूटने के बाद पुनः मिलते हैं। वहाँ सालों से एक दूसरे के प्रेम से वंचित और एक दूसरे के लिए हृदय में उत्कट प्रतीक्षा लिए पति-पत्नी पुनः मिलते हैं और लेखक सिर्फ़ इतने भर में सब कुछ कह देता है कि - 'रात भर दूनों सींचत-पटाइत आपस में जुड़ल रहले हसन।'

प्रेम व्यक्ति के मस्तिष्क में कैसे-कैसे खेल रच सकता है यह शायद ही कोई पूरी तरह बता सके। रेणु की 'तीसरी कसम' कहानी का वह प्रसंग भला किसे याद नहीं होगा जिसमें हीरामन और हीराबाई अंत में एक दूसरे से बिछड़ रहे होते हैं। हीराबाई रेल में चली जा रही होती है और हीरामन बैलों को चाबुक से मार कर पीछे ना देखने की डाँट लगाता है। यह भला किससे छुपा रह पाया था की हीरामन असल में अपने मन के बैल पर चाबुक चला रहा था और ख़ुद को पीछे देखने से रोक रहा था।

प्रेम का एक ऐसा ही सूक्ष्म प्रसंग इस उपन्यास में भी है जिसे पाठक संभवतः समझ कर भी नहीं समझना चाहता। क्योंकि प्रेम इतना गहरा भी हो सकता है कि प्रिय ना मिले ना सही, उसका प्रतिरूप या प्रतिबिंब ही मिल जाए तो उसी सहारे जीवन व्यतीत किया जा सकता है - यह कोई मानने को तैयार ही नहीं। उपन्यास की संपूर्ण कथा में डोना का बिदेसिया के प्रति जो भाव है - लेखक ने उसे नाम नहीं दिया, किसी संबंध के तले जस्टिफाई नहीं किया। क्योंकि किसी भाव को संबंधों का नाम देते ही उसके प्रति सोच भी उसी भाव के इर्द-गिर्द सीमित हो जाती है। लोक भाषा के दृष्टिकोण से यह बेहद उम्दा और आधुनिक शब्द कर्म है। बिदेसिया के प्रति डोना का ऑब्सेशन उसे रूप की चाहत के पार ले जाता है। उपन्यासकार ऐसे महीन और बेहद संवेदनशील प्रसंग के साथ बड़े इत्मीनान से पेश आता है। डोना और लछिमिया को संवाद का स्पेस मुहैया कराना इस बात की ओर संकेत करता है कि उपन्यासकार को इन संबंधों की गहरी समझ है। अंततः डोना, लछिमिया को यह समझा पाने में सफल होती है कि दीपू को अपने साथ ले जाकर वह उसका घर नहीं तोड़ना चाहती और ना ही तोड़ रही है। लेकिन उसने जिस भाव को अपना जीवन समर्पित किया है उसके लिए उसे एक संबल तो चाहिए ही। तो वह संबल इस रूप में क्यों ना हो कि वह दीपू के भविष्य को बनाने के लिए उसे अपने साथ लेती जाए। दरअसल वह दीपू को नहीं, दीपू के रूप में थोड़े से बिदेसिया को अपने जीवन का संबल बना कर ले जा रही है।

इस उपन्यास में गंगझरिया और लछिमिया जैसी स्त्री पात्र भी हैं, जो परिस्थितिवश बेहद उम्दा विकास करती हैं। गंगझरिया तो एक साहसिक पात्र थी ही। लेकिन वह साहस उसकी ज़िंदगी से जुड़े संघर्ष की देन था। लेकिन लछिमिया का जीवन तो संरक्षणशील माहौल और अपेक्षाकृत कम संघर्षशील समाज में गुज़रा था। ऐसे माहौल में पलने के बावजूद लछिमिया ने जिस साहस का परिचय दिया है वह क़ाबिल-ए-तारीफ़ है। वह भोले भाले रतन दुलारी के साथ जब बनवारी साव के गणित से लोहा लेती है या जब वह गंगा रतन को कमाने के लिए परदेस भेजती है– ऐसे प्रसंगों में उसके व्यवहार की दृढ़ता का पाठक कायल हुए बिना नहीं रह सकता। बिदेसिया जब परदेस जा रहा होता है तो उसे घर परिवार की चिंता होती है कि कौन देखेगा अब सबको। ऐसे में लछिमिया के यह वाक्य भला किसमें साहस न भर देंगे और भला कौन आश्वस्त ना हो उठेगा - 'जा, जीत के अइह, हमार नेह अउरी पिरीत के जग हंसाई नत करइह! बिसवास रखिह, तोहार घर संसार के भरसक जान दे के रच्छा करब। *** सतयागिरही के बेटा हव त मर्द जईसन खाड़ हो के लड़।'

तो ऐसे पात्रों की रचना और उनके विकास को लेखक ने जिस कलाकारी से निभाया है उससे यह विश्वास करना बड़ा कठिन हो जाता है कि यह लेखक का पहला उपन्यास है।

उपन्यास भोजपुरी में लिखा गया हो और उसमें भोजपुरिया माटी की गंध ना हो? प्रसंगवश लेखक ने तमाम लोकगीतों से इस कथा को सजाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। भाषा की सबसे बड़ी ख़ासियत होती है उसका ओज और ओज सिर्फ़ वीर रस में नहीं दिखता। यह ओज बिदेसिया के आलाप - 'कंठे सुरवा होख ना' में है। यह ओज रहीम काका के झाल की - 'झा-झी-झुक-झुक-झिन-झिन' की ध्वनि में है। और यह ओज प्रकृति चित्रण की इस शैली में है जो निराला की कविता 'संध्या सुंदरी' की बरबस याद दिलाता है - 'मयदान के पछिमी अकास में सूरज देवता आरती के आग जैसन पियर सुनहला लेप चढ़वले डूबे के तैयारी में रहन। चमकउआ बादर के कुछ फाटल चुटल बस्तर ओढ़ले धीरे-धीरे सांझ प अन्हार उतरे लागल रहे।'

बहरहाल, भोजपुरी में लिखा यह उपन्यास अपने कथ्य, भाषा और शिल्प में एक संपूर्ण और ठोस उपन्यास तो है ही, साथ ही साथ भारतीय उपन्यास की समृद्ध परंपरा में इसका महत्वपूर्ण स्थान होगा इसमें कोई दो राय नहीं। कहना न होगा कि भोजपुरी की साहित्य परंपरा में इस उपन्यास का वही स्थान होगा जो हिंदी साहित्य में गोदान और मैला आंचल का है।

डॉ. अभिजीत सिंह
सहायक प्राध्यापक
बानरहाट हिंदी कॉलेज
संपर्क : 9831778147
ई मेल : abhisingh1985123@gmail.com

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