कहाँ गए वे मेरे गाँव

15-04-2021

कहाँ गए वे मेरे गाँव

डॉ. आर.बी. भण्डारकर (अंक: 179, अप्रैल द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

बचपन के अपने अभिन्न मित्र मंगल के बार-बार के आग्रह पर एक लंबे अंतराल के बाद सुमति आज उनके गाँव जा रहे हैं। विद्याध्ययन काल में वे अपने मित्र के साथ अनेक बार वहाँ जा चुके हैं सो उस गाँव के प्रति उनके मन में विशेष आकर्षण है। वहाँ के बीहड़ के तरह-तरह के झाड़, पेड़; उन पर कलरव करते भाँति-भाँति के पक्षी, उन झाड़ पेड़ों की ओट में अपना आशियाना बनाकर रहने वाले रंग-बिरंगे जंगली जानवर सदैव उनका मन मोहते रहे हैं। वे जब भी गाँव गए, तब अक़्सर शाम को पहले मंगल की दादी से लुखरिया (लोमड़ी) की तरह-तरह की कहानियाँ सुनते फिर अगले दिन खेत पर दिन भर लुखरिया ढूँढ़ते। जब लोमड़ी (लुखरिया) दिख जाती तो बहुत प्रसन्न होते; इस लोमड़ी और दादी की लुखरिया में तालमेल बैठाने की कोशिश करते रहते। इस तरह कभी दादी की लुखरिया, कभी लिड़इया (सियार) कभी भिड़ा (भेड़िया) कभी हिन्ना (हिरण) तो कभी तोता-मैना की कहानियाँ सुनने फिर जंगल में उनसे साक्षात्कार करते-करते सुमित और मंगल की पूरी छुट्टियाँ बड़े ही मौज में बीत जाया करती थीं। 

एक बार का एक वाक़या याद कर सुमति को अभी भी हँसी आ जाती है। हुआ यूँ था कि सुमति और मंगल अपने नडेल वाले खेत पर गए थे। कंकरीली ऊँची-नीची ज़मीन होने से सुमति एक जगह फिसल कर गिर पड़े, जिससे हल्की चोट तो आयी ही, उनके घुटने भी छिल गए। दादी को यह बात पता चली तो वे तुरंत आईं बोली– "फिकर न करौ लला। अबै हम एक लुखरिया लियाउत हैं, मसल कें बाँध दें हैं। दोई दिना में घाव भर जैहै। पीरऊ नई हुइ है।

मुझे जंगल वाली लोमड़ी याद आ गई, सोचने लगा, दादी लोमड़ी को मसल कर घुटने से कैसे बाँधेगी? . . . इतने में देखता हूँ कि दादी हाथों में कुछ हरा-हरा पेस्ट सा और स्वच्छ कपड़े की एक पट्टी लिए हाज़िर हैं। बोलीं– "लला घुटनो इतै करो, लियाव पट्टी बाँध दें।"

मैंने कहा, "दादी आप तो कोई लुखरिया लाने वाली थीं?"

दादी हाथों में ले रखा पेस्ट दिखाती बोलीं, "हाँ, सो लियाये तो हैं ज लुखरिया।"

मैंने आश्चर्य चकित होकर कहा, "दादी यह कैसी लुखरिया है? बीहड़ में तो हमने चार पैरों वाली दौड़ती, भागती हुई लुखरिया देखी थी।"

दादी बहुत ज़ोर से हँसी, मेरे गाल पर प्यार भरी थपकी मारते हुए बोलीं, "पगला! ब तौ जनाउर (जानवर) होत है; ज तौ लूखड़ी है, लूखड़ी; ओखद (औषधि) समझा।"

