कान्हा! तुम्हारी स्मृति सताती है
आंचल सोनी ’हिया’जब साँझ की प्रदीप्त बेला आती है
प्रकृति गेरुआ चुनर से आच्छादित हो जाती है,
कान्हा! तुम्हारी स्मृति सताती है॥
विटप पंखुड़ी आपस में टकरा कर
जब माधुर्य गुनगुनाती है,
कान्हा! तुम्हारी शृंगार स्मृति आती है॥
जब स्याह यामिनी गहराती जाती है
चढ़ती सांकल अनिवार्य नहीं रह जाती है,
कान्हा! तुम्हारी स्मृति सताती है।
कुंडल सुशोभित कर्ण को जब
तुम्हारी मधुर मुख ध्वनि याद आती है,
कान्हा! तुम्हारी स्मृति सताती है।
जब गुसलख़ाने पधारूँ, व पट उतारूँ
अपने उजले तन को स्वयं ही निहारूँ,
उस क्षण यह विरह मेरा प्राण घात कर जाती है।
हे कान्हा! तुम्हारी स्मृति अनंत सताती है।