कड़वा सच

15-08-2021

कड़वा सच

पाण्डेय सरिता (अंक: 187, अगस्त द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

रेलवे स्टेशन के बाहर प्रतीक्षारत एक घण्टे से मैं देख रही थी, एक गुलगुलिया लड़की जान-बूझकर कर लोगों को तंग कर रही है। शान्तचित्त जो बैठे हैं उन्हें अति की हद तक शारीरिक स्पर्श और मौखिक अपशब्दों से उकसा रही है। उम्र और अवस्था यही कोई बारह वर्ष रही होगी। काली भरे-पूरे शरीर वाली उसकी कुटिलता में कहीं से भी बचपना नहीं है। पूर्ण प्रशिक्षित, बहुत ही ढिठाई से प्रत्येक व्यवहार कर रही है। एक जगह उसकी माँ ही होगी जो लगभग एक वर्ष के बेटे के साथ बैठी सब कुछ देख रही है। वह लड़की उकसाती, चिढ़ाती, कभी जेब में हाथ डालती, विवश करती, कभी आसानी से, कभी बहुत मुश्किल से पैसे तो कभी खाने-पीने की कोई चीज़ें प्राप्त करती विजित मुस्कान लिए उस स्त्री पास जमा कर रही थी। 

आज गुज़रते समय मंदिर के सामने नंग-धड़ंग, बिखरे बाल, मानवीय दैनिक मूल आवश्यकताओं से वंचित भीख माँगते क़तारबद्ध बैठे छोटे-छोटे पन्द्रह-बीस बच्चों को देखकर आत्मा काँप गई। उन माता-पिता के लिए कोई तो दण्ड विधान होना ही चाहिए। इससे बड़ा अपराध या पाप और क्या होगा जो पैदा करके, माता-पिता बच्चों से भीख मँगवाए? एक-दो ही उससे ज़्यादा के, अधिकांशतः छह वर्ष से कम उम्र के थे। कमोवेश हर धार्मिक स्थल के बाहर यही स्थिति रहती है। 

बहुत ही साफ़-सुथरी, स्वस्थ एक मूक महिला है जो नियमित समय पर आकर खाना लेकर चली जाती है। इसके बदले जीवन में कहीं कोई सामाजिक या व्यक्तिगत योगदान नहीं। उम्र और अवस्था में महिला से पाँच-सात छोटा उसका पति भी पूरी तरह स्वस्थ, पर मूक है, जो छोटी-मोटी मेहनत-मज़दूरी कर लेता है। बड़ी मुश्किल से दूसरों की दया-दृष्टि पर निर्भर रहने की आदत या विवशता जो भी कहा जाए, ऐसा जीवन है उनका। प्राकृतिक शारीरिक कमी किस में है; अनुत्तरित प्रश्न लिए दोनों की कोई संतान नहीं है। "वह बुढ़िया तुम्हें बच्चा नहीं दे सकती है पर मैं दूँगी"– कहकर किसी महिला ने उसके पति को फँसा लिया है। कुछ दूसरों के मुख से कुछ-कुछ स्वयं उस महिला के संकेतों में पता चला कि संतान कामना के लिए अति व्यग्र उसका पुरुष किसी और औरत पास चला गया है। अब वह उसे प्यार भी नहीं करता। कपड़े-भोजन आदि का प्रबंध भी नहीं करता। जो कुछ इधर-उधर से माँग कर व्यवस्था करती भी है तो पति छीन कर ले जाकर अपनी प्रेयसी को दे आता है। जब नहीं देती है या विरोध करती है तो वह मारता भी है। यह सांकेतिक भाव देख कर और समझ कर मुझे बहुत हँसी आई। अन्तत: बहुत गहन चिंतन के साथ मैं सोचने के लिए विवश भी हो गई, "अपने पेट एवं आश्रय के लिए स्वयं जो दूसरों की दया-दृष्टि पर निर्भर हैं। दोनों अपनी अपूर्णताओं से परे एक-दूसरे का सहारा बनते, पर नहीं, उन्हें ज़बरदस्ती अपना बच्चा चाहिए। धन्य हो परमपिता!"