अपनी मूर्खता पर मैं ख़ूब हँसा, मंगल, काका-काकी (मंगल के पिता-माँ) भी ख़ूब हँसे। मैंने हँसते हुए दादी से कहा– समझ गया दादी, समझ गया। फिर दादी ने अपनी ओखद मेरे घुटने पर बाँध दी थी। सच में उससे दर्द में बहुत आराम मिला और जो हल्का घाव था वह भी दो-तीन दिन में ठीक हो गया।
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सुमति एक क़स्बे के हैं, नौकरी-पेशा परिवार से हैं जबकि मंगल निपट देहात के, अपेक्षाकृत कमज़ोर आर्थिक स्थिति वाले परिवार से हैं। सो पढ़ने में सुमित से अधिक योग्य होने पर भी, हायर सेकेंडरी तक की पढ़ाई के बाद मंगल विद्याध्ययन त्याग कर अपने गाँव चले गए और कृषि कार्यों में अपने पिता का हाथ बँटाने लगे। जबकि सुमति बड़े शहर जाकर उच्च अध्ययन में जुट गए। फिर पढ़ाई के बाद उसी शहर में एक सम्मानजनक पद पर नौकरी करने लगे। सुमति और मंगल की दोस्ती इतनी पक्की कि पढ़ाई की इस स्थिति, आर्थिक स्थिति में पर्याप्त अंतर और रहवास की इतनी दूरी के बावजूद उनकी मित्रता यथावत रही।

सुमति मंगल के यहाँ जाने के लिए निकले तो उन्होंने ज़िला मुख्यालय तक की यात्रा ट्रेन से की, फिर लगभग 35-40 किमी की यात्रा बस से। मदनगढ़ में वे बस से उतरे ही थे कि आवाज़ सुनाई दी– "हनुमान गढ़...हनुमान गढ़....हनुमान गढ़ जाने वालो जल्दी आओ... जल्दी आओ।"

सुमति के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। . . . सोचने लगे – क्या हनुमान गढ़ भी कोई वाहन जाने लगा है . . . इतने उबड़-खाबड़ रास्ते पर कौन सा वाहन जाता होगा?

चिल्लाने वाले युवा को सम्बोधित करते हुए बोले, "क्यों भाई, क्या वाहन है आपके पास?"

"ई रिक्शा है। आइए, चलिए।"

अब सुमति और भी भौंचक्के हो गए . . . ई रिक्शा यहाँ? कैसे चलता होगा, उस मार्ग पर!

रिक्शे वाले ने फिर पूछा, "चलना है? चलिए साहब?"

सुमति ने कहा, "हाँ हाँ, चलना है। कितनी सवारी बिठाते हैं आप?"

रिक्शे वाले ने उत्तर दिया, "दो बिठाता हूँ। . . . आप अकेले चलना चाहें तो आपको अकेले भी ले चलूँगा पर पैसे कुछ अधिक लगेंगे। . . . कोई अधिक पैसे नहीं है, बहुत कम किराया है भाई साहब।"

भाई साहब! . . . सुनकर अच्छा लगा सुमित को, कुछ अपनापन-सा भी। बोले, "चलिए, कहाँ है आपका रिक्शा?"

"वह रहा," रिक्शे वाले ने हाथ का इशारा किया।

दोनों उस ओर चल दिए। रिक्शे में बैठते ही सुमित ने कहा, "चलिए; दूसरी सवारी लेने की आवश्यकता नहीं है।"

रिक्शा चल पड़ा। बस अड्डे से निकल कर रिक्शा हनुमान गढ़ मार्ग पर चलने लगा। सीमेंट कंक्रीट की बढ़िया सड़क देख कर सुमित विस्मित हो गया। इलाक़ा तो जाना-पहचाना है पर सड़क? यहाँ ऐसी सड़क! उन्होंने पूछा, "क्या नाम है भाई आपका? कहाँ के रहने वाले हैं आप?"

"रूप लाल। मदन गढ़ का रहने वाला हूँ।"

"रूप लाल जी, आप तो काफ़ी समझदार लगते हैं। यह बताओ, यह सड़क कब बनी?"

रूप लाल ने जवाब दिया, "क़रीब एक साल पहले ही बनी है भाई साहब।"

"बहुत अच्छी बनी है।"

रूपलाल बोला, "प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के तहत बनाई गई है, भाई साहब। इस योजना में जो सड़क बनती है, अगले पाँच साल तक उसकी देखरेख और मरम्मत की ज़िम्मेदारी बनाने वाले ठेकेदार की ही होती है। इसलिए उसे मजबूरी में थोड़ी अच्छी ही सड़क बनानी पड़ती है।"

सुमित हँसे, "हा हा हा . . . मजबूरी में थोड़ी अच्छी ही! वाह-वाह ख़ूब कहा भाई आपने!"

"हैं हैं हैं . . . मैंने तो यूँ ही बोल दिया।" फिर कुछ रुककर उसने प्रश्न पूछा, "अच्छा भाई साहब, आप ही बताओ, मरम्मत का जिम्मा न होता तो क्या वह ठेकेदार इतनी अच्छी सड़क बनाता?"

"सो तो है।"

सुमति के आग्रह के कारण ही रिक्शा मंथर गति से चल रहा था। सुमति देख रहे थे कि कुछ ही वर्षों में आसपास का नज़ारा काफ़ी बदल गया था। उनके मन मे तरह-तरह के प्रश्न, जिज्ञासा-भाव उमड़ने-घुमड़ने लगे। ग्रामीण अँचल का ऐसा विकास देखकर एक ओर उन्हें अच्छा लगा तो ग़ायब हुई हरियाली से वे हतप्रभ भी थे।

मदन गढ़ से हनुमान गढ़ की दूरी 5 किमी ही थी, इसलिए कुछ ही देर में वे गंतव्य पर पहुँच गए। प्रतीक्षारत मंगल ने उनका आत्मीय स्वागत किया। इधर अपना किराया लेकर रूपलाल वापस चल दिया और उधर मंगल और सुमित बैठक के बाहर के बरामदे में पहुँचे। सुमति तख्त पर और मंगल मूँज से भरकर बनाये हुए पीढ़े पर बैठ गया। दोनों एक दूसरे की कुशल-क्षेम और दीगर हाल-चाल जानने व बातें करने में मशग़ूल हो गए।

सुमित ने इधर-उधर देखते हुए आश्चर्य प्रकट किया, "भाई मंगल अध्ययन के समय जब मैं आपके यहाँ आया करता था तब मैं यहाँ सामने वाले बाड़े में एक जोड़ी बैल, चार-पाँच गाएँ, एक-दो भैंसें अवश्य देखता था। अब भैंसों को छोड़कर सब नदारद हैं; ऐसा क्यों?"

"भाई सुमति, मैं आपको थोड़ा विस्तार में बताता हूँ। समय परिवर्तनशील होता है। पूरे विश्व में वैज्ञानिक क्रांति आधारित विकास का बोलबाला है; ऐसे में हम कैसे पीछे रह सकते हैं। इसीलिए आज हमारी संस्कृति का स्वरूप बदलता जा रहा है। अब गाँव शहरों में तब्दील हो रहे हैं। गाँवों में भी औद्योगिक प्रगति ने दस्तक दे दी है। भाव जगत कमज़ोर हुआ है अर्थ तंत्र का राज्य क़ायम हो गया है। अस्तु लोगों की सोच बदल गयी है। 

"कृषि उपज में भी शुद्धता व स्वाद को नज़रअंदाज़ किया जाने लगा है। किसी को भी धरा के स्वास्थ्य की चिंता नहीं है। जैविक और परम्परागत खादों के स्थान पर रासायनिक उर्वरकों का बोलबाला हो गया है। अब वैज्ञानिक तकनीकों से बेमौसम कृत्रिम फ़सलें, फल आदि उगाए और पकाए जाने लगे हैं। पाश्चात्य देशों से आयातित संस्कृति प्राचीन भारतीय संस्कृति के मूल स्वरूप को ही नष्ट करने पर तुली है। इसलिए विकास के नाम पर ये ऊँची-ऊँची इमारतें, सीमेंट कंक्रीट की सड़कें ग्रामीण संस्कृति का मटियामेट कर रही हैं। अब यहाँ भी ऐसे घर बनने लगे हैं जिनमें आँगन ही नहीं होता, तो आँगन में पेड़ की कल्पना कैसे की जा सकती है। घर के बाहर चबूतरे ही नहीं तो नीम का पेड़ कहाँ लगेगा? कुछ घरों में जो गार्डन हैं उनमें पेड़-पौधे नहीं हैं, सजावटी प्लांट हैं। पहले पशुओं के लिए घर के पास बाड़े बनते थे पर अब उनकी ज़रूरत ही नहीं रही है। मेरा यह बाड़ा भी न जाने कितने दिन का मेहमान है।. . . . ओफ़्फ़! गाँव का स्वरूप ही बिगड़ गया है।"