मानवीय संवेदनाओं का फ़ायदा या लाचारी। क्या समझा जाए इसे . . . मैं नहीं जानती। पर ये हमारे आस-पास की कड़वी सचाई है। 

रेलवे स्टेशन के आसपास और प्लेटफ़ॉर्म पर, घरों के सामने, सड़कों पर गुलगुलिया या अन्य भीख माँगते बच्चे, बड़े स्त्री-पुरुषों की रक्तबीज की तरह बढ़ती संख्या, मानवीय स्वाभिमान और आत्मसम्मान से अपरिचित आकृतियों में मानव रूप, पर पशुवत्‌ छिना-झपटी, नोंच-चोथ की प्रवृत्ति लिए, भयंकर भीड़ उमड़ती है। 

इसे देख कर दया तो आती है पर सामाजिक और पारिवारिक दृष्टि से सुरक्षात्मक भय जनित असुरक्षित भाव से भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता। 

माँगने के लिए हाथ पसारे किसी एक को कुछ भी देने के लिए, चाहे खाना या रुपए जहाँ तैयार हों कि कई और घेर कर तैयार हाथ पसारे, खड़े हो जाते हैं। देने वाला देते-देते, कमाते-कमाते थक जाए, पर लेने वालों की क़तार समाप्त नहीं होने वाली। 

एक दिन, दो दिन, सप्ताह भर की बात अलग है पर ये तो नियमित रूप से समय पर हाज़िर हो जाते हैं। जिन पर ध्यान देना मुश्किल, तो नज़रंदाज़ करना भी मुश्किल। युद्धस्तरीय राज्य और केंद्र सरकारों की योजना पर योजनाएँ, मासिक, अर्धवार्षिक, वार्षिक, द्विवर्षीय, पंचवर्षीय अनवरत रूप में क्रियाशील रहने के बावजूद, पूँजी और संसाधनों की पूर्ति ग़रीबी और अक्षम जनसंख्या रूपी सुरसा के मुख में चलती जाती हैं। 

समाज और देश के संसाधनों पर टिड्डी दलों की भाँति टूट पड़ते आख़िर ये हैं कौन? देशी-विदेशी? इनका परिचय और पहचान है क्या? ये कौन सी व्यक्तिगत-पारिवारिक, आर्थिक-सामाजिक-शैक्षणिक-धार्मिक-राजनीतिक और लोकतांत्रिक व्यवस्था की उपज हैं? . . . जिनसे छुटकारा मिलना असम्भव है। 

पर CAA और NRC के विरोध की आड़ में विध्वंसक घिनौनी राजनीति भारत में अब तक की सबसे बड़ी रुकावट है। 

♦ ♦ ♦
जानते हैं सभी। पर, शुरुआत कौन करेगा? सभी झिझकते हुए, संकोची बन कर मुँह ताक रहे हैं। 

मुझ जैसों की विचारधारा से जहाँ जन्म देने वाली माँ प्रभावित नहीं होती। और तो और जो चौबीसों घण्टे साथ रहता है, पढ़ा-लिखा सभ्य-सुशिक्षित पति भी मज़ाक में लेता है। 

"क्या करोगी? किस-किस को सुधारने का ठेका लोगी? सम्पूर्ण पृथ्वी की सुरक्षा की अकेली ज़िम्मेदारी तुम नहीं ले सकती हो। "

उनकी ये बातें भी सही हैं। एक समय था जब सुबह-सुबह हवन-हुमाद की ख़ुशबू चारों तरफ़ फैलती थी। पर अब जलते प्लास्टिक की बदबू आती है। गाय-बकरियाँ और आवारा कुत्ते भोजन सामग्रियों के साथ प्लास्टिक के थैले चबाते अक़्सर दिखाई देते हैं। 

इस तरह की घटनाएँ मुझ जैसी जीवात्माओं को परेशान करती हैं। जिससे अधिकांशतः मृतात्माओं को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। लापरवाह और आलस्य से भरे हुई, उन मृतात्माओं के पास बड़ी-बड़ी झूठी डिग्रियाँ होती हैं। उन्होंने जो प्राकृतिक संबंधों से अनजान और अपरिचित रहकर प्राप्त की हैं। हरे पत्तों को सीकों से जोड़कर बनायी हुई वह बड़ी गोलाकार थाली जिस पर खाने की वस्तुएँ रखते हैं; जैसी पत्तलों पर खाने की तुलना में, जिन्हें थर्मोकोल की थालियाँ और कटोरियाँ सहज-सुलभ प्रतीत होती हैं। फूलों की प्राकृतिक ख़ुशबू से ज़्यादा आकर्षित, नक़ली ख़ुशबू करती है जिन्हें। अपनी विरासत नष्ट कर, दूसरों की जूठन परंपरा और गुणगान का भरोसा है जिन्हें। असली दुनिया के बदले, नक़ली-काल्पनिक दुनिया की चाहत और ख़्वाहिशें हैं जिन्हें। 

सचमुच कुछ नहीं कर सकती। 'सुखों का उपभोग एवं उपयोग करो और फेंको' संस्कृति के भटकाव में सुख तलाशती मृतात्माओं के लिए मैं। 