मंगल थोड़ा रुका और फिर कहने लगा, "अब मुद्दे की बात। आपने कहा, बैल कहाँ गए, भैया बैल ट्रेक्टर और हार्वेस्टर की भेंट चढ़ गए हैं। केवल बैल ही नहीं, छोटे-छोटे कृषि उपकरण खुरपी, कुदाल, हल सब ग़ायब हैं, यह सब अब अतीत की वस्तु रह गए हैं। नई पीढ़ी इन्हें केवल चित्रों में ही देख पाएगी। और बताऊँ कि गायें कहाँ गई? सुमति जी अब अधिकांश लोगों में से "गौमाता"का भाव लुप्तप्राय है। कृषि का यंत्रीकरण होने से गाय के बछड़ों की उपयोगिता नहीं रही। अपने यहाँ देसी नस्ल की गायें, भैंस की अपेक्षा कम दूध देती हैं। तो इस दृष्टि की भी बुरी नज़र गौमाता पर पड़ी सो पशु बाड़े से गाएँ ग़ायब हो गईं, बेच दी गईं। बिक कर कहाँ जायेंगी – किसी के पास यह सोचने का समय ही नहीं है; कुछ छुट्टा छोड़ दी गईं जो इधर-उधर, मारी-मारी फिरती हैं; यह आपने देख ही लिया होगा।"

सुमति भी सोच में डूब गया, फिर वह बुदबुदाया, "हाँ मंगल भाई, मुझे रास्ते मे एकाध जगह झुंड की झुंड गाएँ दिखी थीं।" फिर सँभलते हुए उसने मंगल से पूछा, "अच्छा यह बताओ कि पहले आपके यहाँ आते समय कच्चे रास्ते से पूर्व की तरफ़ काफ़ी जंगल दिखता था, अबकी बार नहीं दिखा?"

मंगल ने बताया, "भाई लोगों ने ज़मीन के लोभ में जंगल उजाड़ दिए। भूमि को तरह-तरह के यंत्रों से समतल कर कृषि योग्य कर लिया। इसलिए जहाँ जंगल थे वहाँ अब खेती होती है।"

सुमति आश्चर्यचकित रह गया, "एँ .....! तो अब जंगली जानवर हिरण, सियार, भेड़िए, लोमड़ी आदि कहाँ रहते होंगे?"

मंगल ने खिन्न होकर कहा, "सब मिट गए। . . . अब तो बच्चे इनको किताबों में छपे चित्रों में ही देख पायेंगे।"

सुमति ने आगे पूछा, "और भाँति-भाँति के पक्षियों का क्या हुआ?"

मंगल बोला, "वे भी प्रायः नदारद हैं। बाहर जो नीम का पेड़ है। इस पर सदैव पक्षी चहचहाते रहते थे। उनके शोर से अपनी बातों में भी व्यवधान होता था। अब हम लोग एक घण्टे से बातें कर रहे हैं। इस बीच क्या आपको सुनाई दी है किसी पक्षी की आवाज़?.. भैया अब तो कनागतो में पिता जी को श्राद्ध के लिए कौए ढूँढ़ने पड़ते हैं।...मोर का नृत्य कितना मनमोहक होता था, अब तो खेतों पर शायद ही कभी कोई मोर दिखे।....और तो और भैया सुमति पहले जब कोई घरेलू या जंगली जानवर मरता था तो उसके मृत शरीर को गिद्ध, मांसाहारी जंगली जानवर दिन भर में ही चट कर जाते थे। अब महीनों पड़े सड़ते रहते हैं, बहुत बदबू फैलती है।"

सुमति ने अपना सिर पकड़ लिया। . . . कुछ उदास, निराश भाव में कहा, "यह तो प्रकृति का संतुलन ही बिगड़ गया।" फिर सोचते हुए बोला, "इसीलिए पर्यावरण गड़बड़ाया है।"

थोड़ी देर तक दोनों के बीच चुप्पी पसरी रही।

"मंगल भाई! आपके दरवाज़े के बाहर सर्दियों में जो अलाव लगता था?" सुमित ने बात फिर आरम्भ की।

"अब अलाव नहीं लगता," कह कर मंगल ने तफ़सील से बताया, "गाँवों में भी अब पहले जैसा सौहार्द नहीं रहा। लोगों में आपस में बोलचाल तो है पर आत्मीयता नहीं, इसलिए परस्पर के सम्बंध मतलब भर के रह गए हैं। लोग एक दूसरे के यहाँ बहुत कम उठते-बैठते हैं। पिछली बार के पंचायत चुनावों ने तो गाँव का परस्पर का सौमनस्य पूरी तरह ख़त्म कर दिया है।"

एक दिन रुकने के बाद सुमति वापस लौट गए। सुमति सोचता रहा कि विकास तो उचित है पर क्या इस तरह पर्यावरण की बलि देकर किया गया विकास घातक सिद्ध नहीं होगा? सड़कें बनीं अच्छी बात है पर सड़क के दोनों ओर पेड़ भी तो लगाए जा सकते थे। जंगल क्यों उजड़ जाने दिए गए? लोगों को इनका महत्त्व क्यों नहीं समझाया गया, जंगलों के उत्पादों से आम आदमी को जोड़ा जाता तो शायद यह स्थिति नहीं बनती। पंचायत के चुनाव भले ही दलगत न होते हों पर प्रकारान्तर से उनमें दलगत राजनीति क्यों घुसने दी गयी?

वास्तव में विकास का आशय है जीवन को सरल और सुखमय बनाना। इस परिप्रेक्ष्य में आज जो विकास हो रहा है उसका सम्बन्ध केवल भौतिक विकास तक सीमित कर दिया गया है, इसलिए विकास और विनाश साथ-साथ चलते दिखाई दे रहे हैं। यही कारण है कि इतने विकास के बाद भी जीवन सरल नहीं हो पा रहा है। विकास की रेखा को हम एक फुट जोड़ते हैं तो वह सवा फुट टूट जाती है। . . . सड़कें बना लीं, वाहन बढ़ गए, सीमेंट कंक्रीट के महल बन गए पर पर्यावरण बिगड़ गया; शुद्ध हवा की कमी पड़ने लगी; मनुष्य तरह-तरह की बीमारियों की चपेट में आने लगा। सोचिए आपके इस विकास से जीवन सरल हो पाया? नहीं न।

मान्यता रही है कि घर में परिवार के अतिरिक्त कोई अन्य जीव पलने से प्रेम, दया, परोपकार जैसे भाव पनपते हैं। उपयोगी पशुओं के अलावा कुत्ते, बिल्ली, तोता आदि पशु पक्षियों के पालने के केंद्र में यही भावना अधिक काम करती रही है। आज गाँवों में न कुत्ते दिखते हैं न गाय, बैल और न प्यारे-प्यारे पक्षी। सब तथाकथित विकास की बलि चढ़ गए।..ओफ़्फ़! विकास की हमारी एकांगी सोच ने ही लील लिए हैं गाँव, जहाँ हमारा सच्चा भारत, अच्छा भारत बसता है।
एक माह बीत गया है मंगल के गाँव से वापस आये हुए। . . . चलने लगा है ज़िंदगी का शहरी ढर्रा। 

. . . शाम का समय है, दफ़्तर से लौटा ही है कि मोबाइल फोन की घण्टी बजी। . . . उठाया। "हेल्लो," सुनाई देता है. . .ऊँ . . .यह फ़ोन तो मंगल का है! पर बोल कौन रहा है। यह मंगल की आवाज़ तो नहीं है!

उधर से आवाज़ आती है, "हाँ बेटा सुमत. . . मंगल कें पहलऊ पहल लरका भओ है कल संजा के टैम। शुक्कुर कों छटी है. . . टैम निकार कें आईयो।"

. . . सुमति आवाज़ पहचान जाता है . . . "हाँ काका अवश्य आऊँगा।"

गाँव फिर तैर उठता है सुमति के मन-मस्तिष्क में।

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