♦ ♦ ♦
"सबकी माँ, तुम्हारी तरह जागरूक और संवेदनशील नहीं होती इसलिए यहाँ नदी किनारे गंदगी है ना माँ," कचड़े को समेटने में सहयोग करती नन्हीं बेटी ने अपना विचार व्यक्त किया। 

जिसे सुनकर और देखकर – "क्या NGO चला रही हो? ना ख़ुद कुछ अनुभव करोगी, और ना ही किसी और को करने देती हो। ...जाओ ट्रैक्टर ट्राली में भरकर हटाओ सारा कचड़ा। . . . मर भी जाओगी तो भी कुछ नहीं कर पाओगी। . . . समझी . . . यही है . . . यहाँ की मानवीय-सामाजिक, बौद्धिक और व्यावहारिक जनचेतना।” 

प्रकृति के प्रति संवेदनशील, सकारात्मक सोच रखने वाली, इस प्रकार की दुर्गति और गंदगी से विचलित, चिंतित-परेशान पत्नी को क्रियाशील देखकर, प्राकृतिक सौंदर्य के आनंदातिरेक में, लहरों से खेलने में व्यस्त नदी के मध्य से, पति देव ने व्यंग्यात्मक झिड़की दी। 

झारखण्ड के प्राकृतिक सौंदर्य के बीच बराकर नदी के किनारे दूर-दूर तक फैले बेतरतीब थर्मोकोल की पत्तलें और प्लेटें, प्लास्टिक की थैलियाँ, असंख्य शराब की बोतलें देखकर फ़िक्रमंद, आश्चर्यचकित माँ, यथासंभव समेटकर एक जगह रखने की कोशिश भी करती। पर, एक हवा के झोंके में सब अस्त-व्यस्त बिखर यथावत्‌ स्थिति में पहुँच जाते। 

"कल नववर्ष की पार्टी मना लेने के बाद आना . . . तुम्हारी बहुत ज़रूरत यहाँ पड़ेगी। आ रही हो ना। . . . तुम सिर्फ़ और सिर्फ़ ख़ाली बोतलें बेच कर ही अमीर हो सकती हो। "

कौन, किसकी सुनता है भला? सही क्या है ग़लत क्या है? आख़िर कौन नहीं जानता? दिन-रात अख़बार और टीवी कार्यक्रमों में प्रकृति एवं पर्यावरण के स्वच्छता अभियान संबंधित जानकारी भरी पड़ी है। बावजूद अपने दैनिक सामाजिक जीवन में उन्हें अपनाता कौन है?

ऊपरी तौर पर ख़ुद को अप्रभावित दिखाने के लिए, असभ्य-मृतात्माओं और असंवेदनशील बाहरी दुनिया के प्रति कुछ भी कहना, व्यर्थ की कोरी बकवास होगी। . . . इसलिए अपनी पत्नी की भावुकता पर चिढ़ाने के लिए कहे जा रहे थे। 

प्राकृतिक संपर्क में रहना था तो कुछ घण्टे तक। पर, यहाँ की मुश्किल से दो घण्टे की मौज़ूदगी में ही जिसे देखो, प्रत्येक पुरुष के हाथ में विनाशकारी शराब की बोतलें, वही थर्मोकोल की थालियाँ और प्लेटों के साथ प्लास्टिक की थैलियाँ . . . । 

इस पश्चिमी नववर्ष के नाम पर शराब और कबाब के नाम पर गंदगी और प्रदूषण मचाते देखकर, फ़िक्रमंद स्त्री रूपी माँ ने अपनी और अपनी बेटी की शारीरिक सुरक्षा के प्रति चिंतित होकर जल्द से जल्द वहाँ से हटने में ही अपनी भलाई समझी। दुर्भाग्यवश . . . पर कठोर सत्य। प्राकृतिक सौंदर्य की अनुभूतियों के बदले में, लौटकर घर की चारदीवारी में क़ैद सुरक्षित रहना ही बेहतर समझा। 
 

2 टिप्पणियाँ

  • 19 Aug, 2021 05:37 PM

    बिल्कुल सही। 'दुनियावाले क्या कहेंगे' हास्य-व्यंग्य पढ़कर 'बाप रे' उक्ति कुछ समय पश्चात 'सब चलता है' में बदलने जा रही है। यहाँ पश्चिम देशों में तो यह परिवर्तन आ ही चुका है। 'एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा' फ़िल्म देखकर यही लगा कि भारतवासी भी पाश्चात्य प्रभाव से बच नहीं पाये।

  • 18 Aug, 2021 08:59 PM

    एक भले इंसान के एक भले प्रयास का यदि दस व्यक्ति अनुसरण करने लगें, और उन दस को देखकर बीस और आकर जुड़ जायें, तो आज का यही कड़वा सच कल के सुखद भविष्य की नींव डालने में सहायक होगा।

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